Book Title: Sramana 2016 01
Author(s): Shreeprakash Pandey, Rahulkumar Singh, Omprakash Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi
View full book text
________________
16 : श्रमण, वर्ष 67, अंक 1, जनवरी-मार्च, 2016 सहअस्तित्व का सिद्धान्त जैन धर्म समस्त जीवों के अस्तित्व एवं विकास में आस्था रखता है। जैन दर्शन के मूल सिद्धान्त 'उत्पाद व्यय ध्रौव्ययुक्तं सत्'२१ तथा 'अनन्तधर्मात्मकं वस्तु २२ के आलोक में ही जैन दर्शन के अनेकान्तवाद एवं स्याद्वाद सिद्धान्त विश्व में मैत्री एवं सामंजस्य तथा सहअस्तित्व की भावना के उपजीव्य है। अत: पर्यावरण संरक्षण के लिए मानव चेतना को जागृत करना अत्यन्त आवश्यक है। जन-जागरण के द्वारा, जैन सिद्धान्तों को जीवन में उतारते हुए सभी जीवों को अपने समान मानते हुये उनके प्रति मैत्रीभाव रखते हुए मानव सुखी जीवन जी सकता है।
सत्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम्
माध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ सदा ममात्मा विदधातु देव।। २३ सन्दर्भ :
अप्सु अमृतम्, अप्सु भेषजम् ।अथर्व.१.४.४ अथर्ववेद, १२.१.१२ यजुर्वेद- ३६.१७ अथर्व. ८.२.२५ अथर्व. १८.१.१७ ऋग्वेद-१०.१८६.३; १०.१८६.१ ईशावास्योपनिषद् १.१ यजुर्वेद ४.१, १६.१९, २०.३४ तैत्तिरीय आरण्यक १.२६.७
यजुर्वेद ३६.१८ ११. गीता ७.४
आचारांग १.१.१ वही १.२.३.६३ तत्त्वार्थसूत्र-२/१२-१३ समवायांगसूत्र-स्थान-१७ - तत्त्वार्थसूत्र-७/८
१३.
१४