Book Title: Sramana 1999 01
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 102
________________ श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९९ संदर्भ Vidhatri Vora, Ed-Catalogue of Gujarati Ms.s: Muni Shree PunyaVijayaJis Collection. L.D. Siries No. 71, Ahmedabad 1978. A. D. मोहनलाल दलीचन्द देसाई, जैनगूर्जरकविओ, भाग ५-६, द्वितीय संशोधित संस्करण, संपा०- डॉ० जयन्त कोठारी, मुम्बई १९८८-८९ ई०. उक्त दोनों ग्रन्थों के विभिन्न स्थलों पर इस शाखा के मुनिजनों और उनकी कृतियों का भी विवरण दिया गया है। देसाई, पूर्वोक्त, भाग९, द्वितीय संशोधित संस्करण, संपा०, जयन्त कोठारी, मुम्बई १९९७ ई०, पृष्ठ १०८-११३. कल्याणविजय गणि, पट्टावलीपरागसंग्रह, जालौर १९६६ ई०, पृष्ठ २२८-२९ देसाई, पूर्वोक्त, भाग ९, पृष्ठ १०८. त्रिपुटी महाराज, जैन परम्परानो इतिहास, भाग ४, भावनगर १९८३ ई०,पृष्ठ ३६७. वही, पृष्ठ ३६८. ।५-६-७. देसाई, पूर्वाक्त, भाग ९, पृष्ठ १०८. अगरचन्द भंवरलाल नाहटा, संपा०, बीकानेरजैनलेखसंग्रह, कलकत्ता १९५५ ई०, लेखांक १७७०. त्रिपुटी महाराज, पूर्वोक्त, भाग४, पृष्ठ ३७५. देसाई, पूर्वोक्त, भाग ५, पृष्ठ २७६-७७. विजयधर्म सूरि, संपा०-ऐतिहासिकराससंग्रह, भाग३, भावनगर वि० सं० १९७८, पृ० ४९-५६, संक्षिप्तसार, पृष्ठ ३६-४३. त्रिपुटी महाराज तथा कुछ अन्य विद्वानों ने इसी शाखा में हुए वृद्धिविजय नामक एक अन्य रचनाकार का भी उल्लेख किया है और इन्हें कपूरविजय का शिष्य बताया है। सत्यविजय गणि के शिष्य वृद्धिविजय तथा उनके शिष्य एवं पट्टधर कपूरविजय के शिष्य वृद्धिविजय वस्तुत: एक ही व्यक्ति थे। सत्यविजय गणि ने वृद्धिविजय को दीक्षा देकर कपूरविजय का शिष्य घोषित किया था, इसीलिए वृद्धिविजय ने अपनी रचनाओं में कहीं स्वयं को सत्यविजय गणि का और कहीं कपूरविजय का शिष्य कहा है। इसीलिए उक्त भ्रम उत्पन्न हुआ है। त्रिपुटी महाराज, पूर्वोक्त, भाग ४, पृष्ठ ३७४-७५. शीतिकंठ मिश्र, हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास-मरु-गूर्जर, भाग-३, पार्श्वनाथ विद्यापीठ ग्रन्थमाला, ग्रन्थांक ९१, वाराणसी १९९७ ई० स०, पृष्ठ ५१८-५१९. xs v oi a 28063384333333९९333333333333333 23888833333९२3633 8888888888888888888888 8 8830

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