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ACT
( १३ ) उपर बताये गये द्रव्य और भावरूप स्थानों-स्थानकों में वास करने से जैन. भिक्षु स्थानकवासी कहलाते हैं; जो कि किसी प्रकार से भी अनुचित नहीं है। यहां पर यह शंका हो सकती है कि जिस प्रकार व्याकरण के अनुसार स्थान शब्द से स्वार्थ में क प्रत्यय होने से स्थान
विशेषभावादसंख्येयानि तानि भवंति, यथाख्याते. त्वेकमेव, तदद्धायाश्चरणविशुद्धेनिर्विशेषत्वादिति, संयमस्थानाल्पबहुत्व चिन्तायां तु किलासद्भावस्थापनया समस्तानि संयमस्थानान्येक: विंशतिः, तत्रैकमुपरितनं यथाख्यातस्य, ततोऽधस्तानि चत्वारि सूक्ष्मसम्परायस्य, तानि च तस्मादसंख्येयगुणानि दृश्यानि, तेभ्योऽधश्चत्वारि परिहत्यान्यान्यष्टौ परिहारकस्य, तानि च पूर्वेभ्योऽसंख्येयगुणानि दृश्यानि, ततः परिहृतानि यानि चत्वार्यष्टौ च पूर्वोक्तानि तेभ्योऽन्यानि च चत्वारीत्येवं तानि षोड़श सामायिकछेदोपस्थापनीयसंयतयोः, पूर्वेभ्यश्चैतान्यसंख्यातगुणानीति ।
इसका संक्षेप से भाव यह है कि सामायिक-संयत के असंख्यात संयमस्थान कहे हैं, इसी प्रकार छेदोपस्थानीय और परिहारविशुद्धि-संयत के भी असंख्यात संयमस्थान जानने, किन्तु सूक्ष्मसंपराय-संयत के आन्तर्मुहूर्तिक असंख्यात संयम स्थान हैं, और अत्यन्त विशुद्ध होने से यथाख्यात चारित्र का एक ही संयमस्थान माना गया है। फिर मूल सूत्र में इन संयम स्थानो का जो अल्पबहुत्व कथन किया गया है, उसको वृत्तिकार ने स्फुट कर दिया है।
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