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श्रुतसागर
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दिसम्बर-२०१९ उपाध्याय जयसागरजी कृत नवतत्त्वविचारगर्भित महावीरजिन स्तवन
सुकुमार जगताप जीवाइ नव पयत्थे, जो जाणइ तस्स होइ सम्मत्तं । भावेण सद्दहतो, अयाणमाणो वि सम्मत्तं ॥५१॥ (नवतत्त्व प्रकरण)
मुक्ति के मार्ग में सम्यक्त्व के बिना प्रवेश की प्राप्ति नहीं होती है। इसलिए सम्यक्त्व को मुक्ति का द्वार भी कहा जाता हैं। वह उसे प्राप्त होता है जो जिनेश्वर दर्शित नवतत्त्वों को जानता है और भाव से मानता है। वर्तमान में इस विषय के अध्ययन हेतु नवतत्त्व प्रकरण प्रसिद्ध है। इसी विषय को दर्शाने वाली प्रायः अप्रगट अपभ्रंश भाषा निबद्ध कृति का यहाँ प्रकाशन किया जा रहा है। ९ तत्त्वों की संक्षिप्त व्याख्या
१. जीवतत्त्व- जो प्राण को धारण करता है वह है जीवतत्त्व । इसमें भी द्रव्यप्राण और भावप्राण ऐसे दो प्रकार के प्राण होते हैं। सिद्ध जीव केवल भाव प्राण को ही धारण करते हैं, अन्यत्र संसारी जीव दोनों प्राणों को धारण करते हैं। २. अजीवतत्त्वजीवतत्त्व से विपरीत जो जड़ स्वभाव वाला है, वह है अजीवतत्त्व । ३. पुण्यतत्त्वशुभ एवं सत् कर्मों के परिणामस्वरूप जिसके उदय से सुख का अनुभव होता है, वह है पुण्यतत्त्व। ४. पापतत्त्व- अशुभ वा असत् कर्मों के परिणामस्वरूप जिसके उदय से दुःख का अनुभव होता है, वह है पापतत्त्व। ५. आश्रवतत्त्व- मिथ्यात्व आदि हेतु से कर्मों का आत्मा में जो आगमन होता है, वह है आश्रवतत्त्व । ६. संवरतत्त्व- आने वाले कर्मों को रोकना ही संवरतत्त्व है। ७. निर्जरातत्त्व- आत्मप्रदेश में आये हए कर्मों का शनैः-शनैः क्षय करना यह निर्जरातत्त्व है। ८. बंधतत्त्व- नए कर्म परमाणुओं का आत्मप्रदेश के साथ क्षीर-नीर के भाँति मिल जाना ही बंधतत्त्व है। ९. मोक्षतत्त्वसर्वथा कर्मों का क्षय होना ही मोक्षतत्त्व है। ___ नवतत्त्व की महिमा के साथ इस कृति में जैन धर्म के २४वें तीर्थंकर श्रमण भगवान महावीर का स्तवन किया गया है, जिसमें वह नवतत्त्वों का संक्षेप में बोध कराकर इस भवसागर से जीव की मुक्ति हेतु जिन परमात्मा से याचना करता है।
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