Book Title: Sramana 1999 01
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 31
________________ जोगरत्नसार ( योगरत्नसार) में ख्याति प्राप्त कराने में इस योग-ध्यान पद्धति का योगदान भी सर्वाधिक है। जैन परम्परा में आचार्य धरसेन, कुन्दकुन्द, शिवार्य, वट्टकेर, देवनन्दिपूज्यपाद, शुभचन्द्र, हरिभद्र, गुणभद्र, हेमचन्द्र, रामसेन और यशोविजय जैसे शताधिक आचार्यों ने योगविषयक अनेक शास्त्रों का प्रणयन किया। जैनाचार्यों द्वारा रचित योगविषयक अनेक छोटे-बड़े ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं। इसके साथ ही आध्यात्मिक, तात्त्विक तथा आचार संबंधी, प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश भाषा में रचित अनेक ग्रंथों में भी 'प्रसंगानुसार' जैनयोग-ध्यान पद्धतियों का बड़ी ही सूक्ष्मता से विस्तृत विवेचन देखने को मिलता है । इतना ही नहीं अपितु इस बीसवीं शताब्दी में भी अनेक विद्वानों और मुनियों ने जैनयोग पर काफी ग्रन्थ तो लिखे ही, साथ ही जैन आगमों में बीज रूप में उपलब्ध तथा जैनाचार्यों द्वारा लिखित योगविषयक, विशाल ग्रन्थों के आधार पर जैनयोग का प्रायोगिक रूप में प्रभावी ढंग से काफी प्रचार- प्रसार भी हो रहा है। 'प्रेक्षाध्यान' नामक नव प्रचलित प्रभावी जैन योग-साधना पद्धति के द्वारा वर्तमान युग में योग के प्रति लोगों का आकर्षण बढ़ा है। विस्तृत जैन योग-ध्यान पद्धतियों को प्रभावी बनाकर इन्हें पुनः प्रतिष्ठित करने में प्रेक्षाध्यान नामक योग पद्धति का महत्त्वपूर्ण योगदान है। किन्तु एक तरफ जैन- योग की पुनः प्रतिष्ठा हेतु श्रमण और श्रावक संघ उत्साहपूर्वक प्रयत्नशील हैं, वहीं यह देखकर बहुत कष्ट होता है कि देश के कोनेकोने के अनेक मंदिरों तथा अन्य स्वतंत्र हस्तलिखित शास्त्र भंडारों में संरक्षित आज भी योगविषयक अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ अपने उद्धार की प्रतीक्षा में हैं। यदि समय रहते उनका उद्धार नहीं हुआ तो संभवतः वे कुछ समय बाद नष्ट हो सकते हैं और हम हमेशा के लिए इस महत्त्वपूर्ण ज्ञान राशि से वंचित हो जायेंगे। अत: इस दिशा में हमें सदा जाग्रत रहने की आवश्यकता है। इसी उद्देश्य से मेरी प्रारम्भ से ही हस्तलिखित शास्त्रों के सम्पादन/प्रकाशन के प्रति गहरी रुचि है। पार्श्वनाथ विद्यापीठ में यद्यपि अल्पसमय ही यह कार्य करने का अवसर प्राप्त हुआ, फिर भी विद्यापीठ में संरक्षित अनेक हस्तलिखित ग्रन्थों में से लगभग बारह लघुग्रन्थों का कुछ पूर्ण, कुछ- अपूर्ण सम्पादन कार्य कर लिया था। इनमें से कुछ का श्रमण के पिछले अंकों में प्रकाशन हो चुका है। उस समय के कुछ अधूरे सम्पादित ग्रन्थों को पूरा करने में अभी भी निरन्तर प्रयत्नशील रहती हूँ। इसी श्रृंखला में 'जोगरत्नसार' नामक लघुग्रन्थ प्रस्तुत है । यद्यपि इस ग्रन्थ की एक मात्र प्रति होने और वह भी काफी अस्पष्ट होने के कारण इस कार्य में मुझे काफी श्रम और समय लगा, किन्तु मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि विद्यापीठ के निदेशक डॉ० सागरमल जी जैन के निरन्तर प्रोत्साहन और सहयोग से इसे प्रकाश में लाने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ' २८

Loading...

Page Navigation
1 ... 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166