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श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९९
शिलापट्ट प्रशस्ति, आदिनाथ जिनालय, हीरावाड़ी, नागौर
उक्त अभिलेख से राजरत्नसूरि और उनके शिष्य रत्नकीर्तिसूरि किस गच्छ के थे, इस बारे में कोई सूचना प्राप्त नहीं होती किन्तु उक्त जिनालय में ही मूलनायक के रूप में स्थापित आदिनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख से इस सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है। महोपाध्याय विनयसागर जी ने इस लेख का मूलपाठ दिया है', जो निम्नानुसार है:
॥ॐ।। सं० १५९६ वर्षे फाल्गुन सुदि नवम्यां तिथौ.. .......................गोत्रे .............................सं० नोल्हा पु० सं० तेजा पु० सं० चूहड भा० सं० रमाइ पु सं० लक्ष्मीदास सं० लक्ष्मीदास भा०.... ...............कल्याणमल्ल तत्र लक्ष्मीदास भार्या सरूपदेव्यौ कर्मनिर्जरार्थं श्री आदिनाथ बिंब कारितं प्रतिष्ठितं. ..............भट्टारक श्रीसोमरत्नसूरिपट्टे भट्टारिक श्री श्रीराजरत्नसूरयस्तत्पट्टे श्रीरत्नकीर्तिसूरि...............................श्रीसंघस्य। मूलनायक की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख, आदिनाथ जिनालय, हीरावाड़ी, नागौर ।
इस अभिलेख में रत्नकीर्तिसूरि का प्रतिमाप्रतिष्ठापक के रूप में उल्लेख मिलने के साथ-साथ उनके गुरु राजरत्नसूरि और. प्रगुरु सोमरत्नसूरि का भी नाम मिलता है:
सोमरत्नसूरि
राजरत्नसूरि
रत्नकीर्तिसूरि (वि० सं० १५९६ में आदिनाथ की प्रतिमा के प्रतिष्ठापक)
जैसा कि ऊपर हम देख चुके हैं नागपुरीयतपागच्छीय सोमरत्नसूरि का वि० सं० १५५१ के एक लेख में प्रतिमा प्रतिष्ठापक के रूप में उल्लेख मिलता है। अत: इन्हें समसामयिकता और नामसाम्य के आधार पर रत्नकीर्ति के प्रगुरु और राजरत्नसूरि के गुरु सोमरत्नसूरि से अभिन्न माना जा सकता है।
इस गच्छ का उल्लेख करने वाला अंतिम अभिलेखीय साक्ष्य वि० सं० १६६७ का है। इस लेख का मूलपाठ भी हमें विनयसागर जी द्वारा ही प्राप्त होता है।