Book Title: Sramana 2016 01
Author(s): Shreeprakash Pandey, Rahulkumar Singh, Omprakash Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 48
________________ मुनि परम्परा का विकास ऋग्वेद से लेकर महावीर तकः 41 आगे चलकर पुन: इसका प्रयोग विशेष अर्थ में किया गया है। ‘पिशन द्रापि'२६ 'पिशन भ्रष्टिं'२७ 'पिशनाश्वा' 'अरुणाश्वा' में पिशंग का अर्थ रक्ताभ अथवा ताम्र और इसका तात्पर्य गैरिक वस्त्र से होगा। ऋग्वैदिक परम्परा में पिशंग वस्त्रों का उल्लेख अप्राप्य है। परन्तु यत्र-तत्र इस तथ्य का उल्लेख मिलता है कि पिशंग वस्त्रों का निर्माण होता था। अथर्ववेद में खुगल को पिशंग सूत्र से बांधने का उल्लेख प्राप्त होता है- “पिशन्ने सूत्रे तद् खगलं बधनन्ति वेधासा२९" सारांश रूप में 'पिशंना वसते मला:' का अर्थ है कि वे मुनि गैरिक वस्त्र धारण करते थे। ऋग्वेद (१०.१३६) में स्पष्टत: जैन मुनियों का ही उल्लखे है जिसमें कहा गया है कि वे वैदिक ऋषियों से भिन्न अस्वच्छ वस्त्र पहनते थे। वातरशन की अनेक व्याख्यायें की गई हैं। मैकडोनेल और कीथ इसका अर्थ वातमेखला से युक्त अर्थात् नग्न करते हैं। पश्चात्वर्ती टीकाकार यथा श्रीधरस्वामी की भागवत में यही व्याख्या है - "वातरशना: दिग्वाससः'। श्रीधर और भी स्पष्ट करते हुए कहते हैं 'वातो वायुस्स एव रशना कटिसूत्र येषां ते' परन्तु यह अर्थ समीचीन नहीं प्रतीत होता। वैदिक साहित्य के किसी स्थल पर भी रशना का अर्थ कटिबन्ध नहीं प्रयुक्त किया गया है, उसके लिए मेखला शब्द प्रयुक्त है। 'रशि नियमने बंधाने' से उत्पन्न शब्द 'रशन' का अर्थ है बन्धानु संयम। इसलिए अंगुलियां जो पकड़ती हैं उसको रशना कहा गया- 'रशनाभिर्दशभिरभ्यधाता'३२ दश रशनाओं से (शिकार) प्राप्त कर लिया गया। दुर्गाचार्य३३ की व्याख्या इस प्रकार की 'रशनाभि: अनुलीभिः दश संख्या योगिनीभिः अभ्यधीतां प्रतिनिबंधनीताम्।' वाजसनेयी संहिता में 'रशनां विप्रतं' पर महीधर का कथन है- 'रशनां रज्जु विभ्रते स्वभावानुवादः यूपे हि पशुबन्धाय रज्जुर्बध्यते'। किन्तु 'रशन' का मुख्य अर्थ है घोड़े की लगाम जीन या उसके रथ में संयोजन के लिए रज्जु। 'अश्वं न रशनाभिर्नयन्ति'३५ अर्थात् जैसे घोड़े को रशनाओं से पकड़कर ले जाते हैं। 'जग्राह वाचमश्वं रशनया यथा'३६ जैसे रशना से घोड़े को पकड़ा वैसे ही वाणी को पकड़ा। 'अश्व रशनां' एक वैदिक प्रतीक है। अश्व का अभिधेय अर्थ घोड़ा है; किन्तु इसका प्रतीकात्मक अर्थ है- प्राणवायु। 'अश व्याप्नोति' से अश्व का अर्थ वह प्राण-वायु जो सम्पूर्ण शरीर में परिव्याप्त होता है। ऋग्वेद में प्राण-वायु के लिए प्रचलित शब्द वात था- वातो हि प्राण उच्यते।३७ वातस्याश्वा ऋज्रात्मना वहध्यै२८ अर्थात् वातरूपी अश्व आत्मना, बिना किसी सारथी के सीधे वहन करते हैं। विशेष रीति से द्रष्टव्य है

Loading...

Page Navigation
1 ... 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114