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___ February-2017 येषां न विद्या न तपो न दानं, 'ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः ।
ते मर्त्यलोके भुवि भारभूता, मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ॥ जिन्होंने न विद्या पढी है, न तप किया है, न दान दिया है, न ज्ञान का उपार्जन किया है, न शील का आचरण किया है, न उत्तमगुण सीखा है, न ही धर्म का अनुष्ठान किया है (न ही जिसके पास धर्मबुद्धि है) वे इस लोक में व्यर्थ ही पृथ्वी पर भाररूप बनकर मनुष्य के रूप में मृग के समान विचरण करते हैं । इति पंडितवचनं श्रुत्वा मृगः प्राह- मम ईदृग् नरोपमानं कस्मादुच्यते ? यतः -
__ स्वरे शीर्ष जने मांसं, त्वचं च ब्रह्मचारिणे।
__शृंगं योगीश्वरे दद्यात्, मृगः स्त्रीषु सुलोचने ॥ इस प्रकार पंडित के वचन को सुनकर मृग ने कहा कि गुणविहीन भाररूप मनुष्य की मेरे साथ उपमा कैसे योग्य है, क्योंकि
मुझमें ताल स्वर-रागयुक्त संगीत पारखी का गुण होने के कारण संगीत की ध्वनि कानों में पड़ते ही सिर घुमाकर ध्यान से सुनने लगता हूँ, मेरे कोमल मांस का लोग आहार करते हैं, चमड़े को ब्रह्मचारी लोग धारण करते हैं, मंत्र-तंत्र को जाननेवाले योगी मेरे शींग का उपयोग करते हैं और सुंदर रूपवती स्त्रियों को मृगनयनी सुलोचना की उपमा दी जाती है तो फिर मैं कैसे भाररूप या व्यर्थ हूँ?
तेन ममैवंविधमनुष्योपमानं न युक्तम् अतः मनुष्य के लिए इस प्रकार मेरी उपमा योग्य नहीं है।"
पुनरपि पण्डितेनोक्तं- येषां न विद्या० मनुष्यरूपेण 'चरन्ति गावः ॥ तच्छ्रुत्वा गौराह
'तृणमपि दुग्धं धवलं, 'गेहस्य मंडनं परमम्।
रोगापहारि मूत्रं, पुच्छं 'सुरकोटिसंस्थानम् ॥ तब पंडित ने पुनः कहा कि जिस व्यक्ति में विद्यादि गुण न हों, वह मनुष्यरूप में पशुओं के समान विचरण करता है, इस प्रकार पंडित का वचन सुनकर गाय ने कहा, 1 (क) न चापि शीलं न च धर्मबुद्धिः । 2 (ग) पशवश्चरन्ति। 3 (ख) तृणमद्मि पयो धवलं। 4 (क) छगणं गेहस्य मंडनं भवति । 5 (ख) सुरकोटिसम्भवस्थानम् ।
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