Book Title: Shrutsagar 2019 12 Volume 06 Issue 07
Author(s): Hiren K Doshi
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba

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Page 20
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर दिसम्बर-२०१९ भीमविजय गणि पोरवाड वंशीय जसवंतसाह की भार्या जसरंगदेवी के पुत्र थे। आपने सं.१७३५में श्रीपूज्यजी की आज्ञा पाकर दक्षिण देश की ओर विहार किया। औरंगाबाद में आपने चातुर्मास किया उस समय वहाँ बादशाह की ओर से दीवान असतखान शासक था। एक बार उसका पुत्र जुलफकार बीमार हो गया। चिन्तित होकर लोगों को किसी सयाने ज्योतिष व आयुर्वेदविद पण्डित को लाने की आज्ञा दी। शाही पुरुष सुखपाल उपाश्रय आये और गुरुश्री से नवाब के पास चलने को प्रार्थना की। भीमविजय और जितविजय दोनों कार्तिक सुदि १५के दिन नवाब से मिले। नवाब असतखान ने कहा-जुलफकार को नाड़ी देखकर उपचार कीजिये! भीमविजयजी ने उसकी जन्मपत्रिका मंगाकर देखी और मधुर शब्दों में कहने लगे - आज दोपहर के पश्चात् ज्वर साफ हो जायगा और जुलफकार आपके साथ बैठ कर खाना खाएगा एवं उसकी स्त्री के ५ मास का गर्भ है। जब नवाव ने खोजे को भेजकर मालूम किया तो पंन्यासजी के कथन पर अत्यन्त विश्वास हो गया। और उनके हस्तकमल को चूमकर बड़ी देर तक वार्तालाप किया एवं नवाब से उनकी घनिष्ठता हो गई, मान महत्त्व बढा और लोगों में बड़ी प्रतिष्ठा हुई। सं. १७३६में बादशाह औरंगजेब सदलबल अजमेर पर चढकर आया । बादशाह का दीवान कुलकुली और उमराव श्रेष्ठ गाजी असतखान भी साथ था। असतखान ने भीमविजयजी गणि को याद किया और कटमोर से आदरपूर्वक शाही पुरुष भेजकर अपने पास बुलाया। पूर्व उपकारों को स्मरण कर इनके कथन से बहुतों के काम निकलवाये। जब श्रीपूज्य श्री विजयप्रभसूरि ने भीमविजय की प्रशंसा सुनी तो उन्होंने अवसर देखकर भीमविजय को पत्र लिखा कि अजमेर, मेडता, सोजत, जयतारण, जोधपुर आदि स्थानों के उपाश्रय खालसे हो गये थे वे अब तक छूटे नहीं, अतः तुम अवश्य यह पुण्य कार्य कर सुयश के भागी बनो ! मेडता के संघ ने भी यही प्रार्थना की तब भीमविजयगणि असतखान के पास गये और उनसे धर्मशालादि के विषय में वार्तालाप किया। नवाब साहब ने बादशाह को समझा बुझाकर सब उपाश्रय मुक्त करवा के फरमानपत्र जारी करवा दिये, समस्त संघ में हर्ष उत्साह छा गया। भीमविजयगणि ने राणपुर, वरकाणा, आबू से गौडी, संखेश्वर प्रमुख तीर्थों की यात्रा की और स्थिरवास करने के लिए कृष्णगढ आए, इस चातुर्मास में रायपसेणी, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, भगवती आदि आगमों का श्रवण कर यति लोगों को वस्त्र पात्रादि से संतुष्ट किये। सं.१७७१ भाद्रवा वदि १५ रविवार के दिन शिष्यों को हितशिक्षा देकर अनशन आराधनापूर्वक अर्द्धरात्रि के समय भीमविजयगणि स्वर्गवासी हुए। बड़े ही उत्सव व समारोह के साथ सबने पंन्यासजी की अन्त्येष्टि क्रिया की। १२ दिन हो जाने पर फूलों को गंगा में प्रवाहित कर छतरी स्तूप निवेश बनवाया For Private and Personal Use Only

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