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विद्धगोष्ठीसंवाद
अनु. राहुल आर. त्रिवेदी मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। जन्म लेने के बाद समयानुसार अनेक गुणों को धारण करता है। वह अपने विविध गुणों से जाना जाता है। उसमें कम से कम एक ऐसा गुण होना चाहिए जो समाज के लिए उपयोगी हो सके। इस हेतु मनुष्य में विद्या, तप, दान, ज्ञान, शील, गुण, और धर्म इन मुख्य गुणों का होना आवश्यक है। इन गुणों में परमार्थ का भाव भी विद्यमान रहता है। सृष्टि के हर एक जीव में अलग-अलग गुण पाये जाते हैं इसलिए उपर्युक्त गुणों को धारण करना ही जीवन की सार्थकता है। __ प्रजापालक एवं विद्यारसिक महाराजा भोज से भला कौन अपरिचित होगा? जिनकी सभा सदैव महाकवि कालिदास, धनपाल, धनंजय जैसे विद्वानों से विभूषित रहती थी। जनश्रुति प्रसिद्ध है कि महाराजा भोज के राज्य में कोई मूर्ख नहीं था। अलग-अलग तरीकों से प्रयासपूर्वक ढूँढे जाने पर भी उन्हे कोई मूर्ख नहीं मिला था। इस संदर्भ में एक प्रसिद्ध श्लोक है
खादन्न गच्छामि हसन्न जल्पे गतन्न शोचामि कृतन्न मन्ये ।
द्वाभ्यां तृतीयो न भवामि राजन् किं कारणं भोज भवामि मूर्खः।। अर्थात् खाते हुए जाता(चलता) नहीं हूँ, हँसते हुए बोलता नहीं हूँ, बीते समय के लिए सोचता नहीं हूँ, किये गए कार्य की स्वप्रशंसा करता नहीं हूँ और दो लोगों के संवाद में बोलता नहीं हूँ। हे भोजराज ! आखिर किस कारण से मैं मूर्ख होता हूँ।
यहाँ कवि धनपाल से संबद्ध एक प्रसंग कुछ ऐसा ही है जो पंचतंत्रादि की भाँति ही रोचक है।
लघु संवादरूप इस कृति का प्रारंभ कवि धनपाल से हुआ है। ये अपने समय के प्रख्यात विद्वान थे। इनका समय वि.सं. ११ वीं सदी माना जाता है । मेरुतुंगाचार्य के प्रबंधचिंतामणि नामक ग्रंथ में धनपाल का चरित्र आया है। ये संकाश्य गोत्रीय ब्राह्मण सर्वदेव के पुत्र थे। प्रारंभ में धनपाल जैनधर्म के विरोधी थे, किन्तु बाद में जैनधर्म का अध्ययन कर वे जैन बन गए । कवि धनपाल भोजराज के सभापंडित थे। इनकी मुख्य रचनाएँ हैं- पाईयलच्छीनाममाला, तिलकमंजरी और ऋषभपंचाशिका। पाईयलच्छीनाममाला उनका प्राकृतकोश है, जो प्राकृत का प्राचीन कोशग्रंथ है । इनका
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