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December-2019
SHRUTSAGAR संपादकीय
रामप्रकाश झा श्रुतसागर का यह नूतन अंक आपके करकमलों में समर्पित करते हुए हमें अपार प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है। इसमें वाचक योगनिष्ठ आचार्य बुद्धिसागरसूरीश्वरजी की अमृतमयी वाणी के अतिरिक्त दो अप्रकाशित कृतियाँ तथा अन्य उपयोगी स्तम्भों का भी अध्ययन करेंगे।
प्रस्तुत अंक में सर्वप्रथम “गुरुवाणी” शीर्षक के अन्तर्गत आत्मा के अनन्त वर्तुल के विषय में पूज्य आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरीश्वरजी म.सा. के विचार प्रस्तुत किए गए हैं। द्वितीय लेख राष्ट्रसंत आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. के प्रवचनों की पुस्तक Awakening' से संकलित किया गया है, जिसमें गुरु-शिष्य सम्बन्ध तथा शिष्य की योग्यता के ऊपर प्रकाश डाला गया है। ___अप्रकाशित कृति प्रकाशन के क्रम में सर्वप्रथम पूज्य गणिवर्य श्री सुयशचन्द्रविजयजी म. सा. के द्वारा सम्पादित “भीमविजयगणि रास” का प्रकाशन किया जा रहा है। इस कृति के कर्ता मुनि लाल ने श्री हीरविजयसूरि की परम्परा में हुए भीमविजयगणि के व्यक्तित्व और उनके जीवन की मुख्य घटनाओं का वर्णन किया है। जैन सत्यप्रकाश दि.१५-३-१९४८ के अंक में प्रकाशित श्री भंवरलालजी नाहटा के द्वारा लिखित इस कृति के सार का पुनःप्रकाशन किया जा रहा है। द्वितीय कृति के रूप में आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर के पंडित श्री सुकुमार जगताप के द्वारा सम्पादित अपभ्रंश भाषा में रचित कृति “नवतत्त्वविचारगर्भित महावीरजिन स्तवन" में उपाध्याय जयसागरजी ने नवतत्त्व की महिमा का वर्णन करते हुए श्रमण भगवान महावीर की स्तवना की है।
___ पुनःप्रकाशन श्रेणी के अन्तर्गत बुद्धिप्रकाश, ई.१९३४, पुस्तक-८२, अंक-२ में प्रकाशित “गुजराती माटे देवनागरी लिपि के हिंदी माटे गुजराती लिपि” नामक लेख का अन्तिम अंश प्रकाशित किया जा रहा है, इस लेख में गुजराती भाषा को देवनागरी लिपि में अथवा हिन्दी भाषा को गुजराती लिपि में लिखे जाने की उपयोगिता और औचित्य पर प्रकाश डाला गया है।
गतांक से जारी “पाण्डुलिपि संरक्षण विधि” शीर्षक के अन्तर्गत ज्ञानमंदिर के पं. श्री राहलभाई त्रिवेदी द्वारा पाण्डुलिपियों के सुरक्षात्मक संरक्षण के अन्तर्गत संग्रहण व्यवस्था के विषय में महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रस्तुत की गई है।
पुस्तक समीक्षा के अन्तर्गत श्री शान्तिसूरि द्वारा रचित तथा आचार्य श्री योगतिलकसरि के द्वारा सम्पादित “जीवविचार याने जैनशासन- जीवविज्ञान” पुस्तक की समीक्षा प्रस्तुत की जा रही है। पूज्य आचार्यश्री ने जीवविचार से सम्बन्धित चित्रमय प्रकाशन के द्वारा बालजीवों को जीवतत्त्व के विषय में सुन्दर जानकारी प्रस्तुत की है।
हम यह आशा करते हैं कि इस अंक में संकलित सामग्रियों के द्वारा हमारे वाचक अवश्य लाभान्वित होंगे व अपने महत्त्वपूर्ण सुझावों से हमें अवगत कराने की कृपा करेंगे।
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