Book Title: Shrutsagar 2017 02 Volume 09
Author(s): Hiren K Doshi
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir RNI:GUJMUL/2014/66126 ISSN 2454-3705 श्रुतसागर श्रुतसागर SHRUTSAGAR (MONTHLY) Feb-2017, Volume : 03, Issue : 9, Annual Subscription Rs. 150/- Price Per copy Rs. 15/EDITOR : Hiren Kishor bhai Doshi BOOK-POST / PRINTED MATTER पीडवाडा धातुप्रतिमा-संभवनाथजी आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर For Private and Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra मुख्यद्वार : अडपोदरा वासुपूज्य जैन देरासर प्रतिमाजी को मंदिर में ले जाते हुए प. पू. आचार्य श्री विमलसागरसूरिजी म.सा. www.kobatirth.org For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अडपोदरा जैन देरासर में प्रवेश करते हुए प. पू. गुरु भगवंत Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir RNI : GUJMUL/2014/66126 ISSN 2454-3705 (आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर का मुखपत्र) श्रुतसागर મૃતસાગર SHRUTSAGAR (Monthly) वर्ष-३, अंक-९, कुल अंक-३३, फरवरी-२०१७ Year-3, Issue-9, Total Issue-33, February-2017 वार्षिक सदस्यता शुल्क-रु. १५०/- * Yearly Subscription - Rs.150/अंक शुल्क - रु. १५/- * Issue per Copy Rs. 15/ आशीर्वाद राष्ट्रसंत प. पू. आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. * संपादक * * सह संपादक * *संपादन सहयोगी * हिरेन किशोरभाई दोशी रामप्रकाश झा भाविन के. पण्ड्या ज्ञानमंदिर परिवार १५ फरवरी, २०१७, वि. सं. २०७३, माघ-कृष्ण-५ न आराम इना कर वीर जा श्री महाक काबा अ2 अमृतं त विध पाल प्रकाशक आचार्य श्री कैलाससागरसरि ज्ञानमंदिर (जैन व प्राच्यविद्या शोध-संस्थान एवं ग्रन्थालय) श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा, गांधीनगर-३८२००७ फोन नं. (079) 23276204, 205, 252 फैक्स : (079) 23276249, वॉट्स-एप 7575001081 Website : www.kobatirth.org Email: gyanmandir@kobatirth.org For Private and Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुक्रम 1. संपादकीय रामप्रकाश झा 3. अध्यात्मज्ञानगंगाना ओवारेथी... आचार्यश्री बुद्धिसागरसूरिजी 4 Acharya Padmasagarsuri 8 4. Beyond Doubt 5. पींडवाडानी धातुप्रतिमानां अप्रगट लेखो 6. जीरावला पार्श्वनाथ स्तवन 7. विद्वद्गोष्ठी संवाद संपा. गणि सुयशचंद्रविजयजी 10 संपा. अश्विन बी. भट्ट 13 अनु. राहुल आर. त्रिवेदी 17 पू. मुनि श्री धुरंधरविजयजी 24 8. जैन न्यायनो विकास 9. समाचार सार रामप्रकाश झा 22 * प्राप्तिस्थान * आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर तीन बंगला, टोलकनगर, होटल हेरीटेज़ की गली में डॉ. प्रणव नाणावटी क्लीनिक के पास, पालडी अहमदाबाद - ३८०००७, फोन नं. (०७९) २६५८२३५५ सौजन्य स्व. श्री पारसमलजी गोलिया व स्व. श्रीमती सुरजकँवर पारसमल गोलिया की पुण्य स्मृति में हस्ते : चाँदमल गोलिया परिवार की ओर से बीकानेर - मुम्बई (KISAM-MEED L For Private and Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संपादकीय रामप्रकाश झा श्रुतसागर का यह नवीन अंक आपके करकमलों में सादर समर्पित करते हुए अपार आनन्द की अनुभूति हो रही है। इस अंक में गुरुवाणी शीर्षक के अन्तर्गत आचार्यदेव श्री बुद्धिसागरसूरीश्वरजी म.सा. का लेख “अध्यामज्ञानगंगाना ओवारेथी” प्रकाशित किया जा रहा है. इस लेख में युवराज भद्रककुमार का दृष्टांत देते हए आशा व तृष्णा के बीजों को नष्ट करने के लिए अध्यात्मज्ञान के सेवन पर बल दिया गया है. द्वितीय लेख राष्ट्रसंत आचार्य भगवंत श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. के प्रवचनांशों की पुस्तक 'Beyond Doubt' से क्रमबद्ध श्रेणी के अंतर्गत संकलित किया गया है। अप्रकाशित कृति प्रकाशन स्तंभ के अन्तर्गत इस अंक में “पिंडवाडा धातुप्रतिमाना अप्रगट लेखो" प्रकाशित किया जा रहा है. इस कृति में पिंडवाडा, राजस्थान अवस्थित धातप्रतिमाओं में से १० प्रतिमाओं के लेखों को वाचकों के अध्ययन हेतु प्रकाशित किया गया है. इसका संपादन गणिवर्य श्रीसुयशचन्द्रविजयजी म. सा. ने किया है. अंचलगच्छ के आचार्य श्री जयकीर्तिसूरिजी द्वारा लिखित “श्री जीरावला पार्श्वनाथ स्तवन” नामक कृति का सम्पादन ज्ञानमंदिर के पं. श्री अश्विनभाई भट्ट के द्वारा किया गया है. ३३ श्लोकों में ग्रथित इस पद्यकृति में भगवान पार्श्वनाथ की आराधना किस तरह करनी चाहिए, यह दर्शाया गया है. ज्ञानमन्दिर के पंडित श्री राहुलभाई त्रिवेदी के द्वारा अनूदित कृति “विद्वद्गोष्ठीसंवाद" में एक ही श्लोक “येषां न विद्या न तपो न दानं...” को भिन्न-भिन्न अर्थ के आधार पर स्पष्ट किया गया है. पुनःप्रकाशन श्रेणी के अन्तर्गत इस अंक में मुनि धुरंधरविजयजी द्वारा लिखित लेख “जैन न्यायनो विकास” गतांक से आगे का भाग प्रकाशित किया जा रहा है. इसमें जैन दार्शनिक ग्रन्थकारों में से श्री हरिभद्रसूरि, श्रीबप्पभट्टसूरि, श्रीशीलांकाचार्य तथा श्रीसिद्धर्षि गणि जैसे महापुरुषों का संक्षिप्त जीवन तथा उनकी मुख्य कृतियों का परिचय दिया गया है. ____ आशा है इस अंक में संकलित सामग्री द्वारा हमारे वाचक लाभान्वित होंगे व अपने महत्त्वपूर्ण सुझावों से अवगत कराने की कृपा करेंगे, जिससे अगले अंक को और भी परिष्कृत किया जा सके। For Private and Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अध्यात्मज्ञानगंगाना ओवास्थी... आचार्यश्री बुद्धिसागरसूरिजी परमतारक विभु श्री वीरप्रभुनी अध्यात्मवाणीने आपणां पूर्वाचार्योए परंपराए वहेवरावी; आपणां हाथमां समी माटे तेमनो जेटलो उपकार मानीए तेटलो न्यून छे. आपणां पूर्वाचार्यो तत्त्वज्ञानने जाणतां हता. एटलुं ज नहि पण जाणीने ते प्रमाणे ध्यान धरतां हतां अने स्वकीय चेतननी शुद्धि करवा आंतरदृष्टिथी वर्ततां हतां अने तेओने अध्यात्मज्ञान जाळवतां घणुं वेठवू पडतुं हतुं; पूर्वे मनुष्यो मात्र सारां ज हतां एवो अभिप्राय कोईनाथी बांधी शकाय तेम नथी. प्रत्येक सैकामां विद्वानो तत्त्वज्ञान वा अध्यात्मज्ञाननो गमे ते भाषामां गमे ते उपायोथी फेलावो करे छे.कोईपणजातना वक्षनांबीजोपोतानी योग्यसंस्कारित भूमिमां उगी नीकळे छे. ते प्रमाणे अध्यात्मज्ञाननां विचारो संस्कारित अने आध्यात्मज्ञानने योग्य एवा मनष्योनां हृदयमांप्रगटी नीकळे छे, अने ते विचारो पोतानो फेलवो करवाने पोते सर्मथ बने छे. खारी भूमिमां बीजने उगवानी अयोग्यता छे तेथी खारी भूमिमां नहि उगनार बीजो खारी भूमिमां छतां पण उगी नीकळतां नथी, ने तेनो नाश थाय छे; ते प्रमाणे अध्यात्मज्ञाननां विचारो उगी नीकळवानी अर्थात् प्रगट थवानी जेओमां अयोग्यता छे तेवा मनुष्योनां हृदयमां अध्यात्मज्ञाननां विचारो प्रगटी शकतां नथी अने तेओने आपेलो उपदेश पण निष्फळ जाय छे. परस्पर विरुद्ध विचारोनुं प्राकट्य प्रतिपक्षी विचारो गमे ते सैकामां गमे त्यां परस्पर विरुद्धभाव दर्शावे छे. कोईपण काळ एवो गयो नथी तेम जनार नथी के, जेमां सम्यक्त्व अने मिथ्यात्वज्ञान तथा ते बंनेने धारण करनाराओमां परस्पर विरुद्धता न होय, पुण्यनां विचारोनां प्रतिपक्षी पापनां विचारो, समानकालमां गमे त्यां विद्यमान होय छे. अध्यात्मज्ञाननां प्रतिपक्षी विचारो जडवादीओनां होय छे नास्तिक विचारो पोताना बळ वडे आत्मिक विचारो उपर कबजो मेळववा प्रयत्न करे छे. आध्यात्मज्ञानीओना विचारो खरेखर जडवादनो नाश करवा प्रयत्न करे छे. अर्थात् जेनामां आत्मज्ञान प्रगट करे छे तेवा मनुष्यो मिथ्यात्वनां विचारोनो नाश करवानो उपदेश अने लेखनादि द्वारा प्रयत्न करे छे. अनेकान्त ज्ञान शक्ति खरेखर एकान्त मिथ्या विचारनो जगतमांथी नाश करवा प्रयत्नशील बने छे; सारांश के अनेकान्तधारक ज्ञानीओ एकान्तवादना कुविचारोनो नाश करवाने पोतानाथी बनतुं कर्या विना रहेतां नथी. जगतमां अनादिकाळथी आ प्रमाणे चाल्या करे छे अने चालशे. For Private and Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR February-2017 अध्यात्मज्ञान ज सत्य होवाथी तेनो दुनियामां स्थायीभाव होय छे. अध्यात्मज्ञान पोतानां बळथी मिथ्याविद्याने हठाववा समर्थ थाय छे. अध्यात्मज्ञान पोताना सामर्थ्य वडे कर्मोनो नाश करवा माटे समर्थ बने छे. अध्यात्मज्ञान- माहात्म्य ते ज्ञानने जे पामे छे ते ज समजी शके छे. आशा तृष्णाना बीजोनो नाश करवो होय तो अध्यात्मज्ञाननी सेवना करवी जोईए. अध्यात्मज्ञान पामीने अंतरमां समजवू जोईए के बाह्य विषयो जुठा छे. बाह्यनां करवा योग्य कार्योना अधिकार प्रमाणे करवा जोईए; एम जो न करवामां आवे तो अध्यात्मज्ञानथी पण उपाधि टळती नथी अने दुनियाना व्यवहारमा पण युवराज भद्रककुमारनी जेम बळ प्राप्त थतुं नथी. युवराज श्री भद्रककुमारचं दृष्टांत एक नगरीमां सुधन्वा नामनो एक नृपति राज्य करतो हतो. तेने एक सुमती नामनी पुत्री हती अने एक भद्रक नामनो पुत्र हतो. सुधन्य राजाने पुत्र अने पुत्री उपर अत्यंत प्रीति हती. तेणे भद्रक पुत्रने उपाध्याय पासे बहोतेर कळानो अभ्यास कराव्यो. सुमती पुत्रीने चोसठ कळानो अभ्यास कराव्यो. सुमति पुत्री वेदान्त ज्ञाननो अभ्यास करवा लागी. एक महात्मा तेना बागमां उतर्या हता. तेनी पासे सुमती दररोज ब्रह्मज्ञाननी चर्चा करवा जती हती. समतीने ब्रह्मचर्चथी घणो आनंद मळतो हतो. एक दिवस भद्रक राजपुत्र पण सुमतीनी छिद्रान्वेषणा करतो ते ज्ञानचर्चा सांभळवा लाग्यो. भद्रकने प्रतिदिन चर्चामा रस पडवा लाग्यो घणां दिवसे भद्रक ब्रह्मज्ञानमां प्रविण थयो. ते व्यवहारकुशळ न होवाथी महात्मानां आपेलां ब्रह्मोपदेशनी दृष्टिने व्यवहार कार्यमां पण आगळ करवा लाग्यो, अर्थात् व्यवहार कार्यमां पण ब्रह्मज्ञाननी वार्ताओ करवा लाग्यो. एक दिवस राजाए सभा भरीने युवराजनी पदवी उपर स्थाप्यो अने का के, हे राजपुत्र ! तुं हवे सर्व राज्यनी अने लश्करनी संभाळ राख. त्यारे भद्रके भद्रकताने आगळ धरीने का के, राज्य के राजा अथवा सैन्य सर्वे असत् छे, ब्रह्म सत्य छे अने माया असत् छे. हुं पण नथी अने तुं पण नथी. युवराज नथी ने राजा पण नथी, माटे असत् नो व्यवहार केम करवो जोईए ? राजाए का के, हे पुत्र ! आवी गांडी गांडी वातो न कर, तुं हवे युवराज पदवीनी शोभाने सारी रीते वधार ! के जेथी आगळ उपर तुं राजानो राजा बनवाने अधिकारी बनी शके. राजानां उपर्युक्त वचनो सांभळीने युवराज बोल्यो के, हे राजन् ! तमे असत् मायाने सत् मानीने गांडी गांडी वातो करो छो, जे वस्तु ज नथी तेने सत् मानीने मूर्ख बनो छो, अर्थात् तेथी तमो भ्रान्त थइ गया छो. For Private and Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR _February-2017 ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या नेह नानास्ति किञ्चन । आ श्रुतिनुं ज्ञान होत तो तमे असत् नु संरक्षण करवानुं मने कहेत ज नहि. आ अवसरहीन अने प्रस्तुत विषय पर अरुचिकर अने क्रोध करनारा तेनां वचनो सांभळीने राजानां मनमां घणु लागी आव्यू. राजाए क्रोध करीने सेवकने आज्ञा करी के, युवराजे मारुं अपमान कर्यु छे. माटे तेने दररोज पांच खासडां मारवा. पितानां हुकम प्रमाणे भद्रकने दररोज मार खावो पडतो हतो. सुमती दररोज भद्रकनी आवी अवस्था देखीने शोक करवा लागी. एक दिवस राजपुत्री सुमती पेला महात्मानी पासे ब्रह्मज्ञाननी चर्चा करती हती तेवामां राजपुत्र भद्रक पण महात्मानी पासे आव्यो अने नमस्कार करीने ब्रह्मचर्चा करवा लाग्यो. ब्रह्मज्ञाननी चर्चाथी भद्रकने घणो आनंद मळतो हतो, ए अवसरे सुमति मनमां कंई विचार करीने महात्माने विनववा लागी के - हे महात्मन् ? आपनो शिष्य राजपुत्र भद्रककुमार, आपना आपेला ब्रह्मज्ञान उपरथी दररोज पांच खासडांनो मार खाय छे. कृपा करीने हवे मारा बन्धुनु दुःख टाळो. आप ज्ञानी छो, आपनी कृपाथी मारा भाईनु दुःख टळी जशे एम आशा राखं छु अने लोकोमा जे आपना शिष्यनी हेलना थाय छे, ते आपनी ज थाय छे एम हुं मानुं छु, माटे कांइ उपाय करीने मारा भाईने खासडांनो मार पडे छे ते बंध करावो. राजपुत्री सुमतिनां आवां वचनो श्रवण करीने महात्मा बोल्या के, हे सुमति ! तेरा भ्राता पंच जुत्तेका मारा खाता है सो न्यायकी बात है. जो मनुष्य यारोकी बात गमारो में करता है उसकु... पंच जुतिका मार पडना चाहिये. ब्रह्मज्ञानकी बात ब्रह्मज्ञानके अधिकारीओ के लिये है. तेरा बन्धु ब्रह्मज्ञानकी बात व्यवहार कार्यो में करता है इस लिये उसकुं व्यवहार अकुशलता से पंच जुतेका मार पडता है. वह बराबर न्यायकी बात है. राजपत्री तम लकडी है किन्तु योरोंकी बात गमारो में नहि करती है इस लिये तं ब्रह्मज्ञानका आनंद पाती है; फिर व्यवहार दशा में भी तिरस्कार नहि पाती है. महात्माना उपरना वचनो राजपुत्री सुमतिना हृदयमां बराबर उतरी गयां अने तेथी ते राजपुत्र भद्रकने कहेवा लागी के.. भाई ! ... आ बाबतमां महात्माना वचन प्रमाणे तुं व्यवहारकुशल नहि होवाथी ब्रह्मज्ञानी होवा छतां पांच खासडानो मार खाय छे. ज्ञानीओनां अनुभवज्ञाननी वातो अधिकारी जीवो आगळ करवानी होय छे. जो तुं व्यवहारकुशळ होत तो तारी आवी दशा थात नहि. माटे हवे दुनियानी रीति प्रमाणे अंतरथी न्यारा रहीने वरतवानी टेव पाड; के जेथी ब्रह्मज्ञाननी हेलना न थाय. अनधिकारीने प्राप्त थयेलां ब्रह्मज्ञानथी, ब्रह्मज्ञाननो लोको तिरस्कार करे छे अने तेथी ब्रह्मज्ञानी गांडा जेवा दुनियामां गणाय छे. For Private and Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR February-2017 राजपुत्र भद्रकना मनमां पण आ वात उतरी अने तेणे पोतानी व्यवहार अनभिज्ञतानो दोष जाणी लीधो. राजपुत्रे महात्माने अने पोतानी भगिनीने का के हवेथी हुं व्यवहारमा कुशळ थईश अने ब्रह्मज्ञाननो तिरस्कार करावीश नहि. बीजा दिवसे राजपुत्र भद्रक राजानी सभामां गयो अने राजाने नमस्कार करीने व्यवहारमा व्यवहारकुशळताथी वर्तीने राजानी माफी मांगी अने प्रारब्धयोगे प्राप्त थयेल कार्योने बाह्यनी रीतथी करवा लाग्यो. तेथी राजा तेना उपर खुश थयो अने कहेवा लाग्यो के, भद्रक युवराजनुं गांडपण हवे चाल्यु गयु अने ते डाह्यो थयो छे तेथी तेने खासडां मारवानो हुकम बंध करी दीधो अने राज्यमां जाहेर कर्यु के सर्व प्रजाने युवराजनी आज्ञा प्रमाणे वर्तवू. युवराज दुनियाना कार्यो दुनियाना व्यवहार प्रमाणे करवा लाग्यो तेथी ते सुखी थयो. युवराज भद्रककुमारना दृष्टांतथी अध्यात्मज्ञानीओ घणो सार खेंची शके तेम छे. अध्यात्मज्ञाननी वात गमारोमां करवाथी गमारो अध्यात्मज्ञान समजी शकतां नथी अने उलटुं तेओ अध्यात्मज्ञानीओने खासडानो मार मारवा जेवं करे छे. व्यवहारकुशल ने शुष्कतारहित अध्यात्मज्ञानीओ व्यवहारमा व्यवहार प्रमाणे पोताना अधिकारे वर्ते छे. अने निश्चयथी अध्यात्मस्वरूपमां रमणता करे छे तेथी दुनियामां तेओ डाह्या गणाय छे. केटलाक शुष्क अध्यात्मीओ व्यवहार कुशलताना अभावे ज्ञाननी वार्ताओ गमारोमां करीने अध्यात्मज्ञाननी हांसी करावे छे. पूज्यपाद उपाध्याय भगवंत श्रीमद् यशोविजयजीनी आ वाणीनो परमार्थ हृदयमां धारण करीने अध्यात्मज्ञानीओ वर्ते तो अनेक मनुष्योने तेओ अध्यात्मज्ञाननो आस्वाद चखाडी शके. अध्यात्मज्ञानीओनी बुद्धि सूक्ष्म होवाथी तेओ आत्मामां ऊंडा उतरी जाय छे. तेथी तेओने व्यवहारमा रस पडतो नथी एम बने छे. तो पण तेओए जे-जे अवस्थामां अधिकारभेदे उचित व्यवहार होय तेने न छोडवो जोइए. ___अध्यात्मज्ञानीओए पण अध्यात्मज्ञान आखी दुनियामां प्रसरे एवो ज्यां भाव होय त्यां सुधी तेओए व्यवहारमार्गने अमुक अधिकारपणे अवलंबवो जोइए. खावानां, पीवानां, लघुनीति अने वडीनीति तथा निद्रा अने आजीविकादि कृत्यो ज्यां सुधी करवा पडे त्यां सुधी तेओए व्यवहार धर्मक्रियाओने पण अमुक दशापर्यंत करवी जोईए. अध्यात्मज्ञान खरेखर अमृतरस समान छे. अध्यात्मज्ञानरूप अमृतसरसनुं पान करवाथी जन्म-जरा अने मरणना फेरा टळे छे. श्रीआत्मानंद प्रकाश ई.स. १९९९ अंक ९ मांथी साभार For Private and Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Beyond Doubt Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (Countine...) Acharya Padmasagarsuri Thus, the great scholar Vyaktabhuti also along with his 500 students accepted Lord Mahavira as his Philosopher and guide and got immediately initiated like his brothers. The Lord gave him the title of the fourth Ganadhara and imparted the knowledge of Utpada-Vyaya and Dhruvya i.e. Tripadi. Like the first three Ganadharas, Vyaktabhuti too constructed the Dvadashangi and thus made his life meaningful. The fifth great scholar Sudharmaswami, followed his brothers along with his five hundred disciples to the Samavasarama. His doubt as revealed by Lord Mahavira was on the basis of the vedic verse “पुरूषो वै पुरूषत्वमश्नुते पशुः पशुत्वम् । ” The Lord said, "Oh Sudharma, the above vedic verse, is the base of your doubt. Your doubt is regarding the birth one takes after this life. You have interpreted the verse to be that a human being will be born as a human being in his next birth and an animal will be born as an animal only in the next birth. When a maize seed is sown one reaps maize crop and when you grow some other seed you yield the respective crop. Mango seed will yield mango fruit and lemon seed yields lemon fruits. But in another text of the vedas it is said, “शृगालो वै जायते यः स पुरूषो दह्यते ।” i.e. the person who is being burned will be born as a jackal in his next birth. Both the above vedic statements contradict each other. Both the statements cannot be true. If such is the case, how is the truth to be established? Oh, Sudharma, isn't this your doubt?" Sudharma, the fifth scholar in the order of the eleven scholars said, "Yes Oh Lord! what you say is indeed true. I am unable to understand that when a man can be born as an animal, why is it said that a man after death, in his next life will be born as a man only and an animal will take birth as an animal only. What is the reason that the vedas have propounded such contradictory theories? What is the relation between the former and the latter statements of the Vedas? Please explain this to me and clarify my doubt” For Private and Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR February-2017 There upon Lord Mahavira said, “Oh Sudharma! “that à y hardlara uz: yra l” The meaning of this vedic sentence is that if a man lives a life embelished with virtues like simplicity, humility, contentment, etc. he will take birth in the human form and if an animal does not rise above cruelty and laziness will be born again as an animal in its next birth. Definitely this statement does not mean that a man will be born as a man only and an animal will take the same form again. If this would have been true it would not have been said that, “the person who is being burned will be born as a jackal in his next birth.”Hence it stands proved that a man depending upon his good and evil deeds can be born either in the human kingdom or in the animal kingdom respectively. “As one sows so one reaps”. The kind of deeds you perform in this birth, will be the deciding factor of the kind of birth you take next human or animal. Hence the vedic verse has been explained to inspire people tolead a noble life, if they are desirous of human birth; otherwise they are bound to be degraded to the animal kingdom”. In this. way Sudharma was the fifth Ganadhara to be initiated by Lord Mahavira on the same day. Like wise his 500 disciples too followed his footsteps. After receiving the knowledge of the Tripadi he too constructed the Dvadashangi scriptures. The next to follow the holy order of the Ganadharas was the sixth great scholar Manditaji. He came to the Samavasarana along with his 350 disciples and his doubt was whether bondage of the soul to the karmas and freedom from them were true or false. The Lord said “Oh Mandita! The basis of your doubt is the vedic verse ____ “स एष विगुणो विभुर्न बद्ध्यते संसरति वा मुच्यते मोचयति वा।" i.e. the soul which is beyond all gunas does not get bondaged with karma, does not take birth, again and again, also does not get liberation and does not favour anyone to be liberated. Hence you have concluded that bondage and liberation - those realities do not exist at all." (Countinue...) For Private and Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पींडवाडानी धातुप्रतिमानां अप्रगट लेखो ___ संपा. गणि सुयशचंद्रविजयजी राजस्थान एटले शिल्प स्थापत्योनी भूमि. अहीं नाना-नानां गामडामां पण कोइने कोइ विशेषता जोवा मळे ज. अमारां राजस्थान विहार दरम्यान अमे अहीं घणु बधुं निहाळ्यु. जेमां देलवाडा, सिरोही, पींडवाडा, सादडी, बीकानेर तथा जेसलमेर जेवां प्रमुख स्थळोमां तो अमने घणु शीखवा जाणवा मळ्युं. ___ समग्र विहार दरम्यान अमारो सौथी वधु आनंदनो दिवस रह्यो पीडवाडानी स्थिरतानो. आम तो अहीं एक दिवसनुं रोकाण हतुं. प्रायः ५ जेटलां जिनालयो तेमांय विश्वविख्यात वसंतगढ शैलीनी ८मी सदीनी धातुनी २ काउसग्गस्थ प्रतिमानां दर्शन करवानो मुख्य उद्देश हतो, पण पीडवाडा पहोंच्या बाद ज्यारे मुख्य जिनालयमा दर्शन करवा गया, त्यारे जिनालयनी विशाळता अने आरसनी प्रतिमाजीओनी भव्यता अमने खुब गमी गई. तेमांय सौथी वधु आकर्षण त्यांनी धातुप्रतिमाओवें थयु. अमने अहीं प्रायः १०मी थी १५मी सदीनी वसंतगढ शौलीनी प्रतिमाओ तथा अन्य देवदेवीनां कुल मळी ७० जेटलां धातुनां बिंबो जोवां मळ्यां. ट्रस्टीओने प्रतिमाजीनां लेख अंगे पृच्छा करतां तेओ पासे के अन्य कोई पण स्थानिक व्यक्ति पासे प्रतिमाजी संबंधी विगतो के लेख कशुं ज न हतुं. पू.गुरु आ.श्री विजयसोमसुंदरसूरिजी म.सा. तथा पू.आ.श्री विजयनिर्मलचंद्रसूरिजी म.सा. ने ते अंगे जाण करतां तेमणे स्थानिक ट्रस्टीश्री मनिषभाई तथा अन्य ट्रस्टीश्री ललितभाईने बोलावी प्रतिमाजीओनी भविष्यनी सलामतीने अनुरूप प्रतिमाना लेख विगेरे विगतो उतारवानुं तेमज फोटोग्राफी (आगळ पाछळ बन्ने बाजु) करावी लेवा जणाव्यु. ट्रस्टीओए ते अंगे तुरंत ज मिटींगमां निर्णय लई लेख उतारवानी व्यवस्था अमने करावी आपी. एमांय खास चल प्रतिष्ठित छतां चोरी ना थाय तेथी सीमेंटमां फीट करी दीधेली, केटलीक प्रतिमाजीओनी सीमेंट फरी उखाडी अमारी प्रतिमाजीनां पाछळनां भागथी लेख उतारवानी मूंझवण तेमणे दूर करी. _भले पोतार्नु ज कार्य होय छतां साव अपरिचित गुरु भगवंत माटे आवी व्यवस्था करावी आपवी ए पींडवाडा संघनी उदारता ज कहेवाय. खरेखर आ उदारता माटे श्रीसंघनी जेटली पण अनुमोदना करीए तेटली ओछी कहेवाय. अहीं अमे कुल ७० बिंबोनी विगतो तथा लेखो उतार्यां. केटलाक लेखो तो १० For Private and Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR February-2017 ११मी सदीनां हतां जे वांचवां खरेखर अघरां हतां. छतांय पूरा प्रयत्ने अमे ए लेखो तैयार कर्यां, ते लेखोनुं प्रकाशन करतां पूर्वे जूनां लेखसंग्रहमा आमांनो कोई पण लेख छपायो छे के नहिं? तेनी तपास करतां घणां लेखो आबू लेखसंग्रह (भाग-५)मां इतिहासप्रेमी मुनिश्री जयंतविजयजी द्वारा सामान्य फेरफार साथे प्रकाशित करायेलां जोवां मळ्यां. अमारी फरज प्रमाणे हवे ते बे पाठमांथी शुद्ध वाचना तैयार करवी जोईए पण लेखोनी नवी फोटोग्राफी अमारी पासे न होवाथी ते काम हाल पूरतुं स्थगित करी आबू लेखसंग्रहमां अप्रकाशित एवां १० लेखोने अहीं वाचकोनां अध्ययन माटे प्रकाशित करीए छीए. प्रान्ते १०-११ मी शताब्दीनां लेखो वांचवानो अमारो प्रथम प्रयास छे. तेथी लेखोमां कोई पण क्षति रहेवा पामी होय तो विद्वानोने अमारुं ध्यान दोरवा विनंती. प्रतिमा लेखो एकलतीर्थी सं० १२३८ माघ वदि ५ रवौ श्री संडेरकगच्छे श्रीजसोभद्रसूरि..... २. पार्श्वनाथ भगवान (त्रितीर्थी) ॥६॥देवधर्मोऽयं उयंकसन्निवेशिज देवदोल्यां (?) द्रोण श्रावकेन सं० १(०)३६ श्रावण सुदि ४ जीयदपुत्रेण पार्श्वनाथ भगवान (त्रितीर्थी) ॥६॥ देवधर्मोऽयं यक्ष श्रावक जीयदपुत्रेण कारिता जिनत्रयः । सं० १(०)३६ श्रावण (सु?)वदि ४ सं.?...... कीयगच्छे....कारिता ५. - (चोविशी) सारस्वती। पार्श्वनाथ भगवान (एकलतीर्थी) सं० ११५८....... क व. ३ नाणकगच्छे जसमति कारिता। For Private and Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra SHRUTSAGAR ७. ८. ९. १०. www.kobatirth.org 12 पार्श्वनाथ भगवान (एकलतीर्थी) अजिदादेवि (एकलतीर्थी) लखमसिरि सम. कारिता प्रतिष्ठिता श्रीशांतिसूरिभिः । (त्रितीर्थी) ॥८०॥ श्रीनाणकीयगच्छे देवनागेन दाहडेन (का.) पार्श्वनाथ भगवान (त्रितीर्थी) चंद्रकुले लाल 回 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir February-2017 प्राचीन साहित्य संशोधकों से अनुरोध श्रुतसागर के इस अंक के माध्यम से प. पू. गुरुभगवन्तों तथा अप्रकाशित कृतियों के ऊपर संशोधन, सम्पादन करनेवाले सभी विद्वानों से निवेदन है कि आप जिस अप्रकाशित कृति का संशोधन, सम्पादन कर रहे हैं या किसी पूर्वप्रकाशित कृति का संशोधनपूर्वक पुनः प्रकाशन रहे हैं अथवा महत्त्वपूर्ण कृति का अनुवाद या नवसर्जन कर रहे हैं, तो कृपया उसकी सूचना हमें भिजवाएँ, इसे हम श्रुतसागर के माध्यम से सभी विद्वानों तक पहुँचाने का प्रयत्न करेंगे, जिससे समाज को यह ज्ञात हो सके कि किस कृति का सम्पादन कार्य कौन से विद्वान कर रहे हैं? यदि अन्य कोई विद्वान समान कृति पर कार्य कर रहे हों तो वे वैसा न कर अन्य महत्त्वपूर्ण कृतियों का सम्पादन कर सकेंगे. For Private and Personal Use Only निवेदक सम्पादक (श्रुतसागर) Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीरावला पार्श्वनाथ स्तवन संपा. अश्विन बी. भट्ट कृति परिचय प्रस्तुत कृति संस्कृत भाषामय ३३ पद्यों में निबद्ध जीरावला भगवान् पार्श्वनाथ का स्तवन है। वंशस्थछन्द में ग्रथित भक्तों के लिए मनोहारी स्तवन है। संभवतः पांचसौ वर्ष प्राचीन व प्रायः अद्यपर्यन्त अप्रकाशित यह रचना है। इस कृति में जीरावला पार्श्वनाथजी की आराधना का सुन्दर वर्णन किया गया है। जैनशासन में भगवान् पार्श्वनाथ के विविध नामों में जीरावला पार्श्वनाथ का एक विशिष्ट स्थान है। सामाजिक, व्यावहारिक व धार्मिक विविध प्रसंगों पर भक्तजन इनकी भाववाही स्तुति करते हैं। इस आराधना का विशिष्ट महत्व है। इसमें मुख्य रूप से श्रीपार्श्वनाथ भगवान की महिमा वर्णित है। दुर्लभ मनुष्यजन्म प्राप्त करके जीवन में विशुद्धभावपूर्वक श्रीजीरावला पार्श्वनाथजी की आराधना करना विवेकी आत्माओं का कर्तव्य है। इसमें उपमा अलंकार के द्वारा भगवान पार्श्वनाथ के माहात्म्य को दर्शाया गया है। व्याकरण की दृष्टि से विध्यर्थ कृदन्त के प्रयोग से श्री पार्श्वनाथ भगवान की आराधना किस तरह से करनी चाहिए उसका भी सुंदर निरूपण किया गया है यथा"दृशां सहस्रैः परिवीक्षणीयं गिरां सहस्रः परिकीर्तनीयम् । सहस्रपतैः परिपूजनीयं सहस्रभावैः परिचिन्तनीयम्।” आदि श्लोक। उसी तरह शब्दानुप्रास अलंकार (जैसे - “कलंकलंकैरकलंकितं कुलम्") के प्रयोग से इसका मनोहारी राग से गायन किया जा सकता है, जिससे भक्तिभाव दृढ़ होता है। कर्ता परिचय इस कृति के अंतिम प्रशस्तिपद्य में कर्ता के रूप में आचार्य श्री जयकीर्तिसूरिजी का उल्लेख है। इस कृति में रचनावर्ष संबंधी अन्य कोई उल्लेख स्पष्टरूप से नहीं मिलता है। प्रतिलेखन पुष्पिका अंतर्गत प्रतिलेखक ने “अंचलगच्छनायक श्रीजयकीर्त्तिसूरिविरचितं...” उल्लेख किया है। साथ ही जैन धर्मनो प्राचीन इतिहास ग्रंथ के आधार से वे अंचलगच्छ में हुए आचार्य श्री मेरूतुंगसूरिजी के सच्छिष्य थे एवं आचार्य श्री जयकेसरसूरि व आचार्य श्री शीलरत्नसूरि के गुरु थे। इनका जन्म वि.सं १४३३, दीक्षा वि.सं १४४४, सूरिपद वि.सं १४६७ और गच्छाधिपति पद वि.सं 1 लेखक- पं.हीरालाल हंसराज, जिनशासन आराधना ट्रस्ट, वि.सं.-२०६१, आवृत्ति-२, पत्रांक-२९. For Private and Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 14 SHRUTSAGAR February-2017 १४७३ में प्रदान किया गया था। इनका कालधर्म वि.सं १५०० में हुआ। हस्तप्रत परिचय यह हस्तप्रत आचार्य श्रीकैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर- कोबा के ग्रन्थभण्डार में प्रत संख्या ४४१६१ पर विद्यमान है। इस हस्तप्रत में कुल दो पत्र हैं। जिसमें दोनों ओर कृति लिखी हुई है और दोनों पत्रों में जीरावला पार्श्वनाथजी के दो स्तवन लिखे हुए हैं। उनमें प्रथम पत्र पर यह कृति है। इसकी लिपि जैनदेवनागरी है। ___ यद्यपि प्रत के अन्त में प्रतिलेखक ने अपना नाम, लेखन संवत्, स्थलादि का उल्लेख नहीं किया है। परन्तु लिखावट एवं कागज की स्थिति को देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि यह प्रत लगभग १८वीं सदी में लिखी गई होगी। इस प्रत की लंबाई-चौडाई २६.५०x११.०० है। इस प्रत के प्रत्येक पत्र में १५ पंक्तियाँ लिखी हुई मिलती हैं तथा प्रत्येक पंक्ति में लगभग ६१ से ६२अक्षर लिखे गये हैं। प्रत की दशा श्रेष्ठ है, परन्तु अधिक उपयोग के कारण किनारी खंडित है। पत्र के बीच में मध्यफुल्लिका वापी लाल गोलचंद्र के साथ अलंकृत किया है एवं पत्र की ऊपरी पंक्तियाँ कलात्मक मात्रा में लिखी गई हैं, अक्षर सुंदर हैं, गेरु लाल रंग से विशिष्ट पाठ व श्लोक संख्या को दर्शाया गया है तथा पत्र के दोनों ओर पार्श्व लाल गोलचंद्र है। पार्श्वरेखा भी लालरंग से की हुई है । हाल ही में संपन्न हुई जीरावला पार्श्वनाथ भगवान् की भव्य प्रतिष्ठा के पावन अवसर पर जीरावला पार्श्वप्रभु के भक्तों के लिए यह स्तवन सादर समर्पित है। ॥जीरावला पार्श्वनाथ स्तवनम् ॥ ॥६॥कल्याणकल्पद्रुमभद्रसालं सौभाग्यसत्कीर शु(सु)भद्रसालम् । जीराउलिस्थानसरोमरालं पार्श्वप्रभुं नौमि गुणैर्विशालम् ॥१॥ न वासवैर्वास्तवसंस्तवैर्भवा शक्येत संस्तोतुमहन्तु किं स्तुवै(वे) । गन्तुं नभोऽन्तं न बलं नभोमणेस्तल्लङ्घने कीटमणेः कथा वृथा भनक्ति ते भक्तिरशं(सं) दिवानिशं सेवारसं तेन जनो न मुञ्चति । न वञ्चति श्रीरपि तं तथावतं सुधारसैः सिञ्चति शासनेश्वरी ॥३॥ गणागुणानां गणनां न यान्ति तवेश लेशग्रहणेऽपि तेषाम्। दुःखक्षयः स्यान्न सुधोदधेः किं पानेन बिंदोरपि निर्विषत्वम् इलातले व्योमतले रसातलेऽखिलैः खलैर्न सा स स्खलिता तव प्रभा। खद्योतपोतैः प्रचुरैरपि प्रभो न हन्यते व्योममणेर्महन्महः ॥२॥ ॥४॥ ॥५॥ For Private and Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR 15 दृशां सहस्रैः परिवीक्षणीयं गिरां सहस्रैः परिकीर्त्तनीयम् । सहस्रपत्रैः परिपूजनीयं सहस्रभावैः परिचिन्तनीयम् सहस्रशाखासमसामगेयं सहस्रनेत्राद्भुतभागधेयम् । सहस्रसंख्यातिगनामधेयं सहस्रसंख्यातिशयैरजेयम् सहस्ररश्मेरधिकप्रतापं स्फ(स्फु)टासहस्रैः स्फुटमस्ततापम् । ज (जा) नुः सहसैर्बहुभिर्दुरापं श्रेयः सहस्रैस्तु भवन्तमापम् ||८|| (त्रिभिर्वि()) त्वन्नाममंत्राक्षरजापलीनः प्रलीनपापा न भवन्ति दीनाः । जनारुजाभिर्जिन नैव जीनाः स्युः प्रत्युत स्पष्टतया नवीनाः यंत्राश्च मंत्रामणयो महौषधी गणास्तथाराधित दैवतव्रजाः । समीहितं पूरयितुं न सर्वतः शक्ताः स्वभक्तेषु यथा त्वमीश्वरः तावज्जरा दुःखभरा रुजा स्युस्तव स्मृतिर्यावदुदेति नान्तः । तावत्तमो यावदग्रतेजा हेलिर्न पूर्वाचलमौलिमेति For Private and Personal Use Only February-2017 ॥६॥ 11611 11811 118011 ॥११॥ न क्लेशलेशः किल ते जिनेश ध्यातुः प्रदेशाक्रमणं करोति । सुपर्णपक्षस्थजनं भुजंगो न द्रष्टुमीष्टेऽप्यतिदुष्टदृष्टिः कलौ किलौजस्तव केनमेय ममेय माहात्म्य महात्मनापि । मध्ये गृहं नाथ नभः समस्तमानेतुमीशः क्वचनापि कोऽपि लोकाग्रसंस्थेऽपि भवत्यधीश तव त्रिलोक्यां महिमानमा (मे) ति । पूर्वाद्रिशृंगाग्रजुषित्विषीशे सर्वत्र विस्फूर्जति तत्प्रभोर्म्मिः पद्मावतीयुग् धरणोरुगेन्द्रः प्रकृष्टनागाष्टकुलाधिनाथः । गतान् दिगन्तेऽपि तवैकभक्तान् सर्वे हितार्थैः कुरुते कृतार्थान् त्वन्नाम सारस्वतसिद्धविद्यया कला कलापाः सकला कलावपि । स्फुरन्ति भानोः प्रभया प्रगे प्रभो पद्मान्यवश्यं विकसन्ति हि क्षणात् ॥१६॥ मातापिताबन्धुसुहृत्सुरासुरानहीश्वरा मोचयितुं भवारितः । निवारित क्लेश जिनेश पेशलोपदेशलेशस्तव मोक्षणक्षमः स्वर्गान्निसर्गाद्विगतोपसर्गान्निरर्गलानन्दसुखोऽपवर्गः। त्रिवर्गमार्गादपरोऽस्य दुर्गमार्गस्तवाभूत्सुगमः सुलम्भः कलंकलंकैरकलंकितं कुलं बलं बलारेर्विदधत् कुतूहलम् । चेतश्च गंगाजलतः समुज्ज्वलं तवैव भक्तेरिति निस्तुलं फलम् पीयूषमिश्रा अतमस्तमिश्रा (स्रा) घस्रा अजस्रं तव भक्तिभाजां । भवन्ति सिद्धाञ्जनदृग् जनानां निधानलाभात् सुखदा सदा श्रीः ॥१२॥ ॥१३॥ ॥१४॥ ॥१५॥ ॥१७॥ ॥१८॥ ॥१९॥ ॥२०॥ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR 16 ये सर्वभावावगमं त्वदागमं शृण्वन्ति वृण्वन्ति हितान्महाश्रियः । नष्टोऽपि कर्माणि तदात्मनो जिना वृण्वन्ति अण्वन्ति मतां व्रजन्ति च ॥ २१॥ घोरोरगव्याघ्रतरक्षुमुख्य दुःस्वापदाकीर्णमरण्यमीश । भवद्विवाहोत्सवसाधुसौधं भवेद्भवद्ध्यानजुषां जनानाम् भवन्तमन्तः स्मरतां स्फुरन्ति संविद्विशेषाः स्वयमप्यशेषाः । तेभ्यस्ततस्ते परमस्वरूपं ज्ञास्यन्त्यवाप्स्यन्ति महोदयं च किं स्वर्गवीरत्नतरूपमानमज्ञानभावाद्वदते जडास्ते । एकान्तशुद्धांतररंगरक्ते भक्ते तवस्यादुपमेदमी (नी) या अनंतसंवित्सुखशक्तिदर्शनोर्जितं जितारिं जगतामधीश्वरम् । त्वमेव देवं शरणं श्रितोस्मि तद्विधेहि वात्सल्यमतुल्यमंगलम् February-2017 न प्रेतभूतोऽग्रपिशाचशाकिनी सुख्या असौख्याय तवेश संस्मृतेः । दुष्टा अपि प्रत्युत तत्त्व ते प्रियं महारसे संवलितं विषं सुधा तवेश सिद्धान्तसुधारसं ये पिबन्ति तेषामजरामरत्वम् । न दुर्लभं सिद्धरसप्रयोगादयोऽपि सम्यक् कनकं न किं स्यात् अनंतकालेन निगोदमध्यान्निर्गत्य गत्यन्तरयोनिकोटौ । भ्रमं भ्रमं भूरि भवश्रमेण भग्नो विलग्नोऽस्मि तवाङ्घ्रियुग्मे तवोपलब्ध्या विकलाः कलां परां मन्वन्ति मन्वंतरकोटिभिर्न हि । प्रदीपरत्नौषधितारकेन्दुभिः सर्वैर्विनाकं न दिनस्य दर्शनम् तपोऽतितप्तं नितरां च जप्तं क्षिप्तं वपुः कष्टकरक्रियाभिः । मनोऽपि गुप्तं विहितं हितायाऽधुनैव जातं सफलं तवाप्तौ अनंतजन्मार्जितकर्मसंचयंस्त्वद्ध्यानमेव क्षणुते क्षणादपि । निःपाप(निष्पाप) निर्वापयितुं महावनोद्भवान्दवान् पुष्करवारिदः प्रभुः ||२८|| न सप्त सप्तौ न च तच्छशाङ्के नक्षत्रवर्गेन न तारकौघे । न सप्तजिह्वे न च रत्नराशौ यत्केवलज्योतिरिह त्वयीशे For Private and Personal Use Only ॥२२॥ ॥२३॥ ॥२४॥ ॥२५॥ ॥२६॥ ॥२७॥ ॥२९॥ 113011 ॥३१॥ ॥३२॥ एवं दैवतवृंदवंदितपदाम्भोजः प्रजाप्यायकः श्रीजीराउलि जीवनं जिनवरः श्रीपार्श्वविश्वाधिपः । भक्त्या श्रीजयकीर्त्तिसूरिगुरुभिर्नूतः प्रभूतप्रभः पूतात्मा तनुतां सतामभिमता कल्याणकोटीश्चिरम् ॥३३॥ ।। इति श्री अंचलगच्छनायक श्रीजयकीर्त्तिसूरिविरचितं श्रीजीराउला श्रीपार्श्वनाथ स्तवनम् ।। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विद्धगोष्ठीसंवाद अनु. राहुल आर. त्रिवेदी मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। जन्म लेने के बाद समयानुसार अनेक गुणों को धारण करता है। वह अपने विविध गुणों से जाना जाता है। उसमें कम से कम एक ऐसा गुण होना चाहिए जो समाज के लिए उपयोगी हो सके। इस हेतु मनुष्य में विद्या, तप, दान, ज्ञान, शील, गुण, और धर्म इन मुख्य गुणों का होना आवश्यक है। इन गुणों में परमार्थ का भाव भी विद्यमान रहता है। सृष्टि के हर एक जीव में अलग-अलग गुण पाये जाते हैं इसलिए उपर्युक्त गुणों को धारण करना ही जीवन की सार्थकता है। __ प्रजापालक एवं विद्यारसिक महाराजा भोज से भला कौन अपरिचित होगा? जिनकी सभा सदैव महाकवि कालिदास, धनपाल, धनंजय जैसे विद्वानों से विभूषित रहती थी। जनश्रुति प्रसिद्ध है कि महाराजा भोज के राज्य में कोई मूर्ख नहीं था। अलग-अलग तरीकों से प्रयासपूर्वक ढूँढे जाने पर भी उन्हे कोई मूर्ख नहीं मिला था। इस संदर्भ में एक प्रसिद्ध श्लोक है खादन्न गच्छामि हसन्न जल्पे गतन्न शोचामि कृतन्न मन्ये । द्वाभ्यां तृतीयो न भवामि राजन् किं कारणं भोज भवामि मूर्खः।। अर्थात् खाते हुए जाता(चलता) नहीं हूँ, हँसते हुए बोलता नहीं हूँ, बीते समय के लिए सोचता नहीं हूँ, किये गए कार्य की स्वप्रशंसा करता नहीं हूँ और दो लोगों के संवाद में बोलता नहीं हूँ। हे भोजराज ! आखिर किस कारण से मैं मूर्ख होता हूँ। यहाँ कवि धनपाल से संबद्ध एक प्रसंग कुछ ऐसा ही है जो पंचतंत्रादि की भाँति ही रोचक है। लघु संवादरूप इस कृति का प्रारंभ कवि धनपाल से हुआ है। ये अपने समय के प्रख्यात विद्वान थे। इनका समय वि.सं. ११ वीं सदी माना जाता है । मेरुतुंगाचार्य के प्रबंधचिंतामणि नामक ग्रंथ में धनपाल का चरित्र आया है। ये संकाश्य गोत्रीय ब्राह्मण सर्वदेव के पुत्र थे। प्रारंभ में धनपाल जैनधर्म के विरोधी थे, किन्तु बाद में जैनधर्म का अध्ययन कर वे जैन बन गए । कवि धनपाल भोजराज के सभापंडित थे। इनकी मुख्य रचनाएँ हैं- पाईयलच्छीनाममाला, तिलकमंजरी और ऋषभपंचाशिका। पाईयलच्छीनाममाला उनका प्राकृतकोश है, जो प्राकृत का प्राचीन कोशग्रंथ है । इनका For Private and Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 18 SHRUTSAGAR February-2017 संस्कृत ग्रंथ तिलकमंजरी है। यह ग्रंथ राजा भोज को अत्यंत प्रिय था। धनपाल की भाषा का गौरव करते हुए पंडितों का कथन यहाँ सत्य ही सिद्ध होता है कि- “धनपाल के सरस वचन और मलयगिरि के चंदन से भला कौन संतुष्ट न होगा?” पूर्वकाल की बात है मालवदेश की धारा नगरी में विद्यानुरागी भोजराज की सभा में ५०० पंडितप्रवरों के साथ विद्यागुणगोष्ठी हुई। उस सभा में पंडित धनपाल ने एक ही श्लोक के द्वारा मनुष्यजीवन का लक्ष्य बताया था । यदि मनुष्य ने विद्या, तप, दान, धर्म, ज्ञान, शील आदि गुणों में से किसी भी एक गुण को धारण नहीं किया हो तो वह इस मर्त्यलोक में भाररूप होकर मृग आदि से भी गया बीता होता है। यहाँ पर कवि ने विद्याकौशल्य के द्वारा प्रसंगोचित क्रमशः मृग, गाय, तृण, वृक्ष, धूल, श्वान, गर्दभ, कौवा, ऊंट और भस्म इन १० दृष्टांतों के द्वारा यह सिद्ध किया है कि अनुपयोगी मानी जानेवाली वस्तुएँ भी अपने किसी न किसी गुण के कारण समाज के लिए उपयोगी होती हैं, जब कि निर्गुणी व्यक्ति किसी काम का नहीं होता, उसकी तुलना पशु या धूल आद से भी नहीं हो सकती। अन्योक्ति/व्यंगोक्ति के माध्यम से इस तथ्य को विद्वत्तापूर्वक तार्किक रूप से प्रतिपादन करने का सफल प्रयास किया है। इस कृति के अनुवाद हेतु मूल संस्कृत में प्रकाशित मुद्रित पुस्तक- (१) जैन पाठशाला-अहमदाबाद, (२) जैना पब्लिशिंग कंपनी-दिल्ली एवं स्थानीय हस्तप्रत भंडार आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर की (३) ३२६५५ व (४) ४९७२४ इन दो हस्तप्रतों का भी प्रसंगोपात उपयोग किया गया है। इन चार सन्दर्भो के उपयोग में यथास्थानों पर प्राप्त पाठांतरों के लिए अग्रलिखित संज्ञाएँ दी गई हैं। यथा- मुद्रित पुस्तक क्रमांक-१ हेतु 'क' संज्ञा, क्रमांक-२ के लिए 'ख, क्रमांक-३ में ह.प्र.नं. ३२६५५ को 'ग' एवं ह.प्र.नं. ४९७२४ को 'घ' संज्ञा दी गई हैं। संस्कृतानुरागियों के लिये तो यह संवाद रोचक है ही, किन्तु इस दृष्टांत को पढ़कर जनसामान्य भी इस मूलकथा के उद्देश्य को समझने में सफल हो एवं संस्कृत कथासाहित्य में छिपे हुए उपदेशप्रद ज्ञान को जानने में अपनी अभिरुचि बढा सके, इसलिये सरल हिन्दी भावानुवाद सहित यह प्रसंग प्रस्तुत किया जा रहा है। श्रीभोजराजसभायां, पंचशतपण्डितपूरितायां, विद्यागुणगोष्ठ्यां जायमानायां। श्रीधनपालपंडितेन, जिनधर्मरतेन, राज्ञोऽग्रे प्रोक्तम् श्रीभोजराज की सभा में पाँचसौ पंडितों के साथ आयोजित विद्यागुण गोष्ठी में पंडितश्रेष्ठ जिनधर्मानुरागी श्रीधनपाल ने राजा के समक्ष कहा For Private and Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR 19 ___ February-2017 येषां न विद्या न तपो न दानं, 'ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः । ते मर्त्यलोके भुवि भारभूता, मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ॥ जिन्होंने न विद्या पढी है, न तप किया है, न दान दिया है, न ज्ञान का उपार्जन किया है, न शील का आचरण किया है, न उत्तमगुण सीखा है, न ही धर्म का अनुष्ठान किया है (न ही जिसके पास धर्मबुद्धि है) वे इस लोक में व्यर्थ ही पृथ्वी पर भाररूप बनकर मनुष्य के रूप में मृग के समान विचरण करते हैं । इति पंडितवचनं श्रुत्वा मृगः प्राह- मम ईदृग् नरोपमानं कस्मादुच्यते ? यतः - __ स्वरे शीर्ष जने मांसं, त्वचं च ब्रह्मचारिणे। __शृंगं योगीश्वरे दद्यात्, मृगः स्त्रीषु सुलोचने ॥ इस प्रकार पंडित के वचन को सुनकर मृग ने कहा कि गुणविहीन भाररूप मनुष्य की मेरे साथ उपमा कैसे योग्य है, क्योंकि मुझमें ताल स्वर-रागयुक्त संगीत पारखी का गुण होने के कारण संगीत की ध्वनि कानों में पड़ते ही सिर घुमाकर ध्यान से सुनने लगता हूँ, मेरे कोमल मांस का लोग आहार करते हैं, चमड़े को ब्रह्मचारी लोग धारण करते हैं, मंत्र-तंत्र को जाननेवाले योगी मेरे शींग का उपयोग करते हैं और सुंदर रूपवती स्त्रियों को मृगनयनी सुलोचना की उपमा दी जाती है तो फिर मैं कैसे भाररूप या व्यर्थ हूँ? तेन ममैवंविधमनुष्योपमानं न युक्तम् अतः मनुष्य के लिए इस प्रकार मेरी उपमा योग्य नहीं है।" पुनरपि पण्डितेनोक्तं- येषां न विद्या० मनुष्यरूपेण 'चरन्ति गावः ॥ तच्छ्रुत्वा गौराह 'तृणमपि दुग्धं धवलं, 'गेहस्य मंडनं परमम्। रोगापहारि मूत्रं, पुच्छं 'सुरकोटिसंस्थानम् ॥ तब पंडित ने पुनः कहा कि जिस व्यक्ति में विद्यादि गुण न हों, वह मनुष्यरूप में पशुओं के समान विचरण करता है, इस प्रकार पंडित का वचन सुनकर गाय ने कहा, 1 (क) न चापि शीलं न च धर्मबुद्धिः । 2 (ग) पशवश्चरन्ति। 3 (ख) तृणमद्मि पयो धवलं। 4 (क) छगणं गेहस्य मंडनं भवति । 5 (ख) सुरकोटिसम्भवस्थानम् । For Private and Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 20 SHRUTSAGAR February-2017 “घास खाने पर भी अमृत समान शुद्ध-श्वेत दूध देती हूँ, मेरा गोबर घर लीपने में काम आकर घर की शोभा बढ़ाता है, गोमूत्र रोगों को दूर करता है और पूंछ में अनंत देवों का वास है.” तेनैतदप्युपमानं न युक्तम्- अतः ये भी उपमा योग्य नहीं है. ततोऽन्येनोक्तम्- येषां न विद्या० मनुष्यरूपेण तृणानि मन्ये ॥ तच्छ्रुत्वा तृणजातिराह ___ गवि दग्धं रणे ग्रीष्मे, वर्षाहेमंतयोरपि। नृणां त्राणमहं यत् स्या, तत्समत्वं कथं मम ॥ यह सुनकर धनपाल ने कहा जिस व्यक्ति में विद्यादि गुण न हों, वह मनुष्यरूप में तृण(घास) के समान माना जाता है। यह सुनकर तृणसमूह ने कहा- मेरा उपयोग करने पर गाय दूध देती है। ग्रीष्म ऋतु में चलते समय पाँव जलने से, वर्षा ऋतु में कीचड़ में गिरने व फिसलने से रक्षा करता हूँ और हेमंत ऋतु में घास पर चलने से आँख की ज्योति सतेज होती है। अतः पूर्वोक्त गुणहीन मनुष्य की समानता मुझसे कैसे हो सकती है? सामान्योपमानं महतां न रोचतेअर्थात् महान् लोगों को सामान्य उपमा देनी अच्छी नहीं होती। ततः पण्डितेन प्रोक्तम्- येषां न विद्या० मनुष्यरूपेण भवन्ति वृक्षाः ॥ तच्छ्रुत्वा वृक्षाः प्राहुः छायां कुर्मो वयं लोके, फलपुष्पाणि दद्महे । पक्षिणां सर्वदाधारा, गृहादीनां च हेतवः ॥ पुनः पण्डित ने कहा जिस व्यक्ति में विद्यादि गुण न हों, वह मानव रूप में वृक्ष के समान है, यह सुनकर वृक्ष कहने लगे- हम लोक में छाया करते हैं और फलपुष्पादि देते हैं, पक्षियों को सदा आश्रय देते हैं तथा मनुष्य के लिए गृहनिर्माण हेतु साधन सिद्ध होते हैं । परोपकारिणां निरुपकारिणां साम्यं कथम्? परोपकारियों का निरुपकारियों के साथ समानता कैसी? पुनः कवीश्वरेणोक्तम्- येषां न विद्या० मनुष्यरूपेण हि धूलिपुञ्जाः ॥ तच्छ्रुत्वा 1 (ग) इति विद्वद्वचः समाकर्ण्य रेणुराह। For Private and Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR 21 February-2017 धूलिपुञ्जः प्राह - कारयामि शिशून् क्रीडां, पङ्कनाशं करोमि च । मत्तोऽजनि रजःपर्व, लेखे क्षिप्तं फलप्रदम्॥ पुनः कवीश्वर ने कहा जिस व्यक्ति में विद्यादि गुण न हों, वह इस लोक में धूल के ढेर के समान है। ऐसा सुनकर धूलसमूह ने कहा कि हम बालकों को क्रीडा करवाते हैं, कीचड़ का नाश करते हैं, होली के पर्व में लोग धूलि से खेलकर मत्त(मस्त) होते हैं। हल से खींची गई रेखावाले खेत में बोये गये बीज फलदायी होते हैं। पुनरपरेण विदुरेणोक्तम्- येषां न विद्या० 'मनुष्यरूपेण शूनः स्वरूपः॥ तच्छ्रुत्वा श्वा प्राह स्वामिभक्तः सुचैतन्यः, स्वल्पनिद्रः सदोद्यमी। अल्पसंतोषवान् शूरः, तस्मात्तत्तुल्यता कथम् ॥ पुनः दूसरे पंडित ने कहा जिस व्यक्ति में विद्यादि गुण न हों, वह मनुष्यरूप में श्वान(कुत्ते) के समान है। यह सुनकर श्वान बोला – “स्वामि की आज्ञा का पालन करना, सदैव सजग रहना, कम निद्रा लेना, सदा उद्यमी रहना, थोड़े में ही संतुष्ट होना, साहस, शूरता आदि गुण होते हुए भी हमारी तुलना मनुष्य के साथ कैसे हो सकती है ?" तेन ततोऽधिक गुणोऽहम् कथं समःअतः मनुष्य से अधिक गुण हमारे अन्दर हैं तो हम कैसे समान हुए? पुनः प्रवीणेन प्रोक्तम्- येषां न विद्या० मनुष्यरूपेण खराश्चरन्ति ॥ तच्छ्रुत्वा खरश्चाह शीतोष्णं नैव जानामि, भारं सर्वं वहामि च। तृणभक्षणसन्तुष्टः, सदापि प्रोज्ज्वलाननः ॥ पुनः कुशलज्ञानी पंडित ने कहा जिस व्यक्ति में विद्यादि गुण न हों, वह मनुष्यरूप में गर्दभ के समान है, इस प्रकार सुनकर गर्दभ ने कहा कि ठंडी और गरमी को न जानते हुए अर्थात् इनकी परवाह किये बिना ही सभी प्रकार के भार का वहन करता हूँ, मात्र घास खाकर ही सन्तुष्ट रहता हूँ एवं सदैव उज्ज्वल कान्तिवान् रहता हूँ। अहं तु बहुगुणः, कथं तत्सदृगहं स्याम्? 1 (क) मनुष्यरूपा भषणस्वरूपाः। For Private and Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org SHRUTSAGAR 22 अर्थात् मैं तो बहुगुणी हूँ तो फिर मैं मनुष्य के सदृश कैसे हो सकता हूँ? पुनः कोविदेन प्रोक्तम्- येषां न विद्या० मनुष्यरूपेण भवन्ति काकाः । तच्छ्रुत्वा I काकाः प्राहुः - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रियं दूरगतं गेहं, प्राप्तं जानामि तत्क्षणात् । न विश्वसामि कस्यापि, काले चालयकारकः ॥ फिर से विद्वान् पंडित ने कहा जिस व्यक्ति में विद्यादि गुण न हों, वह मनुष्यरूप में कौवे के समान है। यह सुनकर कौवों ने कहा कि- जिसका प्रियतम घर से दूर गया हो वो वापस कब आयेगा, मैं जानता हूँ, प्रातःकाल का बोध जानकर तत्क्षण उड़ जाता हूँ, किसी पर भी विश्वास नहीं करता हूँ । कालज्ञाता हूँ, सुकाल-दुष्काल आदि समय के अनुसार आवाज करने पर उस शकुन के अनुसार शकुनज्ञाता फलकथन करते हैं । तेन कृतज्ञस्य कृतघ्नोपमानं नोचितम् अतः कृतज्ञ के लिए कृतघ्नवाली उपमा उचित नहीं है । 'ततः सुधिया प्रोक्तम् - येषां न विद्या० मनुष्यरूपेण भवन्ति चोष्ट्राः ॥ तच्छ्रुत्वा उष्ट्र चाहुः एकस्यां घटिकायां योजनगामी सदा नृपतिमान्यः । भारोद्वहनसमर्थः, कथं समो निर्गुणैः सार्धम् ॥ February-2017 स्वामी की आज्ञा से एक ही घडी में एक योजन की दूरी तय करता हूँ, सदा राजाओं का सम्मानपात्र रहा हूँ, भार वहन करने में सदैव समर्थ रहता हूँ, तो मेरी तुलना निर्गुणों के साथ कैसे योग्य है? ±उष्ट्रः प्राह वपुर्विषमसंस्थानं, कर्णज्वरकरो रवः । करभेणाशुगत्यैवाऽच्छादिता दोषसंततिः ॥ 1 (क) पुनरपरो निपुणो बभाण । 2 मात्र 'क' में यह पाठ है। I ऊँट बोला कि- मेरा शरीर टेढ़ा-मेढ़ा है, मेरी आवाज़ कर्कश है अर्थात् कर्णप्रिय नहीं है, अपने बच्चों के साथ शीघ्रगति से चलने पर भी लोगों के द्वारा दोष की पोटली से ढँका जाता हूँ । एकेनैव गुणेन राजमान्यः स्यां चन्दनवत् ऐसे एक ही गतियुक्त गुण से मैं चन्दन की तरह राजा का सम्मान पाता हूँ । For Private and Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR February-2017 अपरः प्राह- येषां न विद्या० मनुष्यरूपेण च भस्मरूपाः॥ तच्छ्रुत्वा रक्षा प्राह मूढकमध्ये क्षिप्ता, करोम्यहं सकलधान्यरक्षां द्राग्। मां वन्दन्ते मनुजाः, मुखशुद्धकरी सुगन्धाढ्या ॥ तब अन्य उदाहरण देते हुए पंडित ने कहा जिस व्यक्ति में विद्यादि गुण न हों, वह मनुष्यरूप में भस्म के समान है। यह सुनकर भस्म ने कहा कि- कोठी में डालने से मैं सकल धान्य की रक्षा करता हूँ, ललाट में लगे भस्म के कारण मनुष्य शीघ्रता से मुझे वंदन करता है और मेरा उपयोग दंतशुद्धि हेतु करने पर मुँह शुद्ध व सुगंधित रहता है। तेन नैतदुपमानं समीचीनम्इसलिए ऐसे गुणहीन मनुष्य के लिये यह हमारी उपमा उपयुक्त नहीं है। तदा पंडित पुनराह येषां न विद्या न तपो न दानं, ज्ञानं न शीलं न गणो न धर्मः। ते मर्त्यलोके भुवि भारभूता 'ते कीदृशां वेति च वीतरागः ॥ तब पंडित ने पुनः कहा कि जिस व्यक्ति में विद्यादि गुण न हों, वह धरती पर भाररूप हैं बाकी वे किस प्रकार के जीव हैं ? अर्थात् इनकी तुलना किसके साथ करनी, यह मैं नहीं जानता, भगवान् ही जानें। __ इस कृति के संपादन हेतु मूल संस्कृत में मुद्रित पुस्तक एवं हस्तप्रत में उपयुक्त पाठांतरों को भी यथायोग्य समावेश करने का प्रयास किया गया है। आशा है कि पाठकगण इससे लाभान्वित होंगे। 1 (घ) जानाम्यहं नैव च कीदृशाः स्युः।। क्या आप अपने ज्ञानभंडार को समद्ध करना चाहते हैं ? पुस्तकें भेंट में दी जाती हैं आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबा में आगम, प्रकीर्णक, औपदेशिक, आध्यात्मिक, प्रवचन, कथा, स्तवन-स्तुति संग्रह आदि विविध प्रकार के साहित्य तथा प्राकृत, संस्कृत, मारुगुर्जर, गुजराती, राजस्थानी, पुरानी हिन्दी, अंग्रेज़ी आदि भाषाओं की भेंट में आई बहुमूल्य पुस्तकों की अधिक नकलों का अतिविशाल संग्रह है, जो हम किसी भी ज्ञानभंडार को भेंट में देते हैं. यदि आप अपने ज्ञानभंडार को समृद्ध करना चाहते हैं तो यथाशीघ्र संपर्क करें. |पहले आने वाले आवेदन को प्राथमिकता दी जाएगी. For Private and Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन न्यायनो विकास (गतांक से आगे...) पू. मुनिमहाराज श्री धुरंधरविजयजी, शिरपुर १. श्री हरिभद्रसूरिजी तेओनो सत्ताकाळ विक्रमनी छठी सदीनी आसपासनो छे, जे समयमां बौद्धोनुं बहु जोर हतुं अने राजाओ विद्यामां रस लेतां हतां. राजसभामां मोटा मोटा शास्त्रार्थो थतां हतां. बौद्धोए शून्यवाद अने तर्कवादनी अतिगूढ समस्याओ ऊभी करी हती अने तेओ ते समस्याओ पोताना अनुयायी सिवाय अन्यने समजावतां न हता. आवा समये श्री हरिभद्रसूरिजी उत्पन्न थयां हतां. तेओ जाते ब्राह्मण हतां. चौद विद्याना पारंगत हता अने सत्य समजाया पछी जैन बन्यां हता. तेमणे शास्त्रार्थ करी बौद्धोने हराव्यां हतां अने अनेक जैन-न्याय ग्रन्थोनी रचना करी हती. ते समयना बौद्धोना जोरनो अने श्री हरिभद्रसूरिजीनी प्रतिभानो ख्याल नीचेना एक प्रसंगथी सारी रीते आवी शकशे. श्री हरिभद्रसूरिजीना बे भाणेज-शिष्य हंस अने परमहंस घणां बुद्धिशाळी हता. न्यायनी पराकाष्ठाए पहोंचवानी अने बौद्धन्याय शिखवानी तेमनी खूब इच्छा हती. अनेक व्यवसाय वगेरेने कारणे श्री हरिभद्रसूरिजी शिक्षण आपी शकता न हता, ते बन्ने बौद्ध-सम्प्रदायमां शीखवा माटे गया. शिक्षण लीधा बाद बौद्धोने खबर पडतां ते बन्नेने मरावी नाखवानो प्रबंध को. आ वातनी ए बन्नेने जाण थई एटले तेओ त्यांथी भाग्या. एक जण वचमां सपडाई जवाथी मरण पाम्या अने बीजा एक हरिभद्रसूरिजी पासे आवी पहोंच्या अने बधी हकीकत कही तरत ज स्वर्गस्थ थया. व्हाला शिष्योना आम अकाल अवसानथी श्रीहरिभद्रसूरिजीने क्रोध थयो. बौद्धोने शास्त्रार्थ करवा आमंत्रण मोकलाव्यु. हारे ते बळती कडाईमां पडे. बौद्धो हार्या. आचार्य महाराजे १४४४ बौद्धोने मारवानो संकल्प को हतो. गुरु महाराजश्रीना उपदेशथी क्रोध शांत थयो अने संकल्प माटे पश्चात्ताप करवा लाग्यां. तेनुं प्रायश्चित्त ली, अने ते प्रायश्चित्त तरीखे १४४४ ग्रंथनी रचना करी. हाल पण तेमना उपलब्ध ग्रंथोमां विरह शब्द आवे छे ते हंस अने परमहंसना वियोगनो सूचक छे. तेमनाविरचितन्यायग्रंथोआछे-१अनेकान्तवादप्रवेश,२अनेकान्तजयपताका, ३ अष्टक प्रकरणो, ४ न्यायप्रवेश सूत्र-(बौद्ध-न्यायना ग्रंथ पर) वृत्ति, ५ धर्मसंग्रहणी, ६ लिलतविस्तरा, ७ षड्दर्शनसमुच्चय, ८ शास्त्रवार्तासमुच्चय (वृत्तियुक्त). तेमनी For Private and Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR 25 February-2017 भाषा घणी सचोट छे. हळवे हळवे पण जे वात तेओ बतावे ते हृदयमा तरत ज ऊतरी जाय छे. द्वादशदर्शन टीकाकार वाचस्पति मिश्रनी अने तेमनी लखाण शैलीमां समानता भासे छे. अनेकान्तजयपताकामां स्याद्वादनुं अनेक युक्ति-प्रयुक्तिओ पूर्वक स्थापन कर्यु छे. धर्मसंग्रहणीमां तेमणे आत्मा तथा धर्मनो विषय सुन्दर रीतिए बताव्यो छे, नास्तिकोना बौद्धोना तथा अन्योना मतोनो निरास को छे. षड्दर्शनसमुच्चय एकन्दर माध्यमिक दृष्टिए लख्यो छे अने तेमां केवळ छए दर्शनोनी मान्यता बतावी छे. छतां पण तेमां जैनदर्शन प्रत्येनी अभिरुचि तो व्यक्त करी ज छे. ललितविस्तरामां सचोटपणे जिनेश्वर भगवाननी महत्ता अने जैनदर्शननी विशुद्धता बतावी छे. तेमणे पोताना ग्रन्थोमां अनेक दार्शनिक ग्रन्थो तथा ग्रन्थकारोनो उल्लेख कर्यो छे, तेमांनां मुख्य आ छे. अवधूताचार्य, सांख्य दार्शनिक आसुरि अने ईश्वरकृष्ण, मीमांसक कुमारिलभट्ट, भाष्यकार-पतंजलि, पातंजल योगाचार्य, वैयाकरण पाणिनी, भगवद्गोपेन्द्र, वैयाकरण भर्तृहरि, व्यासर्षि, विन्ध्यवासी, शिवधर्मोत्तर वगेरे ब्राह्मण धर्मिओ हतां. कुक्काचार्य, दिङ्नागाचार्य, धर्मपाल, धर्मकीर्ति, धर्मोत्तर, भदन्तदिअ, वसुबन्धु, शान्तिरक्षित अने शुभगुप्त वगेरे बौद्धधर्मिओ हतां. अजितयशा, उमास्वितिजी, जिनदास महत्तर, जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण, देववाचक, भद्रबाहु, मल्लवादीजी, समन्तभद्र, सिद्धसेनदिवाकर, संघदासगणि वगेरे आर्हत दार्शनिको हतां. वासवदत्ता अने प्रियदर्शना तथा उपर बतावेल ग्रन्थकारोना केटलाएक ग्रन्थोनो पण उल्लेख छे. तेमणे चैत्यवास सामे झुबेश उठावी हती अने तेमां पण घणी सुधारणा करी हती. प्रो. हर्मन याकोबीए ‘समराइञ्चकहा'नी प्रस्तावनामां श्री हरिभद्रहसूरिजी माटे लख्यु छे के - __ “हरिभद्रे तो श्वेताम्बरोना साहित्यने पूर्णतानी टोचे पहोंचाड्यु. जो के तेमना ग्रन्थो केटलाक प्राकृतमां छे, परंतु घणाखरा संस्कृतमां ज छे. आमां जैन सम्प्रदायना पदार्थ वर्णन उपरांत विरोधी मतवाळा ब्राह्मणो तेमज बौद्धोना साम्प्रदायिक धोरणो बाबत एक टंको ख्याल, केटलीक चर्चा अने तेनां खंडनो पण छे. आ जातनां ग्रन्थोमां हरिभद्रनी दिङ्नागना न्यायप्रवेश परनी टीका, जोके ते एक प्रकरण नथी पण, बहु उपयोगी For Private and Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 26 SHRUTSAGAR February-2017 अने महत्त्वनी छे. जैनोने प्रमाणनिरूपणनो कोइ ग्रन्थ पूरो पाडवाना हेतुथी सिद्धसेन दिवाकरे 'न्यायावतार' नामनो ग्रन्थ रच्यो हतो. प्रमाणनी बाबतमां जैन सिद्धान्त स्थापनने बदले हरिभद्रे दिङनाग उपर टीका लखीने जैनोने बौद्ध प्रमाणशास्त्रीओना ग्रन्थोनुं अध्ययन करवानी प्रेरणा करी. आ रीते देखावमां तो एमणे ए लोकोनी भारे महत्ता स्वीकारी, परंतु पोतना ‘अनेकांतजयपताका' ग्रन्थमा धर्मकीर्तिना प्रमाण विषेना केटलाक सिद्धान्तोनुं सारं खंडन पण कर्यु. एमना पछी घणां वर्षो सुधी जैनोने बौद्धोना प्रमाणनिरूपणमां रस रह्यो हतो अने एने लीधे ज अत्यारे आपणे धर्मकीर्तिन न्यायबिन्दु अने धर्मोत्तरनी न्यायबिन्दु-टीका उपलब्ध करी शक्या छीए. कारण के आ ग्रन्थोनी जूनामां जूनी प्रतो अने बीजा ग्रन्थ उपरनी टीकानो अमुक भाग जैन भंडारोमांथी ज मळे छे.” एक स्थळे उपाध्याय श्री यशोविजयजी, श्री हरिभद्रसूरिजी माटे जणावे छे केः- “ज्यारे जैनदर्शनरूपी आकाशमां पूर्वरूपी ताराओने अस्त थवानो प्रभात काळ हतो ते समये पटुलोचन हरिभद्रसूरिजी उत्पन्न थयां. तेमणे सूक्ष्म दृष्टिथी ते ताराओने अवलोकी तेना प्रतिबिम्ब ग्रहण करी अने प्रकरणो रूपे तेनुं गूंथन कर्युः" ए रीते श्री हरिभद्रसूरिजी जैनदर्शनमां एक समर्थ नैयायिक थयां अने जैन न्याय आदित्यनी आडे आवतां वादळोने विखेरी नाखी ते सूर्यना प्रकाशने तेमणे खूब प्रसार्यो. २. श्री बप्पभट्टिसूरिजी तेमनो सत्तासमय विक्रम संवत ८०० थी ८९५नी आसपासनो छे. तेमना समयमां राजाओ पोतपोताना राज्यमां एक विद्वान पंडितने राखतां अने तेमां पोतानू भूषण समजतां. बप्पभट्टिसूरिजी बाल्यकाळथी ज प्रतिभासम्पन्न हतां. एक दिवसमां हजार श्लोक कण्ठस्थ करवानी तेमनी शक्ति हती. आम राजा तेमनो परम भक्त हतो. धर्मराजानी सभामां तेमणे बौद्धवादी वर्धनकुंजरने जीत्यो हतो, तेथी ‘वादिकुंजरकेसरी'नु बिरुद तेमणे मेळव्यु हतुं. तेमणे मथुराना वाकपति नामना शैवयोगीने जैन बनाव्यो हतो. तेओ अखंड ब्रह्मचारी हतां, ने ते माटे तेमनो रसनेन्द्रिय उपर खूब काबू हतो. तेमणे यावज्जीव छ विगईनो त्याग कर्यो हतो. तेमनुं अपर नाम भद्रकीर्ति हतुं. तेओ ‘ब्रह्मचारी गजवर' अने ‘राजपूजित' ए बे बिरुदोथी पण विभूषित हतां. ३. श्री शीलांकाचार्यजी तेओ विक्रमना दशमां सैकामां थयां. तेओए अगियारे अंग उपर न्याय अने For Private and Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 27 SHRUTSAGAR ___February-2017 आगम विचारोथी पूर्ण टीका लखी छे. जेमांनी हालमां आचारांग अने सुयगडांग परनी वृत्ति उपलब्ध छे. जीवसमास उपर तेमणे टीका लखी छे. भाष्यकार श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणविरचित श्री विशेषावश्यकभाष्य' उपर तेमणे वृत्ति लखी छे. आ टीका, तेमनुं बीजू नाम कोट्याचार्य हतुं ते नामथी प्रसिद्ध छे. अंगो उपर न्यायशैलीथी टीका लखनाराओमां शीलांकाचार्य प्रथम छे. ४. श्री सिद्धर्षिसूरिजी सिद्धर्षिजीनो सत्तासमय वि.सं. ९६२नी आसपासनो छे. कारण के तेमणे बनावेल उपमितिभवप्रपंचा नामनी कथा ९६२मां पूर्ण थई छे. सिद्धर्षिना समयमां पण बौद्धोनु विशेष जोर हतुं. दीक्षा लीधा बाद तेओ बौद्धो पासे' अभ्यास करवा गया हता. त्यां तेमने बौद्ध सिद्धान्त रुचि गया, परंतु वचनबद्ध थया होवाथी गुरु महाराज पासे आव्यां. वळी त्यां वचन आपीने आव्यां होवाथी त्यां गयां, फरी अहीं आव्यां. एम एकवीश वखत बन्यु हतुं. छेवटे श्री हरिभद्रसूरिजीकृत ‘ललिताविस्तरा' वांची जैनदर्शनमां स्थिर थया हता. तेमणे श्री हरिभद्रसूरिजीनी अने 'ललितविस्तरा'नी खूब प्रशंसा लखी छे. उपमिति'नी प्रशस्तिमां तेओ लखे छे के “जे हरिभद्रे पोतानी अचिन्त्य शक्तिथी मारामांथी कुवासनामय झेर दूर करीने, कृपा करी सुवाचनारूपे अमृत मारा लाभ माटे शोधी काढ्यु छे ते हरिभद्रसूरिने मारा नमस्कार हो ! ते हरिभद्रसूरिजीने मारा नमस्कार हो के जेमणे मारा माटे ललितविस्तरा' नामनी वृत्ति रची. " तेओ छए दर्शनना विद्वान हता. तेमणे स्वयं लख्यु छे के कृतिरियं जिनजैमिनिकणभुक्सौगतादिदर्शनवेदिनः सकलग्रन्थार्थनिपुणस्य श्रीसिद्धर्महाचार्यस्येति । तेमणे सिद्धसेनकृत न्यायावतार' उपर वृत्ति रची छे. ५. श्री प्रद्यम्नसूरिजी तेओ विक्रमनी ११मी सदीमां थया छे. तेओ एक समर्थवादी हतां'. अल्लू 1 सिद्धर्षि ज्यां तर्कशास्त्र भणवा गया हतां ते नगरनुं नाम ‘महाबोध' लख्यं छे. ते नगर क्या हतुं तेनो कई पत्तो लागतो नथी पण ते स्थान तक्षशिलानु विश्वविद्यालय अथवा नालंदा विश्वविद्यालय बे मांथी एक होवू जोईए एम लागे छे. 2 नमोऽस्तु हरिभद्राय, तस्मै प्रवरसूरये । मदर्थं निर्मिता येन, वृत्तिललितविस्तरा। 3 वादं जित्वाऽल्लुकक्ष्मापसभायां तलपाटके। आत्तैकपट्टो यस्तं श्रीप्रद्युम्नं पूर्वजं स्तुवे। - (समरादित्यसंक्षेप) For Private and Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR 28 February-2017 राजानी राजसभामां तेमणे दिगम्बरोने पराजय आप्यो हतो. त्रिभुवनगिरि' अने सपादलक्ष (मालवा) आदिना राजाओने जैन बनाव्यां हतां अने ८४ वादो जीतीने आनन्दित कर्यां हतां. ६. तर्कपंचानन श्री अभयदेवसूरिजी तेमनो सत्तासमय विक्रमनी ११ मी शताब्दि छे. तेओ एक समर्थ टीकाकार हतां तेमणे श्री सिद्धसेन दिवाकरजीना सन्मतितर्क' उपर २५ हजार श्लोक प्रमाण विस्तृत टीका रची छे. तेमां दशमी शताब्दि सुधीना चालु सर्ववादोनी सुन्दर रीतिए गोठवण करी छे. ते टीकार्नु नाम ‘वादमहार्णव' अथवा 'तत्त्वबोधविधायिनी' छे. तेमनी वाद लखवानी पद्धति घणी ज मनोज्ञ छे. प्रथम चालु सिद्धान्तमां बिलकुल नहिं माननार पक्ष पासे बोलावे, पछी कंइक स्वीकार करनार पासे तेनुं खंडन करावे ने तेनो मत प्रदर्शित करावे, पछी वधु माननार पासे, पछी घणु स्वीकार करनार पासे ने छेवटे सर्वमां दूषण बताववा पूर्वक स्वाभिमत सिद्धान्तनुं मंडन करे. ते वांचता जाणे एम लागे के आपणे साक्षात् एक वादसभामां ज होइए अने प्रत्यक्ष वाद सांभळतां होइए. दर्शनशास्त्रोमां मीमांसा दर्शन समजवं मुश्केल होय छे. ते मीमांसा दर्शनना आकर ग्रन्थ कुमारिल भट्टना श्लोकवार्तिक'नु आवादमहार्णव'मां विशेष खंडनमंडन छे. तेथी आ ग्रन्थ समजवो घणो कठिन गणाय छे. ने ते ज कारणे अभ्यासमां अल्प आव्यो छे. शान्तिरक्षित के जेओ नालन्दा विश्वविद्यालयना मुख्य आचार्य हतां तेमनां बनावेल 'तत्त्वसंग्रह उपरनी कमलशीलनी बनावेल ‘पंजिका' नामनी टीका, दिगम्बराचार्य प्रभाचंद्रे रचेल 'प्रमेयकमलमार्तंड' तथा 'न्यायकुमुदचंद्रोदय' वगेरे ग्रन्थोनो आ टीकामां उपयोग छे. वादि देवसूरिजी, मल्लिषेणसूरिजी तथा उपाध्याय श्री यशोविजयजी वगेरेए स्थळे स्थळे आ टीकानो उल्लेख तथा छूटथी उपयोग कर्यो छे. ११ मां सैका पछी जैन न्यायना मोटा मोटा ग्रन्थो रचाया ते सर्वमां आ टीकानी सहाय लेवामां आवी छे. आ टीकामां गूंथायेल विषयो पाछळना ग्रन्थकारोने सरळताथी मळी गयां छे. आ टीकामां शब्दोनी बहु रमकझमक नथी पण भाषाप्रवाह एक निर्मळ झरणनी माफक सीधो वहे छे. प्रो. लोयमेने श्री अभयदेवसूरिजीना सम्बन्धमा जणाव्यु छे के ‘तेमनो उद्देश ते समयमा प्रचलित सर्व वादोनो संग्रह करी अनेकान्तवादस्थापन करवानो हतो.' –ते आ टीका जोवाथी स्पष्ट समजाय छे. श्री अभयदेवसूरिजी 1 सपादलक्षगोपल-त्रिभुवनगिर्यादिदेशगोपालान् । युयुश्चतुराधिकाशोत्या, वादजयै रञ्जयामास (पार्श्वनाथचरित्र) For Private and Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 29 SHRUTSAGAR _ February-2017 'न्यायवनसिंह' अने तर्कपंचानन ए बिरुदोथी विभूषित हतां अने ८४ वादविजेता श्री प्रद्युम्नसूरिजीना पट्टप्रभावक हतां. ७. श्री धनेश्वरसूरिजी तेओ मुंजराजाना समयमां थया एटले तेमनो सत्ताकाळ ११ मी विक्रम शताब्दिनो हतो. तेओ तर्कपंचानन श्री अभयदेवसूरिजीना पट्टघर हता. धारानगरीना सार्वभौम राजा मुंजे तेओने पोताना गुरु तरीके स्वीकार्या हतां. तेमणे राजानी सभामां अनेक वादो जीत्या हतां. प्रवचनसारोद्धार-वृत्तिमां श्री सिद्धसेन लखे के - तदनु धनेश्वसूरिर्जज्ञे, यः प्राप पुंडरीकाख्यः । निर्मथ्य वादजलधिं, जयश्रियं मुंजनृपपुरतः॥ ८. वादिवेताल श्री शान्तिसूरिजी 'प्रभावकचरित्र'मां तेमनो स्वर्गवाससमय वि. १०९६ ना जेठ सुद ९ ने मंगळवार, कृत्तिका नक्षत्र, जणावेल छे. तेमना प्रत्ये पाटणना भीमराजाने अने धारानगरीना भोजराजने घणुं मान हतुं. तेओ भीमराजानी सभामां कवीन्द्र' अने 'वादिचक्रवर्ती तरीके विख्यात हतां अने महाकवि धनपालनी प्रेरणाथी भोजराजानी राजसभामां गया हतां. भोजराजाने पोतानी सभा माटे अभिमान हतुं. तेणे शान्तिसूरिजीने शरतपूर्वक का हतुं के मारी सभाना एक एक वादिनी जीतमां एक एक लक्ष द्रव्य आपीश. शान्तिसूरिजीए बधां दर्शनोनां चोराशी वादीओने तेनी सभामां जीती ८४ लक्ष द्रव्य धर्ममार्गमां वपराव्यु हतुं अने भोजराजे तेमने ‘वादिवेताल' एवं बिरुद आप्यु हतुं. तेमणे एक धर्म नामना पंडितने पण जीत्यो हतो अने द्रविड देशना एक अव्यक्तवादी अभिमत्त पंडितने पराजय आपी गरीब पशु तुल्य करी दीधो हतो. तेओनी पासे बत्रीश शिष्यो प्रमाणशास्त्रनो अभ्यास करता हता. एकदा एक कठिन विषय १६ दिवस सुधी शिष्योने समजावतां छतां ज्यारे कोई पण शिष्यने ते विषय न समजायो त्यारे तेमने दुःख थयु. ते समये वादी देवसूरिना गुरु मुनिचंद्रसूरि त्यां जई चडयां हतां अने तेमणे ते सर्व विषय विवेचन अप्रकटपणे ध्यान राखी कही आप्यु हतुं. ते समये शान्तिसूरिजीए कहुं हतुं के तमे तो रेणुथी आच्छादित रत्न छो. हे वत्स ! हे सरळमति ! मारी पासे प्रमाणशास्त्रनो अभ्यास कर अने आ नश्वर देहनो अहीं लाभ लई ले !' पछीथी टंकशाळना पाछळना भागमां तेमने रहेवानी सगवड करावी छए दर्शननो अभ्यास कराव्यो हतो. For Private and Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR February-2017 तेमनी न्याय लखवानी शक्ति अपूर्व हती. ते विषयमां तेमनी बनावेल उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति (पाईयटीका) पुष्टि आपे छे.टूंकमां सचोटपणे लखq ए एमनी लेखन शैलीनी विशिष्टता छे. आटीकाने आधारे वादि देवसूरिजीए सिद्धराजनी सभामां दिगम्बर वादी कुमुचन्द्रने पराजय आप्यो हतो. 'जीवविचारप्रकरण' अने 'चैत्यवंदनमहाभाष्य'ना कर्ता पण आ ज शान्तिसूरिजी हशे के बीजा? ते विचारणीय छे. तेमना गुरुनु नाम विजयसिंहसूरिजी छे. ९. श्री जिनेश्वरसूरिजी तेमनो समय १०८२ थी १०९५ आजुबाजुनो छे, कारण के तेटला समयमां बनावेल तेओना ग्रन्थो विद्यमान छे. ते समये पाटणना तख्त पर दुर्लभराज राज्य करतो हतो. तेनी सभामां तेओर्नु सारुं मान हतुं. तेओए श्री हरिभद्रसूरिजीना ‘अष्टक प्रकरण' उपर वृत्ति रची छे, जे अनेक न्यायविचारोथी पूर्ण छे. तेमां शुद्ध देव, मूर्तिपूजा, मुक्ति वगेरे घणा विषयो तर्क दृष्टिथी चा छे अने प्रमाणलक्षण' नामनो न्यायग्रन्थ स्वोपज्ञवृत्ति सहित रच्यो छे. १०. श्री सूराचार्यजी तेमनो सत्तासमय ११मी सदीनो छेवट भाग अने बारमी सदीनी शरूआत छे. तेओ शब्दशास्त्र, प्रमाणशास्त्र तथा साहित्यशास्त्र वगेरेमां निपुण हतां. पोतानी शक्ति माटे तेमने मान हतुं. तेमनी पासे अनेक शिष्यो अभ्यास करतां हता. तेमनो ताप अपूर्व हतो, शिष्यनी भूल थाय के तरत ज मार पडतो अने एम थतां हमेश ओघामां राखवानी लाकडानी एक दांडी तूटी जती हती. गुरुमहाराजना मर्म वचनथी भोजराजानी सभामां गया हतां अने सर्व पंडितो उपर विजय मेळव्यो हतो. प्रथम तो भोजराजा तेओना उपर प्रसन्न थयो हतो पण पाछळथी तेओना नग्न सत्य कहेवाना स्वभावथी क्रोधित थयो हतो. भोजराजा सर्वदेर्शनोने एकठां करवानो प्रयत्न करतो हतो. ते न थई शके तेम तेमणे तेने समजाव्यु हतुं. भोजव्याकरणमां भूलो बतावी हती. छेवटे भोजे तेमने देहकष्ट आपवा विचार को हतो, परंतु धनपालनी गोठवणथी तेओ सुखे पाटण पहोंची गया हतां. 'नेमिनाभेय-द्विसंधान महाकाव्य' तेमनी काव्यकृति छे. भीमदेवनी सभामां तेमनुं सारं मान हतुं. भीमदेवना मामा द्रोणाचार्यना तेओ शिष्य हतां अने संसारपक्षे भत्रीजा हतां. For Private and Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org SHRUTSAGAR 31 ११. नवांगीटीकाकार श्री अभयदेवसूरिजी संवत १०८८ मां १६ वर्षनी वये तेमने आचार्य पद मळ्युं हतुं अने तेमनो स्वर्गवास सं. ११३९नी लगभग थयो हतो, एटले तेमनुं आयुष्य आशरे ६७ वर्षनुं थयुं. जैन आगमो उपर शीलांकाचार्यकृत अगियार अंगमांथी आदिनां बे अंगोनी टीका मळती हती. तेथी तेमणे दैवी प्रेरणाथी नव अंग उपर टीका रची हती. जिनेश्वरसूरिजीकृत ‘षट्स्थानकभाष्य' उपर तेमनी टीका छे, हरिभद्रसूरीश्वरजीना 'पंचाशक' पर तेमनी टीका छे. अनेक ग्रन्थोनुं दोहन करी वृत्ति रचवानी तेमनी शैली अपूर्व छे. आजे पण नव अंगपरनी तेमनी टीका अनेक विचारणाओने वेग आपे छे. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्तंभनपार्श्वनाथजीनी प्रतिमा तेमनां ज आत्मबळे अने पुण्यप्रभावे प्रकट थयेल छे. ते समये तेमनुं बनावेल 'जयतिहुअण' स्तोत्र आजे पण प्राभाविक मनाय छे. तेमनी व्याख्यान अने विवेचन करवानी शक्ति अद्भुत हती. एक समय 'अम्बरन्तर ए ‘अजितशान्तिस्तव’नी गाथानुं शृंगारिक विवेचन करतां तेमनां पर एक राजकुमारी मोहित थइ हती. पछीथी वैराग्य अने शान्तरसना उपदेशथी तेओए तेने प्रतिबोधित करी हती. तेमनी सर्व टीकाओ ११२० थी ११२८ सुधीमां रचायेल छे. तेओनो स्वर्गवास कपडवंजमां थयो छे. February-2017 १२. श्री चंद्रप्रभसूरिजी सं. ११४९ मां तेओ विद्यमान हतां. तेमणे 'दर्शनशुद्धि' अने 'प्रमेयरत्न कोष' ए बे न्यायग्रन्थो रच्यां छे. सुभाषित ज्ञानगरीबी गुरुबचन नरमबचन निरदोष । एता कबहु न छंडियै सरधा शील संतोष ॥ श्री जैन सत्यप्रकाश वर्ष ७, दीपोत्सवी अंकमांथी साभार (क्रमशः...) For Private and Personal Use Only ह.प्र. ७८२६९ मनुष्य को ज्ञानपिपासा, गुरु आज्ञा का पालन, नम्र वचन, दोषरहित जीवन, धर्म के प्रति श्रद्धा, सुंदर चारित्रपालन एवं संतोष जैसे गुणों को कभी नहीं छोड़ना चाहिए। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समाचारसार रामप्रकाश झा अडपोदरा ग्राम में प्रतिष्ठा महोत्सव का भव्य आयोजन ___ राष्ट्रसन्त जैनाचार्य पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. आदि साधु साध्वीजी भगवन्तों की पावन निश्रा में हिम्मतनगर के समीपवर्ती अडपोदरा गाँव में वासुपूज्यस्वामी आदि जिनबिम्बों की प्रतिष्ठामहोत्सव के निमित्त दिनांक २५-०१-२०१७ को गुरुभगवन्तों का भव्य नगर प्रवेश हुआ तथा कुम्भस्थापना, पार्श्वजिनपंचकल्याणक पूजा तथा रात्रि में भक्ति भावना का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ. दस दिनों तक चलनेवाले इस भव्य समारोह में नवग्रहपूजन, अष्टमंगलपूजन, नंद्यावर्तपूजन, वीशस्थानकपूजन, च्यवनकल्याणक की विधि, देवी पट्टपूजन, ५६ दिक्कुमारी व मेरु महोत्सव, जिनालय के शिखर पर ध्वजा तथा कलश की स्थापना, हालरडा आदि का मंचन किया गया. महोत्सव के आठवें दिन जिनेश्वर प्रभु की भव्य रथयात्रा तथा रात्रि में विविध कल्याणकों की विधि के आयोजनपूर्वक अंजनविधान किया गया. दिनांक-०२-०२२०१७ माघ शुक्लपक्ष ६ गुरुवार को शुभ मुहूर्त में विशाल जनमेदनी की उपस्थिति में अष्टप्रकारी पूजा के साथ प्रभु की प्राणप्रतिष्ठा की भव्य विधि सम्पन्न हुई तथा सवा लाख अक्षत से प्रभु की वधामणा की गई. अन्तिम दिन दिनांक-०३-०२-२०१७ को सत्तरभेदी पूजा का आयोजन किया गया. प्रतिदिन साधर्मिक वात्सल्य का आयोजन किया गया तथा रात्रि में भक्तिभावना की भव्य प्रस्तुति की गई. महावीरालय की तीसवीं सालगिरह ___ माघ शुक्लपक्ष १४, दि. ०९-०२-२०१७ को श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र में अवस्थित श्री महावीरालय की तीसवीं सालगिरह मनाई गई, इस शुभ अवसर पर मन्दिर पर ध्वजा चढ़ाई गई. प. पू. आचार्य श्री अमृतसागरसूरीश्वरजी म. सा. ने मांगलिक किया तथा उपस्थित श्रद्धालुओं की साधर्मिक भक्ति की गई. For Private and Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गिरनारतीर्थ से गिरिराजतीर्थ की ओर प्रस्थान छ'रीपालित संघ के यात्रियों के समक्ष प्रवचन देते हुए प.पू. गुरुभगवंत NOON छ'रीपालित संघ में भक्तिसंध्या कार्यक्रम For Private and Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Registered Under RNI Registration No. GUJMUL/2014/66126 SHRUTSAGAR (MONTHLY). Published on 15th of every month and Permitted to Post at Gift City So, and on 20th date of every month under Postal Regd. No. G-GNR-338 issued by SSP GNR valid up to 31/12/2018. SANEINDIA सारमा समेतसिपर चातापानकाला गया feametermireerCTO जापनीचर श्रीजनलवर पीडवाडा धातुप्रतिमा का अप्रकट लेख BOOK-POST / PRINTED MATTER प्रकाशक श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबा जि. गांधीनगर 382007 फोन नं. (079) 23276204, 205, 252 फेक्स (079) 23276249 Website : www.kobatirth.org email : gyanmandir@kobatirth.org Printed and Published by: HIREN KISHORBHAI DOSHI, on behalf of SHRI MAHAVIR JAINARADHANAKENDRA, New Koba, Ta.&Dist. Gandhinagar, Pin-382007, Gujarat. And Printed at : NAVPRABHAT PRINTING PRESS, 9, Punaji Industrial Estate, Dhobighat, Dudheshwar, Ahmedabad-380004 and Published at : SHRI MAHAVIR JAIN ARADHANA KENDRA, New Koba, Ta.&Dist. Gandhinagar, Pin-382007, Gujarat. Editor : HIREN KISHORBHAI DOSHI For Private and Personal Use Only