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बसती हो और जो साधु के निमित्त न तो बनाई गई हो
और न साधु के निमित्त से उसमें किसी प्रकार की प्रारम्भ-सारम्भ आदि क्रियायें की गई हों; ऐसे एकान्त शुद्ध स्थानों को उपाश्रय, वसती या स्थानक कहते हैं।
आत्मसमाधि के लिए ऐसे ही शुद्ध निर्दोष और विविक्त स्थानों में जैन मुनियों को निवास करना चाहिये, कारण कि इस प्रकार के स्थानों में रहने से ही संयम का यथावत् पालन और आत्मसमाधि की प्राप्ति हो सकती है।
इन्हीं स्थानों को, जहाँ पर कि संयम निर्वाह के लिये जैन मुनि समय-समय पर आकर ठहरते हैं, श्रमणोपाश्रय भी कहते हैं; और उनके पास जानेवाले गृहस्थों को श्रमणोपासक के नाम से भो उल्लेख किया है। श्रीभगवतो सूत्र में कहा है कि श्रमणोपाश्रय में यदि किसो श्रमणो. पासक (जैन गृहस्थ ) ने सामायिक की हो और उसको किसी वस्तु का वहाँ पर अपहरण हुआ हो तो वह सामायिक के पश्चात् उक्त वस्तु को वहाँ पर ढूँढता है, वह वस्तु उसी गृहस्थ की होती है अन्य किसी की नहीं, क्योंकि सामायिक में उस गृहस्थ का ममत्व का त्याग नहीं है। "समणोबासगस्सणं भंते सामाइयकहस्स
* सामाइयकड़स्सत्ति कृतसामायिकस्य प्रतिपन्नाद्यशिक्षाव्रतस्य, श्रमणोपाश्रये श्रावकः सामायिकं प्रायः प्रतिपद्यते इत्यत
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