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SHRUTSAGAR
December-2019 प्रतिलेखक द्वारा क्षति से दुबारा दिये गए गाथांक १२ को हमने सुधारकर १३ किया है। संभवित शुद्धपाठ को हमने दुबारा कोष्टक में रखा है। कई स्थानों पर विराम चिह्नों की प्रविष्टि के सिवाय ही बड़े-बड़े छंद लिखे गए हैं, जिन्हें छन्दानुरूप करना प्रायःकठिन था। कहीं-कहीं अस्पष्ट लेखन के साथ ही भाषा की मर्यादा आदि कारणों से भी कई स्थानों पर क्षति रह गई हो तो विद्वज्जन सुधारकर पढ़ें यही प्रार्थना। कृति परिचय
कृति की भाषा अपभ्रंश है। भास व घात नामक छंदों में रचित इस कृति का गाथा परिमाण २५ है। सर्वोत्कृष्ट पुण्य के धनी, जग उद्योतकर, वांछित वस्तु की पूर्ति में कल्पवृक्ष के समान व जिनका शासन दुस्तर भवसागर को पार कराने में समर्थ है, ऐसे महावीर भगवान को नमस्कार करते हुए कवि ने कृति का प्रारंभ किया है। जिनोपदिष्ट नवतत्त्ववाणी को कवि ने सुधारस की उपमा दी है, जो मिथ्यात्वरूपी विष का पान करने वाले को अच्छी नहीं लगती है। नवतत्त्वज्ञान को कवि ने नवनिधान के साथ जोडा है और केवलज्ञानरूपी लक्ष्मी व तीनों लोक में आनंद देने वाला कहा है। कवि ने परमात्मा के प्रति विनती करते हुए कहा है कि- हे त्रिभुवन नाथ ! आपके द्वारा उपदिष्ट नवतत्त्व को मैं संक्षेप में कहना चाहता हूँ। ऐसा कहकर विवेच्य विषय को आगे बढ़ाया है।
जीवाजीवापुन्नं पावासवसंवरनिज्जरणा भावा। बंधो मुक्खो इइ नवतत्ता नायव्वा निम्मिय संमत्ता ॥६॥
इस कृति की गाथा क्र.६ में सम्यक्त्व को देने वाले जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध एवं मोक्ष इन नवतत्वों का नाम निर्देश किया गया है। उसके बाद प्रत्येक तत्त्व के स्थूल व सूक्ष्म भेद दर्शाये गए हैं। अंत में फलश्रुति में कवि ने दर्शाया है कि
एयह तत्तह सद्दणिहु इणि मिच्छन्न(त्त) विणास। लहइ जीव समकितरयण अणुवम महि निवास ॥२१॥
यह नवतत्त्व स्वीकारने योग्य है, इससे मिथ्यात्व का नाश होता है, समकितरत्न की प्राप्ति होती है, शाश्वत तेज उल्लसित होता है, ज्ञानरूपी मणि के दीपक जिसके प्रकाश में जीव-अजीवादि तत्त्वों की जानकारी प्राप्त होती है, दर्शन-ज्ञान के संयोग से चारित्र के परिणाम होते हैं, जिसके द्वारा मोह-लोभ-मद-कामादि शत्रुओं को जीता
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