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श्रुतसागर
दिसम्बर-२०१९ जा सकता है। इस ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप रत्नत्रयी के द्वारा समस्त दुःखों का अंत कर अखंड सुख की प्राप्ति होती है। कर्ता परिचय
कृति की अंतिम गाथा में कर्ता के द्वारा स्वयं का निम्नलिखित रूप से परिचय दिया गया है, वह इस प्रकार है :
सिरि वीर जिणवर ति ‘जयसायर' सोमसम सुहकारणो। मह दिसउ निम्मलवयणिरस जगतारणो ॥२५॥
'आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबा' के संशोधकों एवं पण्डितों के द्वारा प्रस्तुत कर्ता एवं विद्वानों की सूचि में कुल ५८ जयसागरजी का नामोल्लेख प्राप्त होता है, किन्तु इस कृति की प्रशस्ति में कर्ता के द्वारा स्वयं के लिए विशेष रूप से कुछ भी स्पष्टीकरण प्राप्त नहीं होता है। कृति की रचना शैली एवं भाषा वैशिष्ट्य के कारण जयसागरजी अनुमानतः वि.सं. १५वीं शताब्दी के हो सकते हैं। अन्यत्र कर्ता से संबंधित कुछ भी विशेष माहिती उपलब्ध न होने के कारण इसकी सिद्धता वर्तमान समय में विद्वज्जनों के लिए संशोधन का विषय है। हस्तप्रत परिचय
प्रस्तुत कृति का संपादन आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबा स्थित ज्ञानभंडार की एकमात्र हस्तप्रत क्र.९४६०७ के आधार पर किया गया है। इस प्रत में कुल पत्र संख्या ३६ हैं, किंतु उपलब्ध पत्र संख्या ३२ हैं (पत्रांक-२२ और ३० से ३२ कुल-४ पत्र अनुपलब्ध हैं), साथ ही २५ पेटा-कृतियों से युक्त इस हस्तप्रत में प्रस्तुत कृति २३वे अनुक्रम पर स्थित पत्र क्र.३४आ-३५अ पर प्राप्त होती है।
पेटांक-प्रारूप के अंतर्गत इस कृति का प्रत में नामकरण 'नवतत्त्वविचारमय स्तोत्र' के साथ उल्लिखित है। लिपिविन्यास, लेखनकला तथा कागज आदि के आधार पर अनुमान लगाया जा सकता है कि यह हस्तप्रत वि.सं. १६वीं शताब्दी में लिखी गई होनी चाहिए, प्रतिलेखक एवं लेखनस्थल अनुपलब्ध है। पंक्तियों की संख्या १४-१६ तक और प्रतिपंक्ति अक्षरों की संख्या ५२-५८ तक प्राप्त होती हैं । जलार्द्रता के कारण हस्तप्रत में कई पत्रों के अक्षर आमने-सामने छप गए हैं, कई स्थानों पर स्याही फैली हुई है, जिससे कहीं-कहीं अक्षर पढ़ने में कठिनाईं होती है। कहीं-कहीं फफूंदग्रस्त पत्र भी प्राप्त होते हैं और मूषकभक्षित होने के कारण कुछ पत्रों की
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