Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ISSN 2454-3705
तसागर श्रूतसागर
SHRUTSAGAR (MONTHLY) December-2019, Volume : 06, Issue : 07, Annual Subscription Rs. 150/- Price Per copy Rs. 15/
EDITOR : Hiren Kishorbhai Doshi
BOOK-POST / PRINTED MATTER
फकारणेनिसुव्हाण इलिश्वसनातनमामिnिel मासामियमोक्षगसारङगवडोयकरडनडियासरवीरतिष्ठयाणवेबिय युकव्यतरा सडाङगतायकडीवलयसाग खुनशतररशतसवविसामयानुयदक्षानीवियगुरारदिशाडमिन्ननधिमनहर हिंधारिचसमझकीमवतन्त्रविवारवथसहारानडगमश्चमहवाय ऊनवतहतयनिता हिलनाशकवनलचियमाशाननरतिकृयणगह गहाशावयहनेतियणनाहचहावयणनवतनमयदरकाणियुसश्ववितागतपतहरजतथापालामाडीवालवायुनयावासवसेना रनिकारणासावाबंधमुरकोऽनवतंत्रानाथवाजिश्मियसमावदसवयसबाथालीमाझ्यासोबतहबाथात्तीसासन्नावबारसातया विचनवण्यकममातथा वातासायनिंदियपुढबीपचरथायरसुध्मदात्तयणधिरालिदिवासतियार्विदिशमगानयपकानायकत्रका मिमयचदमविहसनपऊन्नाचवयवच्चहितिइयकरति अपनानाजायमायामागासतियाशिवशतिअवगाहस्वक्षादसयराम वयतयाएनियमादिकास्तसमययुगानवनव्हारचधमाद) अघासयविमाएऽभवदसामयलगडावनिवसरमायव्हिलनमाया, वयणीयमणदुरावागायडायगिदियादवदुगसा
रसुव्हयुद्धोयनालियए हंगपसाधाऽतिथेगोवंगकमामायवशायम लडबन्नाश्यवृधनंग वकालिमदवरमधयाणाश मतहसवाशातसबाथरपकाससुदसुरवगडमनिम्माणापयधिरतिण लिस्थराइकोपरयायचामयसरवरतिक्थिमुहश्यबायान दडायदेसम्पनाहशतराथनवपणत्तथानीयागोयसायमिछयावर दसविस्तथामालकमायठहामनछाप्नुरिसाइतिवयाकरवराजगदुविचरकराववडाशयाश्यानारयतियतिविदुधवधायचंचवन्ना यसुदामायगासेवारणपटमपरिवङियदसव्हापावयासीलयपयडिणमास पिकदियाछसुक्षयपसिदिबंधयमिडीविहिंविहिया ।।। ध्यानाइदियपवयव्याविकमाथामहयपेचमोवयकायातिनिधिपण्डोगयुधवीसकिरियावददियश्बीयालीसयालयालदायमा झाशवसेडोगपहिलीकाझ्यअहिगविगाथाधावसिथातहपरिताबणीयायाणिबहाआरेशायरिगव्हियातन्हमारपवन्नियनवमी मिलादसा गववियदशमीअविरलता दिहियपुहियकिलिपाडुचियातहसामतावणियममुखियानसश्चिधसडोगसाहलियतहथाणवशीया अहारसमीविवारणीयातहाववाशालागावीसमियागावकरवापछियणचसियामसवागतहबियाहपिकापचियदेवदोसम्पधियाऽरियावा
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर में संग्रहित नवतत्त्वविचारगर्भित
महावीरजिन स्तवन की १६वीं सदी की एक हस्तप्रत का चित्र
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर
For Private and Personal Use Only
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
सम्राट् सम्प्रति संग्रहालय के नूतनभवननिर्माण हेतु भूमिपूजन प्रसंग से पूर्व
___ श्री महावीरालय में आयोजित स्नात्रपूजा का दृश्य
For Private and Personal Use Only
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
3
SHRUTSAGAR
RNI : GUJMUL/2014/66126
December-2019 ISSN 2454-3705
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर का मुखपत्र) श्रुतसागर મૃતસાગર
SHRUTSAGAR (Monthly)
वर्ष-६, अंक-७, कुल अंक-६७, दिसम्बर-२०१९ ___Year-6, Issue-7, Total Issue-67, December-2019 वार्षिक सदस्यता शुल्क - रु. १५०/- * Yearly Subscription - Rs.150/अंक शुल्क - रु. १५/- * Price per copy Rs. 15/
आशीर्वाद राष्ट्रसंत प. पू. आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. * संपादक * * सह संपादक * * संपादन सहयोगी * हिरेन किशोरभाई दोशी रामप्रकाश झा राहुल आर. त्रिवेदी
एवं
ज्ञानमंदिर परिवार १५ दिसम्बर, २०१९, वि. सं. २०७६, मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष-४
व आराधन
श्रा कन्न.
तवीर जी
श्री महाला
5
अमृतं तू
पधा
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर
(जैन व प्राच्यविद्या शोध-संस्थान एवं ग्रन्थालय)
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा, गांधीनगर-३८२००७ फोन नं. (079) 23276204, 205, 252 फैक्स : (079) 23276249, वॉट्स-एप 7575001081 Website : www.kobatirth.org Email : gyanmandir@kobatirth.org
For Private and Personal Use Only
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
5
9
श्रुतसागर
दिसम्बर-२०१९
अनुक्रम १. संपादकीय
रामप्रकाश झा २. गुरुवाणी
आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरिजी 3. Awakening
Acharya Padmasagarsuri ४. भीमविजय पंन्यासजी गुणवर्णन छंद गणि सुयशचंद्रविजयजी ५. भीमवजियगणि रास का सार भंवरलालजी नाहटा ६. नवतत्त्वविचारगर्भित महावीरजिन स्तवन
सुकुमार जगताप ७. गुजराती माटे देवनागरी लिपि के
हिन्दी माटे गुजराती लिपि हिन्दवी ८. प्राचीन पाण्डुलिपियों की संरक्षण विधि
राहुल आर. त्रिवेदी ९. पुस्तक समीक्षा
डॉ. हेमन्तकुमार १०. समाचार सार
चींटी चावल ले चली अधबिच मिली दाल । कबीर दौ दौ ना वणा इक राखि इक डाल ॥
प्रत क्र. १३१३२८ भावार्थ- संत कबीरदासजी कहते हैं कि चींटी चावल लेकर जा रही थी और बीच में दाल मिल गई। दोनों को उठाना संभव नहीं बना। तात्पर्य यह है कि अपनी क्षमता के अनुसार एक बार में एक ही कार्य करें, एक साथ दो कार्य करने से दोनों ही हाथ से निकल जाएँ।
* प्राप्तिस्थान आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर तीन बंगला, टोलकनगर, होटल हेरीटेज़ की गली में
डॉ. प्रणव नाणावटी क्लीनिक के पास, पालडी अहमदाबाद - ३८०००७, फोन नं. (०७९) २६५८२३५५
For Private and Personal Use Only
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
December-2019
SHRUTSAGAR संपादकीय
रामप्रकाश झा श्रुतसागर का यह नूतन अंक आपके करकमलों में समर्पित करते हुए हमें अपार प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है। इसमें वाचक योगनिष्ठ आचार्य बुद्धिसागरसूरीश्वरजी की अमृतमयी वाणी के अतिरिक्त दो अप्रकाशित कृतियाँ तथा अन्य उपयोगी स्तम्भों का भी अध्ययन करेंगे।
प्रस्तुत अंक में सर्वप्रथम “गुरुवाणी” शीर्षक के अन्तर्गत आत्मा के अनन्त वर्तुल के विषय में पूज्य आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरीश्वरजी म.सा. के विचार प्रस्तुत किए गए हैं। द्वितीय लेख राष्ट्रसंत आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. के प्रवचनों की पुस्तक Awakening' से संकलित किया गया है, जिसमें गुरु-शिष्य सम्बन्ध तथा शिष्य की योग्यता के ऊपर प्रकाश डाला गया है। ___अप्रकाशित कृति प्रकाशन के क्रम में सर्वप्रथम पूज्य गणिवर्य श्री सुयशचन्द्रविजयजी म. सा. के द्वारा सम्पादित “भीमविजयगणि रास” का प्रकाशन किया जा रहा है। इस कृति के कर्ता मुनि लाल ने श्री हीरविजयसूरि की परम्परा में हुए भीमविजयगणि के व्यक्तित्व और उनके जीवन की मुख्य घटनाओं का वर्णन किया है। जैन सत्यप्रकाश दि.१५-३-१९४८ के अंक में प्रकाशित श्री भंवरलालजी नाहटा के द्वारा लिखित इस कृति के सार का पुनःप्रकाशन किया जा रहा है। द्वितीय कृति के रूप में आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर के पंडित श्री सुकुमार जगताप के द्वारा सम्पादित अपभ्रंश भाषा में रचित कृति “नवतत्त्वविचारगर्भित महावीरजिन स्तवन" में उपाध्याय जयसागरजी ने नवतत्त्व की महिमा का वर्णन करते हुए श्रमण भगवान महावीर की स्तवना की है।
___ पुनःप्रकाशन श्रेणी के अन्तर्गत बुद्धिप्रकाश, ई.१९३४, पुस्तक-८२, अंक-२ में प्रकाशित “गुजराती माटे देवनागरी लिपि के हिंदी माटे गुजराती लिपि” नामक लेख का अन्तिम अंश प्रकाशित किया जा रहा है, इस लेख में गुजराती भाषा को देवनागरी लिपि में अथवा हिन्दी भाषा को गुजराती लिपि में लिखे जाने की उपयोगिता और औचित्य पर प्रकाश डाला गया है।
गतांक से जारी “पाण्डुलिपि संरक्षण विधि” शीर्षक के अन्तर्गत ज्ञानमंदिर के पं. श्री राहलभाई त्रिवेदी द्वारा पाण्डुलिपियों के सुरक्षात्मक संरक्षण के अन्तर्गत संग्रहण व्यवस्था के विषय में महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रस्तुत की गई है।
पुस्तक समीक्षा के अन्तर्गत श्री शान्तिसूरि द्वारा रचित तथा आचार्य श्री योगतिलकसरि के द्वारा सम्पादित “जीवविचार याने जैनशासन- जीवविज्ञान” पुस्तक की समीक्षा प्रस्तुत की जा रही है। पूज्य आचार्यश्री ने जीवविचार से सम्बन्धित चित्रमय प्रकाशन के द्वारा बालजीवों को जीवतत्त्व के विषय में सुन्दर जानकारी प्रस्तुत की है।
हम यह आशा करते हैं कि इस अंक में संकलित सामग्रियों के द्वारा हमारे वाचक अवश्य लाभान्वित होंगे व अपने महत्त्वपूर्ण सुझावों से हमें अवगत कराने की कृपा करेंगे।
For Private and Personal Use Only
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
श्रुतसागर
दिसम्बर-२०१९ गुरुवाणी
___ आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरिजी जैनदृष्टिए आत्मानुं अनन्त वर्तुल मनुष्य जेम जेम ज्ञान संप्राप्त करतो जाय छे, तेम तेम ते संकुचित विचार अने आचारना वर्तुलने अनुक्रमे महान् करतो जाय छ। कोइ एक नयनी अपेक्षाए विचार करीए तो मनुष्य पोताना विचारो अने आचारोजेवडो छ । पोताना विचारो अने आचारना वर्तुलमां प्रत्येक मनुष्य रहे छे, अने तेनाथी भिन्न विचाराचार वर्तुलने तिरस्कारे छे वा असत्यादि वडे संबोधे छ । मनुष्य जेम जेम आसपासनां विचार अने आचारनां वर्तुलो देखीने तेओने सापेक्ष ज्ञाननयदृष्टिए आत्मामां समावतो समावतो आगळ वधे छे, तेम तेम ते ब्रह्मज्ञान दृष्टिए मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यवज्ञान, अने छेवटे केवलज्ञानने प्राप्त करीने लोकालोकने पोताना केवलज्ञानमा समावीने सर्वव्यापक वर्तुलत्वने प्राप्त करी शके छे । सारांश के-ते केवलज्ञानमां लोकालोक सर्व ज्ञेय पदार्थोने पोतानामा समावी शके छे। मिथ्यात्व-राग-द्वेषादिनो जेम जेम क्षय थतो जाय छे, तेम तेम आत्मामां ज्ञाननो आविर्भाव थतो जाय छे, रागादिना उपशमादिभावे जेम जेम ज्ञानवर्तुल महान् थतुं जाय छे, तेम तेम ते ज्ञेयपदार्थोनी सत्यविचारणाओमा आगळ वधतो जाय छे, अने ते पूर्वना दृढ थएल घणा कदाग्रहोथी मुक्त थतो जाय छे। आवी स्थितिमां ज्ञानी आत्मा अनुभव करीने कथे छे के, पूर्वना करतां हं विचारमा आगळ वध्यो छं।आवी रीते ज्ञानरूप वर्तुलमा आगळ वधनार आत्मा अन्य अनेक सापेक्ष नयवाळा विचारोमां आगळ वधवाने अधिकारी थतो जाय छे, अने ते रागादिनी उपशमता आदिनी योग्यताए ज्ञानरूप वर्तुलमा आगळ वधतो जाय छे । आवी स्थिति प्राप्त करवाने माटे सत्समागम, सद्ग्रन्थवाचन अने अनुभवज्ञान ए त्रण असरकारक उपायो छे । आत्मा पर माया, प्रकृति याने कर्मावरण होवाथी जे जे अंशे रागद्वेषादि क्षये आत्मज्ञान विकसतुं जाय छे, ते ते अंशे ज्ञानरूप वर्तुलनी अपेक्षाए आत्मा पण एवडो गणाय छे। अनन्त जीवो छ । सर्व जीवोने ज्ञानावरणीयादि कर्मावरणो लागेलां छे । ते जे जे अंशे टळे छे ते ते अंशे ज्ञानादि वर्तुलोर्नु पृथुत्व सर्व जीवोमां षड्गुण हानिवृद्धिरूपे परिणमतुं जाय छे। सापेक्ष ज्ञान दृष्टिमान् जीव आ प्रमाणे अवबोधीने ते अनन्त ज्ञानरूप वर्तुलनो प्रकाश करवा प्रवर्ते छे।
क्रमशः
धार्मिक गद्य संग्रह भाग - १, पृष्ठ - ६८०
For Private and Personal Use Only
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
SHRUTSAGAR
December-2019
Awakening
Acharya Padmasagarsuri (from past issue...)
The Gurudev or the preceptor teaches the secrets of the shastras only to humble and obedient and disciples. He does not teach arrogant disciples. The arrogant disciples think that they are great scholars. This self-complacency checks their progress. Those arrogant disciples do not like to learn and no teacher likes to teach them.
अज्ञः सुखमाराध्यः सखतरमाराध्यते विशेषज्ञः।
ज्ञानलवदर्विदग्धम् ब्रह्मापि तं नरं न रञ्जयति॥ Ajnah sukhamaradhyah Sukhataramaradhyate visheshajnah. Jnanalavadurvidagdham Brahmapi tam naram na ranjayati .
It is easy to teach an ignorant person. It is easier to teach one who knows much. But even Brahma cannot teach those who have only a little knowledge but who profess to be great scholars.
There is proverb, “Empty vessels make the most sound”. This idea has been well expressed by the composers of Suktis (epigrams).
"376Ufault herifa: Il” Alpavidyo Mahagarvih
It means that one who has little knowledge or one who does not have full knowledge is arrogant.
Briefly, it can be said that, that man is a true Jain who has absolute devotion for the Lord; whose thinking is governed by Anekanta and whose actions are non-violent.
The true Jain is one whose simple enjoyment is his own spiritual serenity, calm in its excess, with not a grief to cloud and not a ray of passion to oppress his peace, with no ambition to reproach his ascetic temper and no rapture to disturb his supreme, sublime, serene bliss; and peace that posset understanding.
(continue...)
For Private and Personal Use Only
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
श्रुतसागर
दिसम्बर-२०१९ लाल मुनि रचित भीमविजय पंन्यासजी गुणवर्णन छंद
गणि सुयशचंद्रविजयजी प्रस्तुत कृति हिंदी भाषानी छांटवाळी मारुगुर्जर रचना छ। कृतिनो परिचय श्रीभंवरलालजी नाहटाए प्रकाशित कर्यो होई अमे ते अंगे कशुं लख्यु नथी। विशेषे एटलं जणाववानुं के प्रस्तुत कृतिनुं संपादन कोबा ज्ञानभंडारनी एकमात्र हस्तप्रत क्र. ६७०१९ना आधारे करायुं छे, जो के कृतिनुं आलेखन लहियानी असावधानीने कारणे केटलेक अंशे अशुद्ध थयु छे जे अमे अमारी समज मुजब सुधारवा प्रयत्न कर्यो छे । खास तो अहीं कृतिनो शब्दकोश पण महत्वनो छ। अमारी भाषाकीय मर्यादाने कारणे अमे घणा शब्दोना अर्थो आपी शक्या नथी, वाचको ते अंगे अमारुं ध्यान दोरे तेवी आशा छ । अन्य प्रत उपलब्ध न होवाने लीधे केटलाक पाठो पण स्पष्ट थई शक्या नथी।
कर्ता - कृतिना अंते कर्ताए पोतानो लाल मुनि' तरीके उल्लेख कर्यो छे । ते सिवाय तेमना गुरु वगेरेनी कोई माहिती प्रस्तुत कृतिमां उपलब्ध थती नथी। भीमविजयजीनी शिष्यपरंपरामां थयेल पं. गंभीरविजयजी द्वारा १९मी सदीमां लखायेल प्रत क्र. ६३१० आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिरमा उपलब्ध छ । तेमां शिष्य-परंपरा आ प्रामाणे छे- श्री भीमविजयजीना शिष्य मुक्तिविजय, तेमना शिष्य पं. प्रमोदविजय, तेमना शिष्य पं. प्रसिद्धविजय, तेमना शिष्य पं.गंभीरविजय। भीमविजयजीनो कालधर्म समय कृतिमा वि.सं. १७७१नो जोवा मळे छे। तेथी कृति रचनानो समय ते पछीनो होय ते स्वाभाविक छे।
on ऋषभदेवाय नम:॥ सरसति माता वचन सुभ, दीजै उकति उदार। भीमविजै गुण वर्णवं, आणी हरख अपार ।
॥१॥ तपगच्छनायक सुरतरु, क्रियावंत किरपाल' । हीरविजैसूरीश्वरू, भट्टारक-भूपाल
॥२॥ तसु शिष्य गुणनिधि सोभता, पाठकपदवीधार। पंडितराज प्रवीण अति, सोमविजै सिरदार 1. वाचक की सुविधा हेतु भंवरलालजी नाहटा का लेख भी हमने इस अंक में पृष्ठ संख्या-१९ पर प्रकाशित किया है- संपादक.
॥३॥
For Private and Personal Use Only
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
December-2019
॥४
॥
॥५॥
॥६॥
॥८॥
॥९॥
SHRUTSAGAR तासु शिष्य चारित्रविजय, उपाध्याय गुणजांण। वखतावर मुनिवर हूआ, सकल-कला-सुविहांण अंतेवासी जेहनो, धर्मविजय पु(पं)न्यास। धर्मध्यांन धारी करी, लह्यो स्वर्गपुर वास तास पाट जग दीपता, पुन्यवंत परसिद्ध । भीमविजय पुं(पं)न्यास प्रभु, सकल गुणां की सिद्ध भाग्यवांन गंभीर-उदधि, दया-मयाभंडार । मणिधारी मोटो मुनी(नि), गौतम को अवतार
॥७॥ इण कलियुगमाहे हु(हू)ओ, धरमधुरंधर धीर। चावो जस चक्का चिहुं, वडवखती' वड वीर स्यामवरन तन सोहतो, मेघ समोवडि(ड) रूप। कंचन जल वूठो कहर , अवनिमांहि अनूप खलखंडण मंडणरिधू', जती(ति) वडो जालिम्म । रोर-विहंडण सुखकरण, पातिस्याहां मालिम्म' भीम पराक्रम भीमसो, स्वामि काम समरथ। दांण पराक्रम करणसो", ह(हे)मु२ पराक्रम हथ मन मोटि मोटो मरद, हु(हू)ओ महा बलवांन । लक्ष्मी को लाहो लीयो, दीध सुपात्रा दांन बहु परिवारि पूजतो, सिंघाडो सुखदाय। माहोमांहि मिलाप घण, दिन दिन वधे सवाय
॥१३॥ सुगुरु भीम खाट्यो सुजस, परगट पर उपगार । कीधा काम भला भला, सफल कीयो अवतार
॥छंद-भुजंगी॥ कीयो आपणो सप्फलो अवतारं, भली भांति पाली क्रियादिकधारं । करी जात(त्र) शेज आबू मग्गसी३, वडा दांन दीधा मनांसुं हव्वसी४ ॥१५॥
॥१०॥
॥११॥
॥१२॥
॥१४॥
For Private and Personal Use Only
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
॥१६॥
॥१९॥
॥२०॥
श्रुतसागर
दिसम्बर-२०१९ फलोधी रिषभ गिरिनार केरी, घणा भावसुं जात(त्र) कीधी भलेरी। दया धारि(री)नै उषधदांन दीजै, कदेही किणिनै मुखै ना न कीजै महा मत्तवाला अनम्मी नमाया, गुमानी जिको ६ आंणि(णी) पावै लगाया। तपैगच्छ साखा विजैमे रतन्नं, मुनि भीमसो को नही सुद्ध मन्नं ॥१७॥ प्रतापीक देखी वडो साध पूरं, रजाबंध" हूओ विजैरत्नसूरं । समापी९ भला वण्य(?) आदेश साधे, लिखी लेख मूकै पटा गांम वाधै ॥१८॥ अनंता जती(ति) भीमजी पास आवै, पडूर वडा गाम आदेश पावै।। इसी वेद गच्छां विजै भीम ओपै, कहे जेहनी कार कोइ न लौपै ॥१९।। करामातधारी कलौमांहिं केहो२२, जती(ति) जोगधारी दि(दी)पै हीर जेहो२३ । भर्यो पुन्यभंडार लीधी भलाइ, कहै मानवी धन्य थारी कमाइ धरमी वडो शील-सन्नाहधारी२४, भली वांणि मीठी वदै मुक्ख भारी। अधीतं२५ घणा सत्र सिद्धांत अंगं, वडा वेद व्याकर्णने काव्य चंगं२६ ॥२१॥ महाजांण ज्योतिक्ख वैदकमांहे, क्षमावंत वाचै वखाणं उछाहै।। सुणै देसना होय राजी सकोइ२७, रजाबंध होवंत दीदार जोइ जिसो सेस कैलास चंदं उजासं, तिसो उ(ऊ)जलो भीमचो जस-वासं । जितै सूर तेजं मरीचं प्रकासं, तितै पवन वाजंत गाजै अवासं२१ तितै जस फाबै धरामै तुहारो, वदै लोक साचा विरुद्धंस वारो। करा-कमला कमला वास कीधो, मुखै सारदा आयनै वास लीधो रिदै कमलै वास छै भगवानं, सही भीम पु(पं)न्यास सिद्धं समानं । चवै वाच तै साच पालै सुचंगं, अनोपं दि(दी) गातरूपै२५ अनंगं ॥२५॥ तपै तेज भालं विशालं उतंगं, मनंगोल उकसतो उत्तमंग। सलूणा दलं पंकजं नैण सोहे, सिखा दीप नाशा शिवं मन मोहै ॥२६॥ बतीसी मुखै उ(ऊ)जली जांणि हि(ही)रा, झिगा ज्योतिपंकति(क्ति) छै दंत जीरा । रिदा बीचमै स्वच्छ श्रीवच्छ राजै, विशेषे घणी सुत्थरी छबि छाजै ॥२७॥ उभै गोल कपोल आरीस ओपै, कदही किणीसुं प्रभुजि(जी) न कोपै।। प्रलंबं भुजादंड दीपै दु-पासे, रच्यो अंगकर्ता समं चोसरासै३ ॥२८॥
॥२२॥
॥२३॥
॥२४॥
For Private and Personal Use Only
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
December-2019
॥२९॥
॥३०॥
॥३१॥
॥३२॥
॥३३॥
॥३४॥
SHRUTSAGAR दूहा – रच्यो अंग विधिना सरस, मोपै कह्यो न जाय । प्रह ऊठीने पेखतां, पातिक दूर पुलाय बहुत मिलापी५ गुण-सबल, अडवडीयां आधार । आस धरी आवै जिके, पावै सुख अपार असन वसन सुवचन अधिक, संतोषी जे सैण। करुणानिधि दरसण कीयां, नित सुख पावै नैण पोरवाडवंसै प्रगट, जसवंत साह सुजाण । जसरंगदे-उरउदधिमै, प्रगट्यो रत्न प्रधान इण कलिजुगमाहे हु(हू)ओ, नरमुखि चढतै नूर। कोई न दीतो(ठो?) केत में, एओ पुरुष पडूर संवत सतरासें वरसें, पेतीसे (१७३५) परसिद्ध । हुकम पाय श्रीपूज्य को, करि(री) दक्षिणदिसि सिद्ध उ(ओ)रंगावादै रह्यो, चोमासो चित्त लाय। श्रावक सर्व राजि(जी) हूआ, आनंद अंग न माय असतखांन तिण अवसरै, पातस्याही दीवांन । ओरंगावादै हू(हू)तो, सपरिवार सुभु(भ) थी(थां)न ज(जु)लफकार(खांन?) अंगज भणी, उपनो जोर अचैन । असतखांन द(दि)लगीर हुइ, कहै इसी पर वैन ? कोइक स्यांणो समझणो, ज्योतिष वैदक जांण। ल्यावो वेगा सहरमै, फिरि करि(री) खबर सुजांण जुलफकां(खां)न की तब ददा(धा?)५२, ले चाकर सुखपाल।
आई चालि(ली) उपासिरे, कहने लगि(गी) सवाल तुरत बुलाए हेतमे, आप निवाब हजूर । चालो वेग सतावसुं, भीमविजै गुणभूर काती सुदि पूनिमदिने, जीतविजै अरु भीम। जाय मिलै निवाबसुं, बुद्धिबल वडा हकीम
॥३५॥
॥३६॥
॥३७॥
॥३८॥
॥३९॥
॥४०॥
॥४१॥
For Private and Personal Use Only
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
12
दिसम्बर-२०१९
॥४२॥
॥४३॥
॥४४॥
॥४५॥
॥४६॥
॥४७॥
श्रुतसागर
असतखांन कहै इसो, जुलफकार(खांन?) आजार ४ । देखी नाडि(डी) विचारिरी)कै, करो कोइ उपचार तब मनमांहे सोचि(ची)कै, भीमविजय मंगाय। जनमपत्रिका देखी करी, कहै वचन सुखदाय दो पहरां५ पीछे तुरत, सवा ६ उतरसी ताप। दोन्यु भेला बेसकै, खाणा खास्यो आप मास पांच को गर्भ छै, कहै इसी परि वाच । खोजे पूछ्यो जायकै, सबही जांण्यो साच इसो वचन सुणी हर्ष को, हूओ निवाब खुस्याल। भीमविजय को हेतसुं, कर च्यु(चुं)ब्यो ततकाल कीधी चरचा जुगतकर, हूओ वडो सबाब । जे जे उण पूछ्या सवे, ते ते दीया जवाब
॥छंद-वृद्धनाराच॥ जवाब साच भाखतं निवाब आव रंजयं, जु(जू)डे ए(अ)नूप रूप भूप तिहां विचै लही जयं । अनंत मान जोग जान दीध हेत जांनिके, जती(ति) प्रवीन है अकीन लोभहीन जांन(मांनि)के वधि(धी) प्रतीत प्रीत चित्त सव्व ही जना विचै, मिटी अनीति ईति भीति संजती(ति) रह्यो हिचै६३ । गुणै गहीर सूरवीर केवीयां अंगजणो, रिधू-नरिंद आसुरिंद राव राण रंजणो मुनिं(नीं)दवृंद-मंडली मही विचालमंडणो, डिगै नही अडोल बोल राखी दुष्ट दंडणो। खरे सुभाय५ आय पाय लागी प्रीत देखए, लहंत रिद्धि सिद्धि जेह गैवकी६ अलेखए भणंत लोक वाह वाह धन्य धन्य भीमयं, महासुजस खाटणो दि(दी)पै समंद सीमयं ।
॥४८॥
॥४९॥
॥५०॥
For Private and Personal Use Only
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
SHRUTSAGAR
13
December-2019
॥५१॥
॥५२॥
॥५३॥
रहंत आस गांव गांव मेघ जेम मोर ए, करंत चाह चंदज्यु घणा भवि चकोर ए जमातिदार ८ सच(च्च)धार पूजी जात जच्छयं६९, सुणे सुभाय श्रावकं मिले गर? सच्छयं । अनेक नारि गावती समुखि चालि(ली) आवयं, वडाप्रधान वांणियान मंडि(डी) पूजि(जी) पावयं गुडै निसांण घोर जोर मेघ जेम गज(ज्ज)यं, वडाल भेरि(री) फेरि(री) फेरि(री) झांझ ढोल वज(ज्ज)यं । वयंड याज५ साज वाज साव(च?)ता विराजयं, छत्तीस पुणि देखि वाव हंत वाट छाजयं०६ घणेसु घेर ऊछलंत घाघरां गुडी घणी, वजंत सख.............च्च गावता गुणी। बिछावणा करंत लाल खारवा पगांतलै, प्रधान सीस ताणि पाणि] पांभडी८२ पघे(?) पुलै प्रभावना करंत आणि(णी) श्रीफला सुपारियं, बुहारिनी पिधौलिकै ५ उपासिरो सवारियं ६ । जरी निलक चंद्रवा“ अनेक भांति छाजए, जिहांप सिरिपूजि आप पाटियै बिराजए सदा वखांण श्रावकांन जोडि पाणि सांभलै, भवि अनंत सांति कांति ध्रम्मध्यांनसुं मिले। मही भवे जिहां जिहां हुवै अनंत मानिता, इसि परै करै खरै सुभाव लोक आनिता दूहा – आणि(णी) भाव मांनै अधिक, देस देस देसोत। दरसण आवै दिलसुधै, गुर छत्तीसे गोत सतरासै संवच्छरै, छत्तीसै (१७३६) छत्रपति। ऊपडि आयो दल सबल, अजमेरै अस(स्व?)पति
॥५४॥
॥५५॥
॥५६॥
॥५७||
॥५८॥
For Private and Personal Use Only
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
॥६०॥
॥६
॥
॥६२॥
॥६४||
श्रुतसागर
14
दिसम्बर-२०१९ पातिसाह औरंग को, कुलकुल्ली दीवांन । सगला उमरावां सिरै, गाजी असतखांन
॥५९॥ चीती आयो भीम चित्त, कठमौरे २ सुधि पाय । मेली चाकर आपणां, लीधा तुरत बुलाय आंख्यां देखी आवता, आणी मन उल्हास। आदर दे हितसुं मिल्या, राख्या अपणे पास चित्त उपगार विचारीकै, कीया घणां का काम ।
आंटा३ काढ्या आगला, दि(दी)या न लागण दांम बहुत प्रसंसा भीम की, सुणी विजैप्रभु(भ)सु(सू)र । जांणी अवसर जुगतिसुं, कागल लिख्यो जरूर
॥६३॥ उपासिरो अजमेरगढ, सहर मेडते तेह। सोझित जैतारणि उभै, जोधाणामै जेह एती ठोर उपासिरा, औरु बीजा ठाहिं५ । हूआ खालसै६ बंधमैं, अजहू छूटा नाहिं तेह छूटावज्यो तुमे, चूको मती लिगार । जगि होसी तुमचो सुजस, जिनसासन जयकार
॥६६॥ संघ मेडता को कहै, कीज्यो ए शुभ काम। तुम परसादै छूटसी, सकल धरम का धाम चुप धारी चित्तमै चतुर, असतखांन पै१०० जाय । अरज करी ध्रमसाल की, द्यौ मुझ वेगि छूटाय असतखांन कहि बात सब, समझायो सुरतांण । छोड्या सरव उपासरा, करि(री) दीधो फुरमांण
॥ छंद- मोतीदाम ॥ दिदी)यो फुरमाण करी चिहुं देस, लिखंतह ढील न की लवलेस। कढाय ज खेर-वखेर कुसंग, बत्तीसह पू(पु)णि हूऔ उछरंग
॥६५॥
॥६७||
॥६८॥
॥६९॥
॥७०॥
For Private and Personal Use Only
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
15
॥७१॥
॥७२।
॥७४॥
॥७६॥
SHRUTSAGAR
December-2019 जिगामिग ज्योति जय-जयकार, उदो०२ जिनध्रम्म तणो अणपार। चिहुं दिसि मानव होत अचंभ०३, थयो जसु बोल रु(रू)प्यो जस-थंभ ॥७१।। सुगंधिय सुकडिनै०४ घर(न)सार, चढावय देवल देवल चार । जपै प्रभुनांम वडो भजनीक, जागति जुगति करै निरभीक ०५ धरै निस दीह जिनेसर ध्यान, नरां दुखियां निति(त) दीजय(जै) दान। हिव मनमांहि विचारिय हाम०६, धरा फिरि(री) कीजय(जै) तीरथधाम ॥७३॥ कहै कवि रांणपुरो वरकांण, जुहारि अरबुद गोडिय जाण। पुले०७ पथि कीध संखेसर पास, किता इम तीरथ कीध प्रकास चलै हिव आविय पाविय चैन, अखी थिरवास हरीगढ ऐन२० । महामुनि भीमविजै चत्रमास०९, रह्या सिरदार वडा पुनि(न)रासि(स) ॥७५।। दले लिय दिल्ल उदार सदीव, जडे जन बंदि छु(छू)डावय जीव । मुनि लघु जाणिय आयु प्रमांन, भगौतियसूत्र सूण्यौ शुभध्यांन सुणे वलि रायणसेणि(णी) संत, धरी मनि उत्तराध्ययन सिद्धां(द्ध)त। दसविकालिक धारिय दिल्ल, इग्यारह अंग सुनं(णं)त अवल्ल व(वं)चाविय११ आगमग्रंथ विसेष, सकोमल चित्त सुण्या सविशेष । जती(ति) सब ग्रंथ सुणावत जास, ततखिण लच्छि समापित१२ तास ॥७८॥ अनोपम हेम चढाविय अति, भली परि कीधह ण्यानह भगति। दया करि(री) ग्रंथ किताईक दीध, किता वस्त्र पात्र किता पुनि(न) कीध ॥७९।।
कवित्त छप्पै। कीध पुन्य किरपाल पुन्यभंडार भली परि, भरे सबल भरपूर ध्यान जिनराज तणो धरि । संबल १३ लीधो साथि सुरग-मग्ग परभव संचै, पू(पु)हवि धरमव्यापार विधै करि(री) किमही न वंचै। पूंजी समान पुभि(न्नि) पाछिलो सहसगुणो करि(री) सामठो१,, करतव्य-जोग कम्माय१५ करि(री) कीयो अगाऊ एकठो दूहा- सतरासे इकहतरै(१७७१), किसनगढ चोमास । वरषा रित सब रित सिरै, मनुहर भाद्रवमास
॥७७॥
॥८०॥
॥८
॥
For Private and Personal Use Only
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
___16
॥८३॥
॥८४॥
॥८५॥
॥८६॥
श्रुतसागर
दिसम्बर-२०१९ करि अणसण आराधना, राका १६ तिथि रविवार । सिखसा खास वही भणी, सीखामणि दे सार
।।८२॥ आधी रातै ध्यांन धरि, भाव घणै भगवंत । शुकलध्यांन शुभ ध्यावतां, देवलोक पू(पु)हचंत
॥ छंद-त्रोटक॥ पुहचे परलोक सरगपुरं, घण देवह दुंद(दु)भि-नद्द१९७ घुरं१८ । धरि(री) हेत सहू प्रणमंत धुरा, सुरपति सवे हरखंत सुरा मणि माणिकजोति विमान वरं, उपजंत तिहां प्रभु भीमगुरं । कर जोडि(डी) सुर निति(त) गान करै, बजि ताल मृदंग सुरै मधुरै ततकार अहोनिसि नाचतयं १९, तब राग छत्तीसह बाजतयं । लच्छि देव तणी रिद्धि सिद्धि लही, किणही प्रति तेह न जात कही अजरं अमरं पद पाय अखी१२०, सुरलोक रहै इण भांति सुखी। परभात हुवै मिलि लोक पहू'२१, सुणि बात सरावग२२ आय सहू ततकाल सुतार बुलाय तदी, जडि(डी) काठ सिताब २३ कराय जदी। सत राखण राखि(खी) मढी१२४ विरची, पट-छांय(?) विमान समान रची ॥८८॥ पहिरीय पटंबर अंबरयं, पद्धराय विचै गुर सद्धरयं२५। कलसं धरि ऊपरि कंध करे, उठि(ठी) लेर २६ चले जल नैण भरे ॥८९।। घण ढोल निसांण अनेक धुरै, बरधू१२७ करनाल २८ कुहक्क २९ करै। विचि ताल कंसाल१३° मृदंग वजै, गहरी धुनि मेघ समान व(ग)जै गज चालत सुंडि उलालतयं३१, भूरि मूं(मू)ठिय३२ दाम उछालतयं३३ । नृतकालिय१३४ गावत गीत गुनी, नर नारी खलक्क ३५ जहांन५३६ दुनी ॥९१।। सब देखत ट(?)त-महोच्छवयं३७, धनि(न) भीमविजै सबही चवयं३८ । पूर बाहिर आय उतारि(री) प्रिथि९३९, रच चंदन-काठ चुणाइ१४० रची ॥१२॥ दिन ज्यांम१४१ चडंतह दाग१४२ दि(दी)यो, मजलै१४३ पुहचा परकांम कि(की)यो। करि(री) लोक सनान पवित्र भए, अपणै अपणै सब गेह गए
॥९३॥
॥८७||
॥९०॥
For Private and Personal Use Only
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
December-2019
॥९४||
॥९५॥
॥९८॥
SHRUTSAGAR तसु पाटि मुकति(क्ति)विजै प्रतपै, जगमांहि घणो जस लोक जपै। सिरदार सपूत सुशिष्य वडो, अवनी विचि कोइ नही इवडो गुणजांण गुणी सब तै सुगरो, गुरदेव तणो भगता अजरो। दिन द्वादस गाइ दुहाइ सलै ४४, गुरु-फूल चलाविय१४५ गंग भिलै तस ऊपरि कीध वडी छतरी, चित्रकार भली विधिसुं चितरी। करवाय चि दिसि कोट खरो, विचि राखि अतीतह१४६ कीध वरो ॥९६॥ वलि कूप अणायर ४७ वावि करै, नर नारि जिंहा किण नीर भरै। लगि बाग वडो फु(फू)लवादि(डी) फली, मचि४८ होइ रहै जिम कुंज-कली ॥९७।। नर छैल छबील कीता निरखै, हित धारी हियै सबही हरखै। घनसार घसे शुभ लोक घणा, पगला चरचै प्रभु भीम तणा किणि पूरव पाप विसेष करी, उपज्यो अडि१४९ आय कर्म अरी। भरी कांम(न?) भखाय५० निवाब भणी, किणि दोषिय५१ फोज चढाय घणी ॥१९॥ करि(री) बंधक सालह१५२ जोरि(र) कि(की)यो, लखि(ख) माल लुणे५३ चूणि९५४ लूटि(ट) लि(ली)यो। अजमेरगढे फू(फु)नि५५ मुक्तिविजै, मिलि जाइ निवाब जवाब सजै ॥१००॥ सुणि(णी) वात निवाबह रंजि बहू, दिवराय दि(दी)यो धन माल सहू। उलटी कुछ भेटि करी अवरं, पुनि मुक्तिविजै प्रगट्यो प्रवरं
कलस- कवित ॥ छापै॥ प्रवर पुन्य परताप सकल संपत्ति पाई, वाला हु(ह)औ सुबोल अधिक नव निद्धि सिद्धि आई। पुहकर चेतन पे(प्रे?)म सिष्य साखा चिरंजीवो, विजै साख मधि विमल दि(दी)पै माधव-कुलदीवो। भूपती(ति) राव मांनै भला गच्छनायक गिणती गिणै, मुनि लाल कहै गुरु भीम को पणि राख्यो मांटिपणे
॥१०२॥ ॥ इति श्रीभीमविजै पु(पं)न्यासजी गुणवर्णण(न) छंद संपूर्णम् ॥ संवत् १८४७ का मिति प्रथम आषाढ वदि ७ दिने लिख्यतं आगरामध्ये
॥१०॥
For Private and Personal Use Only
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
श्रुतसागर
18
दिसम्बर-२०१९
शब्दकोष
१. कृपाळु, २. भाग्यवाळा, ३.प्रसिद्ध, ४.?, ५. भाग्यशाळी, ६. वरस्यो, ७. कहरसूकी जमीन पर (?), ८.चंद्र, ९. दरिद्रता, १०. जाणवं, ११. कर्ण जेवो, १२. (पराक्रममां) हेमु जेवो (?), १३. मक्षी, १४. हवासी=गुणचर्चा, १५. अणनम, १६. जे कोइ, १७. पगे, १८. खुश थर्बु (?), १९. आपे, समर्पित करे, २०. परवानो (?), २१. शाख=आबरु, २२. केवो, २३. जेवो, २४. शीलरूपी बक्खतरवाळो, २५. भण्या, २६. मनोहर, २७. सहु कोई बधा, २८. शेषनाग (?), २९. किरण, ३०. त्यां (?), ३१. आवास-घर, ३२. शोभे, ३३. विरुद्ध अर्थात् जूठनो त्याग करे छे ?, ३४. कर कमलमां, ३५. शरीररूपे, ३६. नयन आंख, ३७. दांत, ३८. हृदयनी, ३९. स्वच्छ, ४०. बन्ने, ४१. अरीसो, ४२. कोईनी साथे, ४३. चारेबाजुथी (?), ४४. माराथी, ४५. मळतावळो (?), ४६. लथडताना, ४७. सयन-स्वजन, ४८. नरमुख-मनुष्यमां मुख्य (?), ४९. खूब प्रचूर(?), ५०. बेचेनी, ५१. वयण-वचन, ५२. पीडा, ५३. झडपथी उतावळे, ५४. ज्वर सहितनो-ताववाळो, ५५. प्रहर, ५६.संपूर्णपणे बधो (?), ५७. अंतःपुरनो रक्षक, ५८. सत्यासत्यनी तपास, मोभो(?), ५९. तेमणे, ६०. आनंद पाम्यो, ६१. अकिंचन, ६२. धान्यादिकने हानि पहोंचाडनार उंदरादिकनो उपद्रव, ६३. आनंद?, ६४. ?, ६५. सोहाय, शोभे, स्वभाव?, ६६.?, ६७. खाटq-फायदो मेळववो, ६८. जमादार?, ६९. यथाशक्ति?, ७०, गरिष्ठ, ७१. स्वेच्छाथी?, ७२. हाथीनो साज, ७३. ?, ७४. एक प्रकार- वाद्य, ७५. ?, ७६. पाटियां के वांसनु आच्छादन, ७७. ?, ७८. धजा?, ७९. पाथरपुं, ८०. खास एक जातनु कापड, ८१. आकाशनी नीचे, ८२. वस्त्र विशेषतुं नाम, ८३. सोपारी, ८४. साफ करी, ८५.?, ८६. सजाववो, ८७. वस्त्र विशेष, ८८. चंदरवा, ८९. श्रीपूज्य, ९०. हाथ, ९१. गाम नाम, ९२.?, ९३. गुंच, ९४. जग्याए, ९५. स्थाने, ९६. ताबे, ९७. बंधनथी, ९८. आजे पण, ९९. चीवट, १००. पासे, १०१. खेर-विखेर- वेरण छेरण ?, १०२. उग्यो, १०३. आर्चयचकित, १०४. सुखड, १०५. बीक वगरनो, १०६. हिम्मत, १०७. जाय, १०८. खरेखर, १०९. चातुर्मास, ११०. भगवतीसूत्र, १११. वंचावी, ११२. प्राप्ति(?), ११३. भातु, ११४. एक साथे, ११५. कर्म- कार्य, ११६. पूर्णिमा, ११७. दुंदुभीनो नाद, ११८. वागवू, ११९. नाचता, १२०. अखंड(?), १२१. मोटी संख्यामां?, १२२. श्रावक, १२३. एक वनस्पतिनुं लाकडु, पालखी, सिबिका(?), १२४. चितारूपी घर, १२५. सलामती पूर्वक, १२६. लहेर(?), १२७. रणशिगुं, १२८. तोप, १२९. “कुहु कुहु” अवाज(?), १३०. कांसीजोडा प्रकारचं एक वाद्य, १३१. उलाळतो, १३२. मुट्ठी, १३३. उछाळतो, १३४. नृत्य समयनु?, १३५. खलके-रणके, १३६. दुनिया, १३७. महोत्सव, १३८. बोले छे, १३९. पालखी?, १४०. चणावी, बनावी ?, १४१. प्रहर(?), १४२. अग्निदाह, १४३, रस्ते, १४४. ?, १४५. चलावी, १४६.?, १४७. अणी(?), १४८. मत्त थाय, १४९. नडे, १५०. बोले, १५१. दोष माटे, १५२. पीडा?, १५३. चोरे?, १५४. वीणी-वीणी?, १५५. फरी.
For Private and Personal Use Only
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
SHRUTSAGAR
December-2019
19 भीमविजयगणिरास कासार
श्रीयुत भंवरलालजी नाहटा जैन ऐतिहासिक राससाहित्य अत्यन्त विशाल है और आए दिन नित्य नये-नये ऐतिहासिक रास उपलब्ध होते हैं। कुछ वर्ष पूर्व उनके प्रकाशन का प्रयत्न हुआ, पर उसका यथोचित आदर एवं प्रचार न होने से वह कार्य आगे नहीं बढ़ सका । वास्तव में जैन समाज की इतिहास की ओर बहुत ही कम अभिरुचि प्रतीत होती है। __ इतिहास की उपयोगिता निर्विवाद है। हमारा जीवन, प्राचीन संस्कृति और इतिहास से अनुमानित होता रहता है। प्राचीन के आधार से नवीनता की सृष्टि होती रहती है। प्राचीन गौरव मानव को उन्नत बनाने में बहुत कुछ प्रेरणा देता है। जैन समाज की वर्तमान स्थिति बहुत ही सोचनीय है, पर वह अपने उज्ज्वल अतीत का आज भी अभिमान कर सकता है।
जैन मुनियों ने समय-समय पर राज्याधिकारियों से मिलकर उन पर प्रभाव डालकर जैन समाज एवं संघ की विपत्तियों को दूर किया है, उन्हें अनेक प्रकार की सविधाएँ शासकों की ओर से मिलती रही हैं। १८वीं शदी के तपागच्छीय यति भीमविजय भी एक प्रभावशाली व्यक्ति थे, जिन्होंने औरंगाबाद के नवाब असतखान को ज्योतिष-वैद्यकादि के चमत्कारों से प्रभावित किया था, जिसके फलस्वरूप अनेक स्थानों के जैन उपाश्रयादि जनसंपत्ति को पुनः जैनसंघ को अधिकृत करवाया था। इनके शिष्य मुक्तिविजय ने भी नवाब से इसी प्रकार के काम निकाले थे। इस रास की ३ प्रतियाँ कलकत्ता के स्वर्गीय बाबू पूरणचन्द्रजी नाहर की गुलाबकुमारी लायब्रेरी में संग्रहित है, जिसके आधार से रास का संक्षिप्त सार दिया जाता है । इसकी रचना लालचंद्रगणि ने १०२ पद्यों में की है। रासका सार
तपागच्छनायक सुप्रसिद्ध जैनाचार्य हीरविजयसूरिजी की परम्परा में भीमविजयगणि बड़े प्रतापी हए। उ० सोमविजय, उ० चारित्रविजय, पं० धर्मविजय के शिष्य पंन्यास भीमविजय थे। आप क्रियाशील, विद्वान और प्रभावशाली पुरुष थे। आपने शतुंजय, गिरनार, आबू, ऋषभदेव, मगसी, फलौधी आदि प्रमुख तीर्थों की यात्रा की थी। आप ज्योतिष, वैद्यकादि में निष्णात होने के साथ-साथ आपका शरीर का गठन बडा मजबूत और सुंदर था, आपके हृदय पर श्रीवत्स चिह्न अंकित था। श्रीपूज्य श्री विजयरत्नसूरि आपका बडा आदर करते और यतियों को चातुर्मास के आदेश का भार भी उन्होंने आपको सौंप दिया।
For Private and Personal Use Only
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
श्रुतसागर
दिसम्बर-२०१९ भीमविजय गणि पोरवाड वंशीय जसवंतसाह की भार्या जसरंगदेवी के पुत्र थे। आपने सं.१७३५में श्रीपूज्यजी की आज्ञा पाकर दक्षिण देश की ओर विहार किया। औरंगाबाद में आपने चातुर्मास किया उस समय वहाँ बादशाह की ओर से दीवान असतखान शासक था। एक बार उसका पुत्र जुलफकार बीमार हो गया। चिन्तित होकर लोगों को किसी सयाने ज्योतिष व आयुर्वेदविद पण्डित को लाने की आज्ञा दी। शाही पुरुष सुखपाल उपाश्रय आये और गुरुश्री से नवाब के पास चलने को प्रार्थना की। भीमविजय और जितविजय दोनों कार्तिक सुदि १५के दिन नवाब से मिले। नवाब असतखान ने कहा-जुलफकार को नाड़ी देखकर उपचार कीजिये! भीमविजयजी ने उसकी जन्मपत्रिका मंगाकर देखी और मधुर शब्दों में कहने लगे - आज दोपहर के पश्चात् ज्वर साफ हो जायगा और जुलफकार आपके साथ बैठ कर खाना खाएगा एवं उसकी स्त्री के ५ मास का गर्भ है। जब नवाव ने खोजे को भेजकर मालूम किया तो पंन्यासजी के कथन पर अत्यन्त विश्वास हो गया। और उनके हस्तकमल को चूमकर बड़ी देर तक वार्तालाप किया एवं नवाब से उनकी घनिष्ठता हो गई, मान महत्त्व बढा और लोगों में बड़ी प्रतिष्ठा हुई।
सं. १७३६में बादशाह औरंगजेब सदलबल अजमेर पर चढकर आया । बादशाह का दीवान कुलकुली और उमराव श्रेष्ठ गाजी असतखान भी साथ था। असतखान ने भीमविजयजी गणि को याद किया और कटमोर से आदरपूर्वक शाही पुरुष भेजकर अपने पास बुलाया। पूर्व उपकारों को स्मरण कर इनके कथन से बहुतों के काम निकलवाये। जब श्रीपूज्य श्री विजयप्रभसूरि ने भीमविजय की प्रशंसा सुनी तो उन्होंने अवसर देखकर भीमविजय को पत्र लिखा कि अजमेर, मेडता, सोजत, जयतारण, जोधपुर आदि स्थानों के उपाश्रय खालसे हो गये थे वे अब तक छूटे नहीं, अतः तुम अवश्य यह पुण्य कार्य कर सुयश के भागी बनो ! मेडता के संघ ने भी यही प्रार्थना की तब भीमविजयगणि असतखान के पास गये और उनसे धर्मशालादि के विषय में वार्तालाप किया। नवाब साहब ने बादशाह को समझा बुझाकर सब उपाश्रय मुक्त करवा के फरमानपत्र जारी करवा दिये, समस्त संघ में हर्ष उत्साह छा गया।
भीमविजयगणि ने राणपुर, वरकाणा, आबू से गौडी, संखेश्वर प्रमुख तीर्थों की यात्रा की और स्थिरवास करने के लिए कृष्णगढ आए, इस चातुर्मास में रायपसेणी, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, भगवती आदि आगमों का श्रवण कर यति लोगों को वस्त्र पात्रादि से संतुष्ट किये। सं.१७७१ भाद्रवा वदि १५ रविवार के दिन शिष्यों को हितशिक्षा देकर अनशन आराधनापूर्वक अर्द्धरात्रि के समय भीमविजयगणि स्वर्गवासी हुए। बड़े ही उत्सव व समारोह के साथ सबने पंन्यासजी की अन्त्येष्टि क्रिया की। १२ दिन हो जाने पर फूलों को गंगा में प्रवाहित कर छतरी स्तूप निवेश बनवाया
For Private and Personal Use Only
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
21
SHRUTSAGAR
December-2019 गया एवं चारों ओर कोट बनाकर बगीचा लगाया गया। कूप-वापी निर्मित कर जनता के जल भरने की सुविधा प्रस्तुत कर दी। नवाब के किसी चुगलखोर ने कान भर दिये। उसने चढाई करके सब माल लूट लिया तब इनके पट्टधर मुक्तिविजयगणि ने नवाब से मिलकर सन्मानपूर्वक सबको मुक्त करवा दिये।
पुस्तक समीक्षा (अनुसंधान पृष्ठ-३३ से) जीव विचार के विषय में श्री यशोविजय संस्कृत पाठशाला महेसाणा, पदार्थ प्रकाश जैसे अनेक प्रकाशन लम्बे समय से उपलब्ध है तथा लम्बे समय से उनका ही प्रधानता से अभ्यास किया जा रहा है तो प्रश्न है फिर इस प्रकाशन की आवश्यकता क्यों हुई? तो इसका उत्तर यह है कि पूर्व के सारे प्रकाशन अपनी-अपनी खासीयत के हिसाब से आज भी उतने ही उपयोगी हैं। इस प्रकाशन की मुख्य खासीयत है इसका चित्र प्रधान होना। सौ शब्द जो काम नहीं कर सकते हैं, वह एक चित्र कर देता है। इस सच्चाई को ध्यान में रखते हुए जीवविचार का सर्वांग संपूर्ण बोध हो इस हेतु से यह चित्र प्रधान संकलन तैयार किया गया है।
इस प्रकाशन की विशेषता यह है कि इसके प्रत्येक शब्द, प्रत्येक गाथा के साथ ही प्रत्येक गाथा में विद्यमान तत्त्वों का सरल विवेचन किया गया है, ग्रंथ में स्थित सूचनाएँ लम्बे समय तक मस्तिष्क में याद रहे इस हेतु से उन सूचनाओं से संबंधित चित्र तैयार किए गए हैं तथा चित्र के माध्यम से जीवतत्त्व की विशेषता को समझाया गया है। जिससे यह प्रकाशन बाल जीवों के साथ-साथ जीवतत्त्व को समझने की जिज्ञासा रखने वालों के लिए बहुत उपयोगी हो गया है। इसी विशेषता के कारण यह प्रकाशन जीवविचार संबंधी अन्य प्रकाशनों से विशेष उपयोगी प्रकाशन के रूप में स्थापित हो गया है।
पुस्तक की छपाई बहुत सुंदर ढंग से की गई है। आवरण भी कृति के अनुरूप बहुत ही आकर्षक बनाया गया है। श्रीसंघ, विद्वद्वर्ग व जिज्ञास इसी प्रकार के और भी उत्तम प्रकाशनों की प्रतीक्षा में हैं। भविष्य में भी जिनशासन की उन्नति एवं उपयोगी ग्रन्थों के प्रकाशन में इनका अनुपम योगदान प्राप्त होता रहेगा, ऐसी प्रार्थना करते हैं।
इन दिनों पूज्यश्री एवं उनका शिष्य परिवार साहित्य जगत को निरन्तर अनेक उच्च दर्जे के सुसंशोधित प्रकाशनों को जिनशासन के चरणों में समर्पित कर अध्येताओं एवं आराधकों के लिए ज्ञानाराधना का मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं।।
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबा परिवार का यह सौभाग्य है कि पूज्य आचार्य श्री योगतिलकसूरिजी महाराज साहब एवं निश्रित अभ्यासरत परिवार ज्ञानमंदिर में संकलित ग्रंथों का सबसे अधिक उपयोग करने वालों में से एक हैं।
पूज्यश्री के इस कार्य की सादर अनुमोदना के साथ कोटिशः वंदन ।
For Private and Personal Use Only
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
श्रुतसागर
22
दिसम्बर-२०१९ उपाध्याय जयसागरजी कृत नवतत्त्वविचारगर्भित महावीरजिन स्तवन
सुकुमार जगताप जीवाइ नव पयत्थे, जो जाणइ तस्स होइ सम्मत्तं । भावेण सद्दहतो, अयाणमाणो वि सम्मत्तं ॥५१॥ (नवतत्त्व प्रकरण)
मुक्ति के मार्ग में सम्यक्त्व के बिना प्रवेश की प्राप्ति नहीं होती है। इसलिए सम्यक्त्व को मुक्ति का द्वार भी कहा जाता हैं। वह उसे प्राप्त होता है जो जिनेश्वर दर्शित नवतत्त्वों को जानता है और भाव से मानता है। वर्तमान में इस विषय के अध्ययन हेतु नवतत्त्व प्रकरण प्रसिद्ध है। इसी विषय को दर्शाने वाली प्रायः अप्रगट अपभ्रंश भाषा निबद्ध कृति का यहाँ प्रकाशन किया जा रहा है। ९ तत्त्वों की संक्षिप्त व्याख्या
१. जीवतत्त्व- जो प्राण को धारण करता है वह है जीवतत्त्व । इसमें भी द्रव्यप्राण और भावप्राण ऐसे दो प्रकार के प्राण होते हैं। सिद्ध जीव केवल भाव प्राण को ही धारण करते हैं, अन्यत्र संसारी जीव दोनों प्राणों को धारण करते हैं। २. अजीवतत्त्वजीवतत्त्व से विपरीत जो जड़ स्वभाव वाला है, वह है अजीवतत्त्व । ३. पुण्यतत्त्वशुभ एवं सत् कर्मों के परिणामस्वरूप जिसके उदय से सुख का अनुभव होता है, वह है पुण्यतत्त्व। ४. पापतत्त्व- अशुभ वा असत् कर्मों के परिणामस्वरूप जिसके उदय से दुःख का अनुभव होता है, वह है पापतत्त्व। ५. आश्रवतत्त्व- मिथ्यात्व आदि हेतु से कर्मों का आत्मा में जो आगमन होता है, वह है आश्रवतत्त्व । ६. संवरतत्त्व- आने वाले कर्मों को रोकना ही संवरतत्त्व है। ७. निर्जरातत्त्व- आत्मप्रदेश में आये हए कर्मों का शनैः-शनैः क्षय करना यह निर्जरातत्त्व है। ८. बंधतत्त्व- नए कर्म परमाणुओं का आत्मप्रदेश के साथ क्षीर-नीर के भाँति मिल जाना ही बंधतत्त्व है। ९. मोक्षतत्त्वसर्वथा कर्मों का क्षय होना ही मोक्षतत्त्व है। ___ नवतत्त्व की महिमा के साथ इस कृति में जैन धर्म के २४वें तीर्थंकर श्रमण भगवान महावीर का स्तवन किया गया है, जिसमें वह नवतत्त्वों का संक्षेप में बोध कराकर इस भवसागर से जीव की मुक्ति हेतु जिन परमात्मा से याचना करता है।
For Private and Personal Use Only
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
23
SHRUTSAGAR
December-2019 प्रतिलेखक द्वारा क्षति से दुबारा दिये गए गाथांक १२ को हमने सुधारकर १३ किया है। संभवित शुद्धपाठ को हमने दुबारा कोष्टक में रखा है। कई स्थानों पर विराम चिह्नों की प्रविष्टि के सिवाय ही बड़े-बड़े छंद लिखे गए हैं, जिन्हें छन्दानुरूप करना प्रायःकठिन था। कहीं-कहीं अस्पष्ट लेखन के साथ ही भाषा की मर्यादा आदि कारणों से भी कई स्थानों पर क्षति रह गई हो तो विद्वज्जन सुधारकर पढ़ें यही प्रार्थना। कृति परिचय
कृति की भाषा अपभ्रंश है। भास व घात नामक छंदों में रचित इस कृति का गाथा परिमाण २५ है। सर्वोत्कृष्ट पुण्य के धनी, जग उद्योतकर, वांछित वस्तु की पूर्ति में कल्पवृक्ष के समान व जिनका शासन दुस्तर भवसागर को पार कराने में समर्थ है, ऐसे महावीर भगवान को नमस्कार करते हुए कवि ने कृति का प्रारंभ किया है। जिनोपदिष्ट नवतत्त्ववाणी को कवि ने सुधारस की उपमा दी है, जो मिथ्यात्वरूपी विष का पान करने वाले को अच्छी नहीं लगती है। नवतत्त्वज्ञान को कवि ने नवनिधान के साथ जोडा है और केवलज्ञानरूपी लक्ष्मी व तीनों लोक में आनंद देने वाला कहा है। कवि ने परमात्मा के प्रति विनती करते हुए कहा है कि- हे त्रिभुवन नाथ ! आपके द्वारा उपदिष्ट नवतत्त्व को मैं संक्षेप में कहना चाहता हूँ। ऐसा कहकर विवेच्य विषय को आगे बढ़ाया है।
जीवाजीवापुन्नं पावासवसंवरनिज्जरणा भावा। बंधो मुक्खो इइ नवतत्ता नायव्वा निम्मिय संमत्ता ॥६॥
इस कृति की गाथा क्र.६ में सम्यक्त्व को देने वाले जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध एवं मोक्ष इन नवतत्वों का नाम निर्देश किया गया है। उसके बाद प्रत्येक तत्त्व के स्थूल व सूक्ष्म भेद दर्शाये गए हैं। अंत में फलश्रुति में कवि ने दर्शाया है कि
एयह तत्तह सद्दणिहु इणि मिच्छन्न(त्त) विणास। लहइ जीव समकितरयण अणुवम महि निवास ॥२१॥
यह नवतत्त्व स्वीकारने योग्य है, इससे मिथ्यात्व का नाश होता है, समकितरत्न की प्राप्ति होती है, शाश्वत तेज उल्लसित होता है, ज्ञानरूपी मणि के दीपक जिसके प्रकाश में जीव-अजीवादि तत्त्वों की जानकारी प्राप्त होती है, दर्शन-ज्ञान के संयोग से चारित्र के परिणाम होते हैं, जिसके द्वारा मोह-लोभ-मद-कामादि शत्रुओं को जीता
For Private and Personal Use Only
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
24
श्रुतसागर
दिसम्बर-२०१९ जा सकता है। इस ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप रत्नत्रयी के द्वारा समस्त दुःखों का अंत कर अखंड सुख की प्राप्ति होती है। कर्ता परिचय
कृति की अंतिम गाथा में कर्ता के द्वारा स्वयं का निम्नलिखित रूप से परिचय दिया गया है, वह इस प्रकार है :
सिरि वीर जिणवर ति ‘जयसायर' सोमसम सुहकारणो। मह दिसउ निम्मलवयणिरस जगतारणो ॥२५॥
'आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबा' के संशोधकों एवं पण्डितों के द्वारा प्रस्तुत कर्ता एवं विद्वानों की सूचि में कुल ५८ जयसागरजी का नामोल्लेख प्राप्त होता है, किन्तु इस कृति की प्रशस्ति में कर्ता के द्वारा स्वयं के लिए विशेष रूप से कुछ भी स्पष्टीकरण प्राप्त नहीं होता है। कृति की रचना शैली एवं भाषा वैशिष्ट्य के कारण जयसागरजी अनुमानतः वि.सं. १५वीं शताब्दी के हो सकते हैं। अन्यत्र कर्ता से संबंधित कुछ भी विशेष माहिती उपलब्ध न होने के कारण इसकी सिद्धता वर्तमान समय में विद्वज्जनों के लिए संशोधन का विषय है। हस्तप्रत परिचय
प्रस्तुत कृति का संपादन आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबा स्थित ज्ञानभंडार की एकमात्र हस्तप्रत क्र.९४६०७ के आधार पर किया गया है। इस प्रत में कुल पत्र संख्या ३६ हैं, किंतु उपलब्ध पत्र संख्या ३२ हैं (पत्रांक-२२ और ३० से ३२ कुल-४ पत्र अनुपलब्ध हैं), साथ ही २५ पेटा-कृतियों से युक्त इस हस्तप्रत में प्रस्तुत कृति २३वे अनुक्रम पर स्थित पत्र क्र.३४आ-३५अ पर प्राप्त होती है।
पेटांक-प्रारूप के अंतर्गत इस कृति का प्रत में नामकरण 'नवतत्त्वविचारमय स्तोत्र' के साथ उल्लिखित है। लिपिविन्यास, लेखनकला तथा कागज आदि के आधार पर अनुमान लगाया जा सकता है कि यह हस्तप्रत वि.सं. १६वीं शताब्दी में लिखी गई होनी चाहिए, प्रतिलेखक एवं लेखनस्थल अनुपलब्ध है। पंक्तियों की संख्या १४-१६ तक और प्रतिपंक्ति अक्षरों की संख्या ५२-५८ तक प्राप्त होती हैं । जलार्द्रता के कारण हस्तप्रत में कई पत्रों के अक्षर आमने-सामने छप गए हैं, कई स्थानों पर स्याही फैली हुई है, जिससे कहीं-कहीं अक्षर पढ़ने में कठिनाईं होती है। कहीं-कहीं फफूंदग्रस्त पत्र भी प्राप्त होते हैं और मूषकभक्षित होने के कारण कुछ पत्रों की
For Private and Personal Use Only
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
SHRUTSAGAR
25
December-2019 किनारी खंडित है। कहीं-कहीं जीवातकृत छिद्र युक्त पत्र भी प्राप्त होते हैं साथ ही प्रत के अंतर्गत कृतियों का मूल पाठ भी अल्प मात्रा में खंडित है। इस हस्तप्रत की विशेषता यह है कि ताडपत्र के परंपरानुसार बीच में वापी, वापी के मध्य व दोनों पार्श्वरेखाओं के बाहर चंद्रक दिये गए हैं। इस प्रत में पत्रांक दो जगह दिये गए हैं। कोने में दिये गए पत्रांक १ से प्रारंभ होते हैं और पार्श्वरेखा बाहर चंद्रक के बीच बड़े अक्षरों में ९८ से पत्रांक नजर आते हैं। संभव है कि इस प्रत का अन्य भाग कहीं और हो। इस हस्तप्रत का सन्दर्भ ‘आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबा तीर्थ' से प्रकाशित हस्तलिखित जैन साहित्य कैलास श्रुतसागर ग्रंथसूची' के खंड -१.१.२२, पृ.क्र.४६९ पर प्राप्त होता है।
नवतत्त्वविचारगर्भित महावीरजिन स्तवन ॥सामिय सोहगसार जग उज्जोयकर । जउ जिणेसर वीर तिहुयण वंछिय य कप्पतर
॥१॥ जे जगनायक जीव भवसागर दूतसतररई (दुस्तर तरइ)। ते सव वि सासण तुम्ह पदहणनी परि अणुसरइ तां जिण जण मिच्छत्त विस लहरिहिं थारिउ भमइ जी नवतत्त विचारु वयण सुहारस न हुगमइ अहवा पहु नवतत्त नवनिहाण जि लहइं। केवल लच्छि पसाइ ते नर तिहुयणि गहगहइं
॥३(४)॥ तउ हउं तिहुयणनाह तुम्ह वयण नवतत्तमय । वक्खाणिसु संखेवि वयणेतर तह ..णतय(सासणतय?)
॥भास ॥ जीवाजीवापुन्नं पावासवसंवरनिज्जरणा भावा। बंधो मुक्खो इइ नवतत्ता नायव्वा निम्मिय संमत्ता
॥६॥ चउदस चउदस बायालीसा छ्या(ब्या)सीई तह बायालीसा। सत्तावन्नं बारसभेया चउ नव पए कमसो नेया
॥७॥
॥२॥
॥३॥
For Private and Personal Use Only
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
26
दिसम्बर-२०१९
॥८॥
॥९॥
श्रुतसागर
॥ भास॥ एगिदिय पुढवी पमुह बायर सुहुम दु भेय पण। विगलिंदिय संनियर पंचिंदिय सग ते य पज्जत्ता॥ पज्जत्त कमि इम चउदसविह सत्त पज्जत्ता। चउपंचच्छहिं तिह अकरणि अपज्जत्ता धम्माधम्मागास तिय गुणि गइ तिइ अवगाह। खंधादेसपएस तय भेया एगिग माहि॥ काल समय पुग्गल चउह खंधादेसपएस । परिमाणू इम चउदसह सयल अजीवनिवेस पहिलउं सायावेयणी य मणदुग उच्चागोय। जाइ पणिंदिय देव दुग सूसर सुहगु जोय ॥ उरालिय पमुहंग पणआ इति अंगोवंग। ऊसासा य व अगुरुलहु बन्ना इय चउभंग वज्जरिसहवरसंघयण आइमतह संठाण। तस बायर पज्जत्त सुह सुखगइ जस निम्माण ॥ पत्तेयं थिर तित्थिरयर आइज्जं परघाय। आउय सुर नर तिरिय सुहइ य बायालह जाय दंसण नाणह अंतराय नव पण भ(भे?)या नीयागोय। असाय मिच्छ थावरदस निनेया सा(सो?)ल कसाय ॥ हुहासछक्क पुरिसा इति वेया। कुखगइ इग दु ति चउर करण चउ जाई एया नारय तिय तिरि दु उवघाय चउवन्ना असुहा। संघः(घ)यणा संठाण पढम परिवज्जिय दसहा॥ पावह ब्यासी भेय एय जिणसासणि कहिया। असुह पएसिहिं बंध एसि जीवेहिं विहिया
॥१०॥
॥११॥
॥१२॥
॥१३॥
For Private and Personal Use Only
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
SHRUTSAGAR
27
December-2019
॥ घात ॥ इ(इं)दिय पंच य च्यारि कसाया, अव्वय पंच मणो-वय-काया, तिन्नि वि एए जोग। पंचवीस किरिया, तह कहियइ, बीयालीस य भेया लहीयइं, इम आसव संजोग। पहिली काइय अहिगरिणीया, पाउसिया तह परितावणीया, पाणिबहाः आरंभा। परिगहिया तह मायावत्तिय, नवमी मिच्छादसणवतिय, दसमी अविरइ लंभ ॥१४॥ दिट्ठिय पुट्ठिय किरि पाडुच्चिया, तह सामंतोवणिय समुव्वियी, नेसत्थि य संजोग। साहत्थिय तह आणवणीया, अट्ठारसमी वेयारणीया, तह वेवाणा भोग ॥ वीसमिया णवकंखा पव्विय, पाउसिया समुदाण तहव्विय, हे पिज्जप्पच्चिय हेव। दोसप्पच्चिय इरियावहिया, किरिया एया सव्वा कहिया, पणवीस य संखेव ॥१५॥
॥भास ॥ पंचइए समिइ तिय गुत्ति दसहिं भेएहिं साहूण धम्मभावणए। बारस हुँति पंचपयर चारित्त सम्म बिहुं करीए॥ आग्गल वीस सयल परीसह जाणियए। संवरए सत्तं पचास भेयहिं एम वखाणियए अणसणए ऊणयरिय, वित्तिसंखेवण रसहचाय। पंचमए कायकिलेस, संलीणय तव बज्झजाय ॥ तह सुहएकुण(?) पच्छित्त, वेयावच्चह काउयसग्ग। विणयहए करण सज्झाय, इय अन्भिंतर तवह मग्ग
॥१७॥ गिण्हईए दलिय जे जीव कम्मजुग्ग णिसुव्विय पएस। जं चियए हुइ अवठाण ते सिसो कहियइ ठिइ निवेस ॥ तत्थ जुए महुर कडुयाइ असुह वा सुह वा सुहरस सोणुभाग। एय हए मिलणि होइ चउ पत्थउ गई संठिई विभाग
॥ भास॥ संत पयट्ठावण पढम बीयउ दव्वपमाण। तइय खित्तु फुसणा तुरिय पंचमकाल सुजाण
॥१९॥ छट्ठउ अंतर सत्तम य भागट्ठम तह भाव। नवमउ अप्पबहुत्त इम मुक्ख न(त)त्त सब्भाव
॥१६॥
॥१८॥
॥२०॥
For Private and Personal Use Only
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
दिसम्बर-२०१९
॥२१॥
॥२२॥
॥२३॥
श्रुतसागर
28 एयह तत्तह सद्दणिहु इणि मिच्छन्न(त्त) विणास। लहइ जीव समकितरयण अणुवम महि निवास सासय तेय समुल्लसइ तायणु नाणमणिदीव। जेह लगी जगि जाणियइ भावा जीवअजीवा दंसणनाणह जोगि तह चारिन्न(त)ह परिणाम। जेण जिणिज्जइ अरि सयल मोहलोहमयकामा सम्मं इय रयणत्तयह भत्तिहिं लहियइ सुक्ख। जत्थ जीवगय पावमल भुंजइ सासयसुक्खा इय नाणदंसणचरणगणगण रयणधारणरोहणो। सुरअसुरकिंनरनरमुणीसर मणवयण तणु मोहसणो॥ सिरि वीर जिणवर ति जयसायर सोमसम सुहकारणो। मह दिसउ निम्मंलवयणि रस जगतारणो
इति श्रीनवतत्त्वविचारमयं स्तोत्रं समाप्तम् ॥
॥२४॥
॥२५॥
(अनुसंधान पृष्ठ सं. ३० से)
गुजराती लिपिनी सर्वांग सुंदरता ए लेखकोनी नजर आगळ छे, एटले तो आ परिपाक हालना समयमां अति व्हेलो फळे ए पण कुदरती। आ विषयमां म्हारी छेल्ली अने सौथी मोटी अभिलाषा तो एवी के आ कुदरती समुत्क्रांति सिद्ध थाव, अने “सुं सां पेसा चार" नी लिपि “इधर उधरका सोळह आना” नी लिपि पण बनी रहे !*
(बुद्धिप्रकाश, ई.१९३४, पुस्तक-८२, अंक-२ में से साभार)
* गुजराती लिपिमांना बे त्रण अक्षरने ठेकाणे देवनागरीना ते अक्षर माथां वगर एटले बोडा स्वीकारवामां आवे, तो आ बंने लिपि एक बीजीनी निकटतर आवे, ए वात विचारणीय छे. परंतु आमां पहेल कोणे करवी वारु? देवनागरी लेखको “माथां” छोडी दे, देवनागरी पुस्तको “माथां" वगर छपातां थाय, तो पछी ए लिपिमां आपोआप जे परिवर्तनो थवा पामशे गुजराती लिपि उपर पण पूरती असर उपजाव्या वगर नहीं रहे. नोटः- लेखक के प्रत्येक कथन से सम्पादक सहमत हो यह आवश्यक नहीं है।
For Private and Personal Use Only
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
SHRUTSAGAR
December-2019
गुजराती माटे देवनागरी लिपिके हिन्दी माटे गुजराती लिपि?
हिन्दवी (गतांकथी आगळ..) ___ आ आपकथनीनी चालता विषयने वळी वधारे स्पर्शती विगत आ, के हुं हिन्दु छु ओलादे, पण म्हारां धर्म मंतव्यो जे होय ते केटलां “हिन्दु” हशे केटलां नहीं, ते हुं पोते नथी जाणतो। हिन्दी-ऊर्दु प्रदेशवासी “सनातनी"
हिन्दुओ म्हने साचा हिन्दु लेखे ना पण स्वीकारी शके । परंतु हुं हिन्दवी (इन्डियन Indian) तो छु, हिन्दवी देशभक्ति म्हारी पण भावना छे, हिन्दु अने मुस्लिम बंने म्हारा भाईओ छे, सगा भाईओ छ । सर सैयद आमद- पेलुं महावाक्य, “हिन्दु अने मुस्लिम हिन्द बे आंखो छ,” ते म्हने अक्षरशः मान्य छ । वळी आ बधुं अहीं नग्नरूपे जणावु छु, म्हारी फोकियत लेखे मुद्दल नहीं । आजे आपणा हिन्दमां भणेलाओ छीए, तेमांना घणा घणा जन्मे हिन्दु इसमोनुं मानस “सनातनी” नहीं, आ प्रकारनुं छे, ए वस्तुस्थिति बनती स्पष्टताथी दर्शावी देवानो ज हेतु छे अने हिन्दवी भणेलाओमांथी जे मोटी संख्या- मानस “सनातनी” नथी “आर्यसमाजी” नथी अने आq छे, तेमना वाचाळ प्रतिनिधि लेखे चोक्खं कही देवा इच्छु छु के हिन्दी-ऊर्दु भाषाना विशाळ प्रदेशमां वसती संकर जनता साथे ऐक्य वधारवाना मार्ग एक नहीं, अमने तो बे जणाय छे, एकबीजाने समान अने समान्तर । ऊर्द लिपिना प्रचारनो आग्रह एकला मुस्लिम बंधुओए शाने धरवो? आपणे पण केम एने माटे जेटलो देवनागरी लिपिना प्रचार माटे धरीए तेटलो न धरवो? मात्र लिपि फेलातां ते जे भाषानी ते भाषाना ज्ञानफेलावमां थोडो ज लाभ मळी शके, ए तो उपर कहेवाय गयु । पण जेटलो देवानगरीना फेलावथी हिन्दीभाषाना फेलावमां लाभ थवो संभवित तेटलो उर्दु लिपिना फेलावथी ऊर्दु भाषाना फेलावमां पण संभवित। ऐक्यवृद्धि जेटली हिन्दीज्ञान फेलावा वडे तेटली ऊर्दुज्ञान फेलावा वडे पण अने हिन्दी-ऊर्दु भाषाशास्त्रमा बे भाषा गणी शकाय एटली भिन्न छे नहीं। हिन्दीना फेलाव साथे ऊर्दुनु ज्ञान फेलाशे । ऊर्दुना फेलाव साथे हिन्दीनो पण थवानो। देवनागरी लिपि शीखवामां हिन्दुओने स्हेली पडी जाय एवं पण नथी। हुं तो उर्दुलिपि आखी एक ज दिवसमां शीख्यो हतो, अने कोईपण एकाग्र अभ्यासमां टेवायेलो जिज्ञासु बहु थोडा वखतमां शीखी शके छ ।
For Private and Personal Use Only
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
30
श्रुतसागर
दिसम्बर-२०१९ गुजरातना मुस्लिमोमां कुरानेशरीफ गुजराती लिपिमां छापेलुं वंचाय छ । बंगाळमां कुरानेशरीफ बंगाळी लिपिमां छापेलं वंचाय छे । घणा संस्कृत ग्रंथो पण त्यां बंगाळी लिपिमा छपाता अने छपाय छे। आ प्रवृत्तिओ राज्यना आश्रय विना तेम प्रचारकोना उद्यम वगर चाली रही छे अने केळवणी वधतां वाचकोनी संख्या वळी जिज्ञासाना वधारा साथे वधती ज रहेशे । देवनागरी लिपि माटे आग्रह धरावनाराओनां ध्यान आ हकीकतो तरफ पण जवां जोईए। संस्कृत ग्रंथो बंगाळी-गुजराती तेलुगु आदिने बदले आखा हिन्दमां तक्षशिलाथी कोलंबो लगी देवनागरी लिपिमां छपाय तेज बेहतर, संस्कृत लखाण पण देवनागरीमा ज थाय ते बेहतर, ऊर्दूभाषाना प्रदेश ब्हार वसता मुस्लिमोमां पोताना वतननी भाषा अने लिपिना ज्ञाननी साथे ऊर्दु ज्ञान वधे ते बेहतर हिन्दी देवनागरीनो फेलाव अने ऊर्दुनो फेलाव बंने सरखा इच्छवा योग्य, एके बीजा करतां चडियातो शानो? एवां एवां म्हारां तो मत छ । म्हारी मातृभाषा अने लिपिना प्रचारनी साथे बीजी कोई भाषा के लिपिना प्रचार माटे आग्रह राखवा मने कोई दलीलमां उतारे, तो हुं आ त्रण चार आग्रह एक साथे धरवाने कबूल थई शकुं खरो, एमांथी कोईपण एक वधु महत्वनो, वधु व्यवहारु के वधु वाजबी म्हने तो न लागे।
छेल्ली वात. देवनागरी लिपिमांथी समुत्क्रांतिने कुदरती क्रमे गुजराती लिपि घडाई छे। अने सांभळु छु के हिन्दीभाषाप्रेमीओमां पोतानी मातृभाषा (हिन्दी)ने माथे पाघडी वगरनी अथवा लिपि शब्द नारीजातिनो एटले बीजुं रूपक वापरीए तो, दक्षिणी सौभाग्यवतीओनी जेम खुल्लां माथांवाळी देवनागरी लिपि लखवानी चाल, सुधारा लेखे किंवा सुगमतानी खातर, शरू थई चुकी छे । आ चाल केटली फेलाशे, केटली झडपे परीक्षापत्रकोना जवाबो लखता विद्यार्थीओ ज “बोडिया” देवनागरी लखे छे के हिन्दी विद्वानो पण कॉलेजोमां पडती आदतने पछी वळगी रहे छे, ए समजावाने माटे तो केटलोक समय जवो जोईए। जे लहियाने माथां छोडी देवानी टेव एकवार पडी जाय, ते एवी तस्दीने पाछो आवकार दे एवो संभव तो नथी। तथापि केटलोक समय वीते ते पछी ज कही शकाय, अने आ चाल जोरथी अने त्वराथी फेलाय छे, एम देखाय तो? तो बीजी वार जुवो पेलां जोडकां । लेखकनो जमणो हाथ प्रवाहिता साधे ए ज कुदरती। ए डाबी बाजुनी आकृतिओ क्रमे क्रमे जमणी बाजुनी आकृतिओमां परिणमे ए ज कुदरती। जड देवनागरी स्थूल देवनागरी डबकाशाई देवनागरी सुघड सजीवन मरोडदार गुजरातीमां परिपाक पामे ए ज कुदरती।
(अनुसंधान पृष्ठ सं.२८ पर)
For Private and Personal Use Only
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
SHRUTSAGAR
3
December-2019 प्राचीन पाण्डुलिपियों की संरक्षण विधि
राहुल आर. त्रिवेदी सुरक्षात्मक संरक्षण (Preventive conservation)
सुरक्षात्मक संरक्षण प्राथमिक स्तर का कार्य है, जो बहुत महत्त्वपूर्ण है। इसके अंतर्गत निम्नलिखित बातों को ध्यान में लिया जाता है। १) संग्रहण व्यवस्था(Storage Handling), २) मेकेनिकल क्लिनिंग (Mechanical Cleaning) तथा ३) सूचिकरण (Cataloguing)। १) संग्रहण व्यवस्था (Storage Handling)
संग्रहण (Storage) के ६ प्रकार- प्राचीन हस्तलिखित पाण्डुलिपियों को सुरक्षित स्थान में रखा जाता है। संग्रहण के छः प्रकार बताए गए हैं, जो इस प्रकार है१) विकसित सञ्चय Open storage, २) संकीर्ण सञ्चय Closed storage, ३) प्रत्यक्ष सञ्चय Visible storage, ४) सीधा-लम्बरूप श्रेणीबद्ध सञ्चय vertical ranck, ५) आलमारी cabinet ६) तथा सुसम्बद्ध सञ्चय Compact storage. इनमें से Compact storage सबसे अच्छा है क्यूंकि कम जगह में अधिक सामग्री रखी जा सकती है, इस विधि का उपयोग वर्तमान में हमारी संस्था में किया जा रहा है। ऊपर बताए गए इन कबाटों में रखने हेतु व्यवस्था कर रहे कार्यकर्ताओं को सावधानी रखनी पडती है। हस्तप्रतों को कबाटों में सुंदर रूप से थप्पी बनाकर, लकड़ी के बक्से या पोथी में बांधकर रखनी चाहिए। ____ कवर के २ प्रकार- कवर के भी दो प्रकार होते है, १) फ्लेप(Flap) कवर और २) रैप(Wrap) कवर । ग्रंथ के पन्ने १ से ३० तक हो तो फ्लेप कवर करना होता है। यदि ग्रंथ के पन्ने ३०-से ३५ या उससे भी अधिक हो तो उसे रैप कवर करना चाहिए। फ्लेप कवर के लिए एसिड फ्री पेपर का उपयोग किया जाता है, पेपर की शीट में हस्तप्रत को मध्यबिंदु में रखकर उसकी लंबाई व चौड़ाई का माप लेकर चारों कोनों को काट दिया जाता है जिससे वह लम्बचौरस कवर हो जाता है। रैप कवर के लिए पेपर को हस्तप्रत की लंबाई के अनुसार तीन गुना रखकर काटा जाता है और उन ग्रंथो को पोथी में बांधा जाता है। पाण्डुपिलिपियों को पोथी में बांधने के लिए कोटन या रेशम के लाल या पीले कपड़े का उपयोग किया जाता है।
For Private and Personal Use Only
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
श्रुतसागर
दिसम्बर-२०१९ संग्रहण से सम्बन्धित कुछ सावधानियाँ - १. पाण्डुलिपियों को रखो जानेवाली आलमारियों में धूल-मिट्टी नहीं होनी __ चाहिए। २. स्टोरेज की जगह पर अनावश्यक चीजें नहीं रखनी चाहिए। ३. स्टोरेजवाले स्थान की नित्य सफाई करनी चाहिए। ४. स्टोरेज स्थान के आस-पास जूते-चप्पल पहने कोई नहीं आना चाहिए। ५. खाद्य पदार्थ और धूम्रपान का उपयोग कभी नहीं करना चाहिए। ६. कीड़े-मकोड़े या जीव-जन्तुओं का प्रवेश न हो एवं आग लगने का भय न रहे इस
प्रकार का स्थान होना चाहिए ७. हस्तप्रतों के कागजों को उठाते समय खराब निर्वहण(mis-handling) न हो
उसका पूरा ध्यान रखना चाहिए। ८. हस्तप्रतों को उठाते समय पुट्ठा या लकड़ी के पट्टी से आधार देकर उठाना चाहिए।
जिससे हस्तप्रतों के पन्नों को फटने से बचाया जा सके। ९. पाण्डुलिपियों के ऊपर वजन वाली भारी वस्तु को नहीं रखनी चाहिए। १०. गरमी या वर्षा के मौसम में पाण्डुलिपियों को किसी प्रकार का नुकसान न हो,
इस बात का ध्यान रखना चाहिए। ११. स्टोरेज के क्षेत्र में वर्षा के मौसम में पानी की बूंदे या छींटे नहीं आएं, इसका
पूरा ध्यान रखना चाहिए। १२. स्टोरेज की जगह के आस-पास पानी की पाईप लाईन नहीं होनी चाहिए। १३. स्टोरेज में रखी हुई पाण्डुलिपियों के ऊपर किसी तरह के जीव-जन्तुओं का
असर तो नहीं हुआ है, यह ७ दिनों या १५ दिनों में नियमित रूप से चेक करते रहना चाहिए।
स्टोरेज क्षेत्र का तापमान- स्टोरेज के स्थान का तापमान(Temperature) एवं नमी(Humidity) अनुकूल होनी चाहिए। पाण्डुलिपियों के लिए जो वातावरण सानुकुल हो उसका ध्यान रखना चाहिए। टेम्प्रेचर व नमी को नापने के लिए लक्स मीटर तथा हाइग्रोमीटर (आर्द्रतामापक यन्त्र) का उपयोग किया जाता है। स्टोरेज स्थान का टेम्प्रेचर-२०-२५०C होना चाहिए और उस स्थान की नमी(Reletive humidity)-४५-५०% होनी चाहिए।
(क्रमशः)
For Private and Personal Use Only
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
SHRUTSAGAR
२२
December-2019
कर्ता
पुस्तक समीक्षा
डॉ. हेमन्त कुमार पुस्तक नाम - जीवविचार याने जैनशासन- जीव विज्ञान
- श्री शान्तिसूरि संपादक
श्री योगतिलकसूरि म. सा. प्रकाशक - शांतिकनक श्रमणोपासक ट्रस्ट, सुरत प्रकाशन वर्ष - वि.सं. २०७५ मूल्य
- ९००/
२८८ भाषा - प्राकृत मूल, संस्कृत छाया एवं गुजराती विवेचन विशेषता - चित्रों की प्रधानता से जीवविचार प्रकरण का विवेचन
जैनधर्म-दर्शन को समझने का अर्थ है, जीव के स्वरूप को समझ लेना, और जीव के स्वरूप को समझने का अर्थ है, परमात्मा के रहस्य को समझ लेना। जीव अर्थात् आत्मा। जीव यानी चेतन । जीवों का विचार अर्थात् मेरा, आपका और सभी जीवों का विचार करना । जीवों के सद्गुण-दुर्गुण के संबंध में जानकारी प्राप्त करनी। जीवों के भेद-प्रभेद को जानना।
जीव विचार प्रकरण कोई कहानी, उपन्यास या घटना प्रधान साहित्य नहीं है, बल्कि यह तत्त्वज्ञान से संबंधित एक महत्त्वपूर्ण प्रकरण है, जिसमें जीवमात्र से संबंधित व्यापक जानकारी समाहित है। मात्र ५१ गाथाओं में जीवतत्त्व का व्यापक परिचय समाहित होने से प्रस्तुत प्रकरण का स्वाध्याय प्रत्येक स्वाध्यायी के लिए अनिवार्य सा हो गया है। जबतक जीवतत्त्व की सूक्ष्मता को हम नहीं समझेंगे तबतक उसके जीवन की सुरक्षा नहीं कर पाएँगे। प्रायः अनावश्यक और व्यर्थ की जीव हिंसा से हम स्वयं को दृषित कर बैठते हैं। इसका कारण है, जीव के प्रति अहिंसा धर्म के पालन के ज्ञान से हमारी अनभिज्ञता । यदि हम सभी प्रकार के निगोद से लेकर सिद्ध परमात्मा तक के जीव की स्थिति से अवगत हो जाएँ तो हम अपने जीवन को अहिंसामय बना सकते हैं, साथ ही उनके उपकारों का स्मरण कर उनके प्रति कृतज्ञ भी हो सकते हैं।
अब यहाँ प्रश्न है कि जैनशासन में जीवविचार का वर्णन तो श्री जीवाजीवाभिगमसूत्र तथा श्री प्रज्ञापनासूत्र जैसे आगम ग्रंथों में विस्तार से किया गया है, फिर अलग से इस ग्रंथ की उपयोगिता क्या है? यहाँ यह उल्लेख करना आवश्यक है कि उपरोक्त महान शास्त्रों का अध्ययन-वांचन बालजीवों के लिए शक्य नहीं होने के कारण इस ग्रंथ की रचना की आवश्यकता हुई।
(अनुसंधान पृष्ठ-२१पर)
For Private and Personal Use Only
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
श्रुतसागर
दिसम्बर-२०१९
समाचारसार
पूज्य राष्ट्रसंत श्री की पावन निश्रा में कोबा में अंतर्राष्ट्रीय स्तर के अत्याधुनिक संग्रहालय का निर्माण कार्य प्रारंभ
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र में आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर के द्वितीय तल पर सम्राट् संप्रति संग्रहालय विद्यमान है। प्रतिवर्ष जैन-जैनेतर, स्कूलकॉलेज एवं देश-विदेश के हजारों दर्शनार्थी इस संग्रहालय का अवलोकन करते हैं। स्थानाभाव के कारण यहाँ कुल संग्रह में से मात्र दस प्रतिशत सामग्री ही प्रदर्शित की गई है।
यहाँ संकलित भारतीय व जैन शिल्प स्थापत्य की कलाकृतियों के विशाल संग्रह को योग्य रूप से प्रदर्शित करने हेतु काफी समय से विचार-विमर्श चल रहा
था। अंततः वह घड़ी आ गई और जिनालय व भोजनशाला के बीच खाली पड़ी विशाल जगह पर भव्यातिभव्य संग्रहालय हेतु भवन का निर्माणकार्य राष्ट्रसंत प.पू. आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. की पावन निश्रा व वासनिक्षेप एवं मंगलवचनों के साथ कार्तिक कृष्णपक्ष ८ बुधवार दि. २० नवम्बर २०१९ को प्रारंभ कर दिया गया।
प्रस्तुत प्रसंग पर आणंदजी कल्याणजी पेढी व श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र के ट्रस्टीवर्य श्री श्रीपालभाई शाह, ट्रस्टी श्री दर्शितभाई शाह, ट्रस्टी श्री डिम्पलभाई मारफतिया, कारोबारी श्री रजनीभाई शाह आदि अन्य कई महानुभाव उपस्थित थे। प्रस्तुत प्रसंग पर महावीरालय में प्रातः ज्ञानमंदिर के पं. श्री गजेन्द्रभाई शाह द्वारा स्नात्रपूजा करवाई गई, तत्पश्चात् स्नात्रजलादि द्वारा भूमिपूजन किया गया और खातमूहुर्त के साथ कार्य प्रारंभ कर दिया गया। __इस कार्य हेतु अनुभवी इन्जीनीयर, योग्य सलाहकार व अधिकारीगण तथा कार्य को अंजाम देने वाले शताधिक कर्मचारियों का दल काम पर लगाया गया है। उनके अस्थायी आवास हेतु कर्मचारी कॉलोनी का भी निर्माण किया गया है। तेज गति से निर्माण कार्य चल रहे हैं। आशा है कि इस विशालकाय संग्रहालय का मूर्तिमंत दिव्यदर्शन तीन वर्ष के अल्प समय में ही हो जाएगा।
For Private and Personal Use Only
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
पूज्य आचार्यदेव राष्ट्रसन्त श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराजा की निश्रा में आयोजित
सम्राट् सम्प्रति संग्रहालय के नूतनभवननिर्माण हेतु भूमिपूजन का दृश्य
171
35
For Private and Personal Use Only
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Registered Under RNI Registration No. GUJMUL/2014/66126 SHRUTSAGAR (MONTHLY). Published on 15th of every month and Permitted to Post at Gift City SO, and on 20th date of every month under Postal Regd. No. G-GNR-334 issued by SSP GNR valid up to 31/12/2021. सम्राट् संप्रति संग्रहालय हेतु प्रस्तावित नूतन भवन का चित्र BOOK-POST / PRINTED MATTER प्रकाशका श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबा जि. गांधीनगर 382007 फोन नं. (079)23276204, 205, 252 फेक्स (079)23276249 Website : www.kobatirth.org email: gyanmandir@kobatirth.org Printed and Published by : HIREN KISHORBHAI DOSHI, on behalf of SHRI MAHAVIR JAIN ARADHANAKENDRA, New Koba, Ta.&Dist. Gandhinagar, Pin-382007, Gujarat. And Printed at : NAVPRABHAT PRINTING PRESS, 9, Punaji Industrial Estate. Dhobighat, Dudheshwar, Ahmedabad-380004 and Published at : SHRI MAHAVIR JAIN ARADHANA KENDRA, New Koba, Ta.& Dist. Gandhinagar, Pin-382007, Gujarat. Editor : HIREN KISHORBHAI DOSHI 36 For Private and Personal Use Only