________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
जीरावला पार्श्वनाथ स्तवन
संपा. अश्विन बी. भट्ट कृति परिचय
प्रस्तुत कृति संस्कृत भाषामय ३३ पद्यों में निबद्ध जीरावला भगवान् पार्श्वनाथ का स्तवन है। वंशस्थछन्द में ग्रथित भक्तों के लिए मनोहारी स्तवन है। संभवतः पांचसौ वर्ष प्राचीन व प्रायः अद्यपर्यन्त अप्रकाशित यह रचना है। इस कृति में जीरावला पार्श्वनाथजी की आराधना का सुन्दर वर्णन किया गया है।
जैनशासन में भगवान् पार्श्वनाथ के विविध नामों में जीरावला पार्श्वनाथ का एक विशिष्ट स्थान है। सामाजिक, व्यावहारिक व धार्मिक विविध प्रसंगों पर भक्तजन इनकी भाववाही स्तुति करते हैं। इस आराधना का विशिष्ट महत्व है। इसमें मुख्य रूप से श्रीपार्श्वनाथ भगवान की महिमा वर्णित है। दुर्लभ मनुष्यजन्म प्राप्त करके जीवन में विशुद्धभावपूर्वक श्रीजीरावला पार्श्वनाथजी की आराधना करना विवेकी आत्माओं का कर्तव्य है। इसमें उपमा अलंकार के द्वारा भगवान पार्श्वनाथ के माहात्म्य को दर्शाया गया है। व्याकरण की दृष्टि से विध्यर्थ कृदन्त के प्रयोग से श्री पार्श्वनाथ भगवान की आराधना किस तरह से करनी चाहिए उसका भी सुंदर निरूपण किया गया है यथा"दृशां सहस्रैः परिवीक्षणीयं गिरां सहस्रः परिकीर्तनीयम् । सहस्रपतैः परिपूजनीयं सहस्रभावैः परिचिन्तनीयम्।” आदि श्लोक। उसी तरह शब्दानुप्रास अलंकार (जैसे - “कलंकलंकैरकलंकितं कुलम्") के प्रयोग से इसका मनोहारी राग से गायन किया जा सकता है, जिससे भक्तिभाव दृढ़ होता है। कर्ता परिचय
इस कृति के अंतिम प्रशस्तिपद्य में कर्ता के रूप में आचार्य श्री जयकीर्तिसूरिजी का उल्लेख है। इस कृति में रचनावर्ष संबंधी अन्य कोई उल्लेख स्पष्टरूप से नहीं मिलता है। प्रतिलेखन पुष्पिका अंतर्गत प्रतिलेखक ने “अंचलगच्छनायक श्रीजयकीर्त्तिसूरिविरचितं...” उल्लेख किया है। साथ ही जैन धर्मनो प्राचीन इतिहास ग्रंथ के आधार से वे अंचलगच्छ में हुए आचार्य श्री मेरूतुंगसूरिजी के सच्छिष्य थे एवं आचार्य श्री जयकेसरसूरि व आचार्य श्री शीलरत्नसूरि के गुरु थे। इनका जन्म वि.सं १४३३, दीक्षा वि.सं १४४४, सूरिपद वि.सं १४६७ और गच्छाधिपति पद वि.सं
1 लेखक- पं.हीरालाल हंसराज, जिनशासन आराधना ट्रस्ट, वि.सं.-२०६१, आवृत्ति-२, पत्रांक-२९.
For Private and Personal Use Only