Book Title: Sthanakvasi
Author(s): Aatmaramji Maharaj
Publisher: Lala Valayati Ram Kasturi Lal Jain

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Page 14
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १० ) भाव स्थानक ऊपर के कथन में द्रव्यस्थानक का वर्णन किया गया है अर्थात् प्रागमसम्मत निर्दोष और विशुद्ध स्थान में निवास करनेवाला ही आत्मसमाधि को उपलब्ध कर सकता है, क्योंकि श्रात्मशुद्धि के लिये भावशुद्धि के साथ-साथ द्रव्यशुदि को भी बड़ी आवश्यकता होती है। प्रायः द्रव्यशुदि भावशद्धि में बड़ो सहायक होती है, इसी लिये स्थान स्थान पर शास्त्रकारों ने साधुओं के लिये एकान्त और शान्तिप्रद स्थान में, जहाँ किसी प्रकार से संयम को बाधा न पहुँचे, रहने और कामरागविवक स्थान को त्यागने की आज्ञा दी है। परन्तु केवल द्रव्यशुद्धि से * आगम में लिङ्गादि का भी द्रव्य और भाव रूप से उल्लेख किया गया है जैसे कि___पुलाएणं भंते ! किं सलिंगे होज्जा अण्णलिंगे होजा गिहिलिंगे होज्जा १ गोयमा ! दवलिंगं पडुच्च सलिंगे वा होज्जा अण्णलिंगे वा होज्जा गिहिलिंगे वा होज्जा, भावलिंगं पडुच्च नियमा सलिंगे होजा एवं जाव सिणाए ॥९॥ ___ लिङ्गद्वारे लिङ्गं द्विधा द्रव्यभावभेदात्, तत्र च भावलिङ्गं ज्ञानादि, एतच्च स्वलिङ्गमेव, ज्ञानादिभावस्याहतामेव भावात्, द्रव्यलिंगं तु द्वेधा स्वलिङ्गपरलिङ्गभेदात्, तत्र स्वलिङ्गं रजोहरणादि, परलिङ्गं च द्विधा कुतीर्थिकलिङ्गं गृहस्थलिङ्गं चेति । For Private and Personal Use Only

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