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में स्थानकवासी कहे व माने जा सकते हैं। उसके बाद सर्वोत्कृष्ट कैवल्यविभूति द्वारा परमानीत जीवन्मुक्त स्थान में निवास करनेवाले तीर्थंकर और अन्य केवली स्थानकवासी हैं। इसके अनन्तर उक्त स्थान (मोक्ष स्थान) को प्राप्त करने की तीव्र अभिलाषा रखनेवाले जैनमुनि, विशुद्धभाव से संयमरूप स्थान में वास करने से और भाव संयम के पोषक निर्दोष स्थानक उपाश्रय वसती आदि में निवास करने से स्थानकवासी कहे जाते हैं । इस प्रकार सिद्धों से लेकर वर्तमान जैनमुनियों तक सभी स्थानकवासी हैं। इसमें शंका को कोई स्थान नहीं।
प्रत्येक शब्द के अर्थनिर्देश में द्रव्य और भाव दोनों ही ग्रहण किये जाते हैं और ग्रहण करने भी चाहिये, अन्यथा शब्दार्थ अधूरा रह जाता है । इसलिये किसी शब्द का अर्थ करते समय द्रव्य और भाव इन दोनों को ही सम्मुख रखना चाहिये। जैसे कि ऊपर स्थानकवासी शब्द के अर्थ में बतलाया गया है। वैसे ही जैन परम्परा में उपलब्ध होनेवाले दिगम्बर और श्वेताम्बर शब्द भी द्रव्य
और भाव इन दोनों को लेकर प्रवृत्त हुए हैं । द्रव्य से दिगम्बर वह है जिसके बदन पर कोई वस्त्र नहीं । और
कहिणं भंते ! सिद्धाणं ठाणा पण्णता ? कहिणं भंते ! सिद्धापरिवसंति [ पण्णवणा सू० दूसरा पद सिद्धाधिकार]
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