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SHRUTSAGAR
February-2017 १४७३ में प्रदान किया गया था। इनका कालधर्म वि.सं १५०० में हुआ। हस्तप्रत परिचय
यह हस्तप्रत आचार्य श्रीकैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर- कोबा के ग्रन्थभण्डार में प्रत संख्या ४४१६१ पर विद्यमान है। इस हस्तप्रत में कुल दो पत्र हैं। जिसमें दोनों
ओर कृति लिखी हुई है और दोनों पत्रों में जीरावला पार्श्वनाथजी के दो स्तवन लिखे हुए हैं। उनमें प्रथम पत्र पर यह कृति है। इसकी लिपि जैनदेवनागरी है। ___ यद्यपि प्रत के अन्त में प्रतिलेखक ने अपना नाम, लेखन संवत्, स्थलादि का उल्लेख नहीं किया है। परन्तु लिखावट एवं कागज की स्थिति को देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि यह प्रत लगभग १८वीं सदी में लिखी गई होगी।
इस प्रत की लंबाई-चौडाई २६.५०x११.०० है। इस प्रत के प्रत्येक पत्र में १५ पंक्तियाँ लिखी हुई मिलती हैं तथा प्रत्येक पंक्ति में लगभग ६१ से ६२अक्षर लिखे गये हैं। प्रत की दशा श्रेष्ठ है, परन्तु अधिक उपयोग के कारण किनारी खंडित है। पत्र के बीच में मध्यफुल्लिका वापी लाल गोलचंद्र के साथ अलंकृत किया है एवं पत्र की ऊपरी पंक्तियाँ कलात्मक मात्रा में लिखी गई हैं, अक्षर सुंदर हैं, गेरु लाल रंग से विशिष्ट पाठ व श्लोक संख्या को दर्शाया गया है तथा पत्र के दोनों ओर पार्श्व लाल गोलचंद्र है। पार्श्वरेखा भी लालरंग से की हुई है ।
हाल ही में संपन्न हुई जीरावला पार्श्वनाथ भगवान् की भव्य प्रतिष्ठा के पावन अवसर पर जीरावला पार्श्वप्रभु के भक्तों के लिए यह स्तवन सादर समर्पित है।
॥जीरावला पार्श्वनाथ स्तवनम् ॥ ॥६॥कल्याणकल्पद्रुमभद्रसालं सौभाग्यसत्कीर शु(सु)भद्रसालम् । जीराउलिस्थानसरोमरालं पार्श्वप्रभुं नौमि गुणैर्विशालम्
॥१॥ न वासवैर्वास्तवसंस्तवैर्भवा शक्येत संस्तोतुमहन्तु किं स्तुवै(वे) । गन्तुं नभोऽन्तं न बलं नभोमणेस्तल्लङ्घने कीटमणेः कथा वृथा भनक्ति ते भक्तिरशं(सं) दिवानिशं सेवारसं तेन जनो न मुञ्चति । न वञ्चति श्रीरपि तं तथावतं सुधारसैः सिञ्चति शासनेश्वरी ॥३॥ गणागुणानां गणनां न यान्ति तवेश लेशग्रहणेऽपि तेषाम्। दुःखक्षयः स्यान्न सुधोदधेः किं पानेन बिंदोरपि निर्विषत्वम् इलातले व्योमतले रसातलेऽखिलैः खलैर्न सा स स्खलिता तव प्रभा। खद्योतपोतैः प्रचुरैरपि प्रभो न हन्यते व्योममणेर्महन्महः
॥२॥
॥४॥
॥५॥
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