Book Title: Sramana 2016 01
Author(s): Shreeprakash Pandey, Rahulkumar Singh, Omprakash Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi
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30 : श्रमण, वर्ष 67, अंक 1, जनवरी-मार्च, 2016 उपरोक्त अध्ययन से स्पष्ट है कि बुद्ध के काल से लेकर लगभग प्रथम शती ई. तक बौद्ध धर्म में नारी शिक्षा को महत्त्व मिला। परन्तु कालान्तर में भिक्षुओं का संघ में बढ़ते वर्चस्व और धर्म के प्रसार और तन्त्र के प्रभाव ने कहीं न कहीं नारी-शिक्षा के प्रति दृष्टिकोण में परिवर्तन पैदा किया। यही कारण है कि आज तमाम बौद्ध संस्थानों, मठों में भिक्षुणियों की संख्या भिक्षुओं की तुलना में न के बराबर है। साथ ही वर्तमान भारत में अधिकतर बौद्ध धर्म मानने वाली जातियों में शिक्षा का सर्वाधिक अभाव भी दिखलायी पड़ता है। श्रमण परम्परा की दूसरी महत्त्वपूर्ण शाखा और भारतीय संस्कृति के विकास की अभिन्न कड़ी जैन धर्म का नारी-शिक्षा के प्रति उदार दृष्टिकोण साहित्य एवं कला में सामान्य रूप से द्रष्टव्य है। यही कारण है कि जैन साध्वियों के बहुविध उल्लेख हमें 'शिक्षिका' एवं 'उपदेशक' के रूप में प्राप्त होते हैं। बौद्ध परम्परा के अनुरूप जैनों ने भी शिक्षा को सार्वजनिक बनाने के लिए जनसामान्य को प्रशिक्षित करने का प्रयास किया। जैन परम्परा में जैन संघ (साधु, साध्वी, उपासक एवं उपासिका) द्वारा शास्त्राध्ययन धार्मिक क्रियाकलाप का एक प्रमुख अंग है और इसीलिए जैन परम्परा में लघुचित्र निर्माण एवं ग्रन्थ लेखन की एक परम्परा सी चल पड़ी। इसके लिए जैन समाज (व्यापारिक समाज) एवं राजकीय संरक्षण ने जैन-संघ को हमेशा भक्तिभाव से पर्याप्त धन मुहैय्या करवाया। इसी क्रम में शास्त्र रचना, उनकी प्रतियाँ तैयार करना एवं संरक्षित करना और शास्त्र-दान की धार्मिक क्रिया ने विशाल जैन साहित्य भंडारों को समृद्ध किया जो आज भी गुजरात, राजस्थान एवं अन्य स्थानों के जैन भंडारों के संग्रह के रूप में विद्यमान हैं। दूसरा महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि लेखन की भाषा के रूप में जनभाषा (प्राकृत) का चुनाव किया। महावीर के काल से ही जैनों ने अर्द्धमागधी प्राकृत भाषा का उपयोग करना शुरू कर दिया था और कालान्तर में प्राकृत के साथ संस्कृत एवं क्षेत्रीय भाषाओं यथा अप्रभंश, कन्नड़, तेलुगु, तमिल, हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती एवं मराठी जैसी भाषाओं को साहित्य रचना का आधार बनाया जिससे स्वतः ही धार्मिक जनजागरण, ज्ञान और शिक्षा का विस्तार होता चला गया। जैनों का विश्वास है कि सम्पूर्ण ज्ञान की कुंजी 'आगम साहित्य' है, जबकि पौराणिक साहित्य तीर्थंकरों के पूर्व-जीवन के कथा साहित्य हैं।८ जैन साहित्य में अनेकानेक उल्लेख नारी-शिक्षा के सन्दर्भ में प्राप्त होते हैं जो आज भी जैन धर्म एवं समाज में द्रष्टव्य हैं (विशेष रूप से श्वेताम्बर जैन परम्परा में)। प्रारम्भ से ही जैन परम्परा में धर्म के माध्यम से शिक्षा का प्रचार-प्रसार, ग्रन्थ-लेखन एवं शास्त्र-दान के रूप में हुआ है जिसे आज भी आचार्य, मुनि, भट्टारक, साध्वी,