Book Title: Sramana 1999 01
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 25
________________ श्री अजरामर स्वामी अपना पुत्र इतना अधिक तेजस्वी है, इस बात का विश्वास हो गया और मन में भावना जगी कि बड़ा हो कर यह कोई महान् साधु महात्मा बने तो कितना अच्छा हो। माँ की भी दीक्षा लेने की भावना हो गई थी। वि० सं० १८१८ में हीराजी स्वामी और कानजी स्वामी जी लिम्बडी से विहार कर के गोंडल पधारे थे, वहां उनका चातुर्मास था। कंकुबाई और अजरामर हीराजी स्वामी के पास गोंडल जा पहुँचे और अपनी तथा बालक की दीक्षा लेने की भावना है यह इच्छा बतलाई। हीराजी स्वामी ने इसके लिए कुछ रुक जाने को कहा और अजरामर को अपने पास और कंकुबाई को महासती जेठीबाई के पास रह कर शास्त्राभ्यास कराने की व्यवस्था कर दी। चातुर्मास के पश्चात् अन्यत्र विहार कर के सं० १८१९ में हीराजी स्वामी फिर गोंडल पधारे और वहीं कंकुबाई तथा बालक अजरामर को दीक्षा दी गई। गोंडल के लिए यह एक भव्य प्रसंग हो गया। गोंडल नरेश ने भी इस प्रसंग पर उत्साहपूर्वक भाग लिया और राज्य की ओर से अच्छा सहयोग मिला। दीक्षा के बाद अजरामर कानजी स्वामी के शिष्य हुए और कंकुबाई महासती जेठाबाई की शिष्या बनीं। बालक अजरामर बहुत तेजस्वी था। उसके मुखमंडल, भव्य ललाट और तीक्ष्ण नेत्र देखते ही दर्शकों को यह विश्वास हो जाता कि यह कोई असाधारण बालक माता कंकुबाई और बालक अजरामर जब गोंडल में हीराजी स्वामी के पास दीक्षा लेने की भावना से आये थे तब बालक अजरामर उपाश्रय से कई भिन्न-भिन्न गृहस्थों के घर भोजन करने जाते। एक बार गोंडल की वैष्णव हवेली के गोसाईजी महाराज ने इस तेजस्वी बालक को बुला कर बातचीत करके दीक्षार्थी ज्ञात कर सोचा कि ऐसा बालक अपनी हवेली में आकर रहे और अपना उत्तराधिकारी बने अजरामर को बुलाकर उन्होंने कहा कि यहां हवेली में रहने से उत्तम वस्त्राभूषण और सरस खानपान मिलेगा और विशाल सम्पत्ति के वारिसदार बनोगे। यह सुनकर बालक जरा भी नहीं ललचाया और संयम मार्ग पर दृढ़ रहा इससे ज्ञात होता है कि अजरामर की दृष्टि कितनी सत्य, स्वस्थ और स्थिर थी। दीक्षा के पश्चात् अजरामरजी ने अपना अभ्यास बढ़ाया और कितने ही भिन्नभिन्न स्थानों पर चातुर्मास करने के बाद हीराजी स्वामी की भावना हुई कि बालमुनि को आगे विशेष अभ्यास के हेतु सूरत की ओर विहार करना चाहिए क्यों कि उस समय सूरत में बड़े-बड़े विद्वान् रहते थे। सं० १८२६ में पू० श्री हीराजी स्वामी, पू० श्री कानजी स्वामी और बालमुनि श्री अजरामर स्वामी चातुर्मास के पश्चात् भरुच से सूरत की ओर विहार कर रहे थे। वे नर्मदा नदी पार करने के लिए रेती/बाल का मार्ग पार करके एक वृक्ष की छाया में बैठे थे। उस समय सूरत निवासी खरतरगच्छ के श्रीपूज्य १४४

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