Book Title: Sramana 1991 07 Author(s): Ashok Kumar Singh Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi View full book textPage 3
________________ पंचपरमेष्ठि मन्त्र का कर्तृत्व और दशवकालिक साध्वी (डॉ०) सुरेखा श्री* जैन परम्परा में अनादि और शाश्वत के रूप में स्वीकृत पंच परमेष्ठि मन्त्र का कर्तृत्व एक महत्त्वपूर्ण एवं विचारणीय प्रश्न है। आधुनिक विद्वान् इसे सर्वप्रथम आवश्यकनियुक्ति में उपलब्ध मानते हैं। उनके अनुसार पहले अरिहन्त फिर सिद्ध की वन्दना का वर्तमान क्रम ही सदैव रहा हो यह भी निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है। __माहात्म्य के कारण इस मन्त्र को सर्वश्रुताभ्यंतर मानकर आवश्यक नियुक्ति का अनुसरण करते हुए भी जिनभद्र ने इसे तीर्थंकर, गणधर-कृत स्वीकार किया है । दिगम्बर आचार्य वीरसेन ने इसे पुष्पदन्त कृत माना है। अभयदेव सूरि ने भगवती (व्याख्याप्रज्ञप्ति) के आरम्भ में उपलब्ध पंचनमस्कार मन्त्र को इस ग्रन्थ का आदि मानकर इस मन्त्र की टीका भी की है। । परन्तु इस मन्त्र का विवेचन सर्वप्रथम आवश्यकनियुक्तिकार द्वारा ही किये जाने का अभिप्राय यह नहीं है कि इसके पूर्व यह मन्त्र अस्तित्व में नहीं था। इसके पूर्व भी प्रथम पद नमोअरहन्ताणं, मनोराव्यसिद्धानं के उल्लेख अवश्य प्राप्त होते हैं । ३ ।। प्रस्तुत लेख में हम मूल सूत्र दशवकालिक के सन्दर्भ में पंचपरमेष्ठि मन्त्र के रचनाकाल और कर्तृत्व का विवेचन करेंगे। दशवैकालिक की रचना महावीर के पश्चात् चतुर्थ पट्टधर और चतुर्दश पूर्वधर आर्य शय्यंभव ने की है। इस ग्रन्थ के पंचम अध्ययन के प्रथम उद्देशक में उपलब्ध १. पण्णवणा-सं० पुण्यविजय, द्वि० ख० प्रस्तावना पृ० २६, प्रका० महा वीर जैन विद्यालय बम्बई २. वही, पृ० २६ ३ वही, पृ० २८ * एल० डी० इन्स्टीट्यूट आफ इण्डोलॉजी, अहमदाबाद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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