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( ११ ) ही आत्मसमाधि और संयम की निर्मलता नहीं हो सकतो; इमलिये मोनाभिलाषो मुनि को द्रव्यरूप स्थान से आगे भावरूप स्थान को अपनो निवासभूमि बनाने की आवश्यकता होती है।
प्रात्मा को स्वाभाविक गुण-परिणति, उसका भावस्थान है; अथवा ऐसे कहें कि आत्मा के औपशमिक, सायिक, सायोपमिक, औदायक और पारिणामिक इन पाँच भावों में से क्षायिक भाव ही मुख्य भार स्थान है, क्योंकि यह भाव कर्मसम्बन्ध के सर्वथा क्षय होने से ही प्राप्त हाता है । इस भाव स्थान को प्राप्त करने के लिये भावमयम को ग्रहण करना होगा और भावसंयम के लिये सामायिकादि चारित्रों के विशुद्धतर संयमस्थानों में निवास करना अर्थात् उनका यथावत् पालन करना परम आवश्यक है । इसलिये परमसाध्य मोत स्थान की प्राप्ति के निमित्त भावसंयम को आराधना करनेवाला जैनमुनि, सामायिक, छेदोषस्थापनोय, परिहारविशुद्ध, सूक्ष्मसम्पराय और यथाख्यान इन पाँच प्रकार के चारित्रभेदों के वर्णन किये गये 8 संयम स्थानों में से विशुद्ध और
* श्रीभगवतीसूत्र में सामायिकादि चारित्रों के संयमस्थानों का वर्णन इस प्रकार से किया है
“सामाइयसंजयस्सणं भंते ! केवइया संजमदाणा पुण्णता,
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