Book Title: Sramana 2016 01
Author(s): Shreeprakash Pandey, Rahulkumar Singh, Omprakash Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 52
________________ मुनि परम्परा का विकास ऋग्वेद से लेकर महावीर तकः 45 अर्थात् -ब्रह्म-तत्त्व को जानकर वह मुनि होता है। ब्रह्म लोक की इच्छा करते हुए ये परिव्राजक प्रवज्या धारण करते हैं। लोक-सम्मान की इच्छा त्यागकर भिक्षाचरण करते हैं। इसके पश्चात् ही सूत्रग्रन्थों में मुनि, भिक्षु, परिव्राजक और संन्यासी समानार्थक हो गए। मुनि शब्द चतुर्थाश्रमवाची हो गया। बौधायन संन्यासी को परिव्राजक, आपस्तम्ब मुनि, और गौतम भिक्षु कहते हैं इस प्रकार मुनि-परम्परा संन्यास में निमज्जित हो गयी है। वैदिक वाङ्मय में अतीन्द्रियार्थदर्शी मुनि की दो परम्परायें है- प्रथम केशीसूक्त में निबद्ध है और द्वितीय मुनि कावषेय के सन्दर्भ में दिखायी देती है। वे परिव्राजक पिशंग (कषाय) वस्त्रधारी थे। प्राणोपासना इनकी केन्द्रीय साधना थी। ये वैदिक स्वाध्याय और अग्निचर्या के महत्त्व को स्वीकार नहीं करते थे। ब्रह्म विद्या ही इनका ध्येय था। दूसरी परम्परा यतियों की थी जिससे श्रमणों के मूल-सूत्र का सन्धान किया जाता है। यदि मुनि भारतीय आर्य अवधारणा है तो यति भारतेरानी धार्मिक परम्परा का एक प्रमुख तत्त्व है। प्राचीन भारतीय मनीषियों तथा आधुनिक विद्वानों ने यतियों के विषय में विविध मतों का प्रणयन किया है। अधिकांश इसको इन्द्र-विरोधी वेदेतर तापसों के रूप में स्वीकार करते हैं। इनको आसुरी प्रजा मानकर या उनके असुर सम्बन्धों को ध्यान में रखकर उनके प्रति अनिवार्यता को स्वीकार करते हैं। कुछ विद्वानों में इन्हे श्रमणों का मूल रूप भी माना है। प्रस्तुत प्रकरण में यतियों के स्वरूप का संक्षिप्त अनुसन्धान वांछनीय प्रतीत होता है। 'यत्-यत्' धातु से निष्पन्न ‘यति' शब्द निश्चित ही 'आर्य' शब्द है। बांबेनिस्ते, बेली और तोपोरोव ने जो शोध-कार्य किया, उससे स्पष्ट होता है कि इस धातु का मूलार्थ है- उचित स्थान निर्धारित करना, अर्थात् नियति निश्चित करना, अनुवाद रूप में इष्ट पदार्थ प्रदान करना। इससे ही दूसरा अर्थ निकला- 'श्रद्धा-पूर्वक कृत्य करना या सादर अपने को देव के समक्ष उपस्थित करना है। इन दुहरे अर्थों के कारण ‘यति' शब्द के दो अर्थ हो जाते हैं- देव विशेषतः मित्र जो नियति-निर्धारण करता है और देव पूजक जो श्रद्धापूर्वक देव-समक्ष अपने को उपस्थित करता है। इन देववाची और मानव-अभिधायक अर्थों के कारण मैकडोनेल, कीथ६ आदि को प्रान्ति हो गयी। देव-वाची को उन्होंने मिथक समझा और मानव को अभिहित करने वाले सन्दर्भो को ऐतिहासिक। ऋग्वेद में दोनों अर्थ

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