Book Title: Sramana 1999 01
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 151
________________ श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९९ को चन्द्रगच्छीय जिनेश्वर सूरि का शिष्य बताया गया है जबकि उनके गुरु का नाम विजयचन्द्र सूरि था और वे खरतरगच्छ से अलग हुई शाखा रुद्रपल्लीयगच्छ के थे। जयन्तविजयकाव्य की प्रशस्ति में इन्होंने अपनी विस्तृत गुरु-परम्परा दी है, जो इस प्रकार है: वर्धमान सूरि जिनेश्वर सूरि अभयदेव सूरि 'प्रथम' (नवाङ्गीटीकाकार) जिनवल्लभ सूरि जिनशेखर सूरि (रुद्रपल्लीयगच्छ के आदिपुरुष) पद्यचन्द्र सूरि विजयचन्द्र सूरि अभयदेव सूरि 'द्वितीय (वि० सं० १२७८ में जयन्तविजयकाव्य के रचनाकार) इस प्रकार जयन्तविजयमहाकाव्य के कर्ता अभयदेव सूरि और जिनेश्वर सूरि के शिष्य नवाङ्गीवृत्तिकार अभयदेव सूरि के मध्य ५ पीढ़ियों का अन्तर स्पष्ट है। साथ ही साथ वर्धमान सूरि, उनके शिष्य जिनेश्वर सूरि और प्रशिष्य अभयदेव सूरि (नवाङ्गीवृत्तिकार) चन्द्रगच्छ के नहीं अपितु चन्द्रकुल के थे और यही चन्द्रकुल ही आगे चलकर चन्द्रगच्छ के रूप में विख्यात् हुआ। अभयदेव सूरि के प्रशिष्य और जिनवल्लभ सूरि के शिष्य जिनशेखर सूरि से खरतरगच्छ की एक उपशाखा-रुद्रपल्लीयगच्छ अस्तित्त्व में आयी। इसी परम्परा में जयन्तविजयकाव्य के कर्ता उक्त अभयदेव सूरि 'द्वितीय हुए। इसी प्रकार पृष्ठ ३५ पर श्रेणिकचरित के रचनाकार जिनप्रभ सरि को लघुखरतरगच्छीय तथा उनके गुरु जिनसिंह सूरि को चन्द्रगच्छीय बतलाया गया है जबकि जिनसिंह सूरि चन्द्रगच्छीय नहीं अपितु खरतरगच्छीय थे और उन्हीं से खरतरगच्छ की एक नई उपशाखा (खरतरगच्छ-लघुशाखा) अस्तित्त्व में आयी थी।

Loading...

Page Navigation
1 ... 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166