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श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९९
श्रमण महावीर का कैवल्योपलब्धि स्थल - कुम्भारिया (जम्भिया) (एक तथ्यपरक संभावना) लेखक - डॉ० एम० एल० बोहरा, रिटायर्ड एसोसिएट प्रोफेसर, के ४/५, शिवाजी नगर, जालौर; प्रकाशन वर्ष १९९९ई०, पृष्ठ १६, आकारडबल डिमाई; मूल्य -
प्रस्तुत पुस्तक में विद्वान् लेखक ने महावीर के कैवल्य प्राप्ति स्थान ऋजुवालिका नदी के तट और उसके निकट स्थित जम्भिय ग्राम को राजस्थान प्रान्त में स्थित कुम्भारिया और ऋजुवालिका नदी को वहीं निकट में बह रही झुंफाली नदी से समीकृत किया है। इस सम्बन्ध में उन्होंने पर्याप्त विवेचन कर अपने तर्क उपस्थित किये हैं। उनका स्पष्ट कथन है कि महावीर के जीवन से सम्बन्धित स्थलों को मात्र मगध और उसके आसपास ही खोजने की प्रवृत्ति रही है, जब कि उनसे सम्बन्धित अनेक स्थल पश्चिम भारत में अवस्थित हैं। लेखक के विचारों से हम कितनी सहमति रखते हैं यह अलग विषय है किन्तु उनके तर्कों से हमें इस सम्बन्ध में एक नवीन दृष्टि मिलती है, इसमें संदेह नहीं है। ऐसे शोध-परक तथ्यों के संकलन एवं प्रकाशन के लिये डॉ० बोहरा बधाई के पात्र हैं।
मुनिसुव्रतकाव्यम् : सम्पादक और अनुवादक - प्रो० सुदर्शन लाल जैन; प्रकाशक - सिंघई टोडरमल जैन C/o स्वास्तिक लाइम इण्डस्ट्रीज, शिवधाम, स्टेशन रोड, कटनी-मध्यप्रदेश ४८३५०१; प्रथम संस्करण १९९७ ई०, आकार - डिमाई; पृष्ठ ३४०; मूल्य २०० रूपये मात्र.
महाकवि अर्हद्दास कृत मुनिसुव्रतकाव्यम् का सर्वप्रथम प्रकाशन जैन सिद्धान्त भवन, आरा (बिहार प्रान्त) से १९२९ ई० में हुआ था। उक्त ग्रन्थ लम्बे समय से अनुपलब्ध था, साथ ही साथ उसमें अनेक त्रुटियां भी थीं अत: सिंघई टोडरमल जी के आग्रह पर जैन विद्या के लब्ध प्रतिष्ठित विद्वान् और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो० सुदर्शन लाल जैन ने अत्यन्त श्रमपूर्वक न केवल इस ग्रन्थ का नये सिरे से सम्पादन किया बल्कि उसकी संस्कृत टीका और हिन्दी अनुवाद भी प्रस्तुत किया है। ग्रन्थ के प्रारम्भ में उन्होंने ५१ पृष्ठों की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्रस्तावना भी लिखी है, जो उनकी असाधारण विद्वत्ता का परिचायक है। इसमें उन्होंने जैन संस्कृत काव्य साहित्य, प्रमुख संस्कृत काव्य और काव्यकार तथा मुनिसुव्रतकाव्य के रचनाकार का विस्तृत परिचय देते हुए उक्त काव्य के कथावस्तु, काव्यरचना का हेतु, मुनिसुव्रत महाकाव्य का महाकाव्यत्व, छंद योजना, अलंकार योजना, भाषा, चरित्रचित्रण आदि की भी सविस्तार चर्चा की है। इसके पश्चात् मूलकाव्य, उसकी संस्कृत टीका और उसके नीचे हिन्दी अनुवाद भी दिया गया है। अंत में परिशिष्ट के अन्तर्गत पद्यानुक्रमणिका भी दी गयी है जिससे पुस्तक का महत्त्व और भी बढ़ जाता है। सम्पादक महोदय द्वारा प्रस्तावना में दी गयी कुछ बातें अवश्य संशोधनीय हैं, जैसे पृष्ठ ३२ पर जयन्तविजयमहाकाव्य के रचनाकार अभयदेव सूरि