Book Title: Sramana 2016 01
Author(s): Shreeprakash Pandey, Rahulkumar Singh, Omprakash Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 51
________________ 44 : श्रमण, वर्ष 67, अंक 1, जनवरी-मार्च, 2016 'वातरशन', 'उर्ध्वमंथी' यह पदावली जैन परम्परा में स्वीकृत नहीं, वैखानस में प्रचलित रही होगी। अत: भागवत के इस उद्धरण से न तो वातरशनों के सम्प्रदाय की अविच्छिन्न परम्परा का साक्ष्य मिलता है और न जैन धर्म का वातरशन सम्प्रदाय से मौलिक सम्बन्ध का आधार ही दिखायी देता है। यह निष्कर्ष श्रीधर स्वामी के भाष्य से समर्थित भी है। उनका कथन है कि 'वातरशनानां दिग्वाससां पाषण्डिव्यावृत्यर्थमाह', जैनमत के दिगम्बर वेशधारी ऋषभदेव से विभिन्नता दिखाने के लिए उनसे व्यावृत्ति के लिए वातरशन पद का प्रयोग किया गया। अस्तु, केशीसूक्त के एक हजार वर्ष बाद लिपि-निबंद्ध भागवत के आधार पर वातरशन श्रमणों की परम्परा के इतिवृत्त के सर्जन का साहस सम्भवत: इतिहासकार न जुटा सका और न यह साक्ष्य परम्परा वातरशनों का आदिम श्रमणों से सम्बन्ध स्थापित करने में सक्षम ही है। पुनः मुनि तत्त्व विषयक परम्परा पर वापस आते हुए वैदिक वाङ्मय में प्राप्त इतर साक्ष्यों का संक्षिप्त अवलोकन कर लिया जाय। ऋग्वेद के 'धुनिर्मुनिः' की सायणीय व्याख्या बहुविधाशब्दोत्पादक मुनिः सुसंगत है। 'इन्द्रो मुनीनां सखा ५० और ताण्ड्य ब्राह्मण के मुनि भरण और वैखानस रक्षण से सम्बद्ध प्रतीत होता है। ऐतरेय आरण्यक५२ मुनियों की गंगा यमुना के अन्तरालवर्ती प्रदेश में अवस्थिति का द्योतन करता है- गन्नायमुनयोर्मुनिभ्यश्च नमः। इसी श्रृंखला में बृहदारण्यक उपनिषद् द्वारा की गयी मुनि की परिभाषा भी अवधेय है- “तस्मात् ब्राह्मण: पाण्डित्यं निर्विद्य बाल्येन तिष्ठासेत् बाल्यं पाण्डित्यं च निर्विद्यार्थ मुनिः" अर्थात् -(लोक-सम्मान के परित्याग से) ब्राह्मण पाण्डित्य से विरत होकर बालक के समान रहने की इच्छा करे। बाल्य और पाण्डित्य से विरत होकर वह मुनि की स्थिति प्राप्त करता है। यहां बाल्य से तात्पर्य लौकिक ज्ञान का अभाव और पाण्डित्य से अभिप्राय है लौकिक वैदुष्य। इन दोनों के परित्याग से अथवा आत्मज्ञान की उपलब्धि से मुनि भाव सम्पन्न होता है। शंकराचार्य ने इस स्थल के पाण्डित्य और मुनि-भाव को समानार्थक माना है। उनका कथन है 'मुनि शब्दस्य ज्ञानातिशयार्थत्वात् मननान्मुनिरित च व्युत्पत्तिसम्भवात् मुनीनामप्यहं व्यासः' इति च प्रयोग दर्शनात्"। इसका तात्पर्य यह है कि व्युत्पत्ति और प्रयोग दोनों आधारों पर मुनि का अर्थ अनातिशय है। इसी प्रसंग में बृहदारण्यक५ की उक्ति है - "एतमेव विदित्वा मुनिर्भवति। एतमेव प्रव्राजिनो लोकमिच्छन्तः प्रव्रजन्तिः.... लोकैषणायाश्च व्युत्थाय भिक्षाचर्य चरन्तिा"

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