Book Title: Shrutsagar 2015 07 08 Volume 01 02 03
Author(s): Hiren K Doshi
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba

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Page 15
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR 13 July-Aug-2015 * गिलगिट से प्राप्त प्राचीनतम पाण्डुलिपियाँ इसी लिपि में निबद्ध हैं, जिसे शारदा लिपि का गौरव कहा जा सकता है। इस लिपि में संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश आदि भाषाबद्ध साहित्य को शतप्रतिशत शुद्ध लिखा जा सकता है। यह लिपि लेखन एवं वाचन की दृष्टि से सरल एवं सुगम है। अर्थात् जो बोला जाता है वही लिखा जाता है और फिर वह लिखित पाठ उसी पूर्वोच्चारित ध्वनि का बोध कराता है। इस लिपि में समस्त उच्चारित ध्वनियों के लिए स्वतन्त्र एवं असंदिग्ध लिपिचिह्न विद्यमान हैं। अतः इसे पूर्णतः वैज्ञानिक लिपि कहा जा सकता है। * प्राचीन ग्रन्थों के समीक्षात्मक संपादन एवं अध्ययन हेतु विद्वानों द्वारा इस लिपि में निबद्ध हस्तप्रतों के पाठों को शुद्धता की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण और उपयोगी माना गया है। • अपने समय की श्रेष्ठ लिपि होने के कारण तत्कालीन ग्रन्थकारों एवं लहियाओं ने इसे सर्वाधिक आश्रय प्रदान किया । * इसकी वर्णमाला में स्वर एवं व्यंजन वर्णों का वर्गीकरण ध्वनि-वैज्ञानिक पद्धति से व्याकरणसम्मत उच्चारण स्थान एवं प्रयत्नों के आधार पर किया गया है। * इस लिपि का प्रत्येक वर्ण स्वतन्त्ररूप से एक ही ध्वनि का उच्चारण प्रकट करता है, जो सुगम और पूर्णतः वैज्ञानिक विधान है। * इस लिपि में ब्राह्मी की तरह पडीमात्रा का प्रयोग भी देखने को मिलता है। इस लिपि में अनुस्वार, अनुनासिक एवं विसर्ग हेतु स्वतन्त्र लिपिचिह्न प्रयुक्त हिए हैं, जो उत्तरवर्ती लिपियों में भी यथावत् स्वीकृत हैं । * इस लिपि में संयुक्ताक्षर लेखन हेतु अक्षरों को ऊपर-नीचे लिखने का विधान मिलता है। अर्थात् जिस अक्षर को आधा करना होता है उसे ऊपर तथा दूसरे अक्षर को उसके नीचे लिखा जाता है। * ब्राह्मी, नागरी तथा ग्रंथ लिपियों में भी संयुक्ताक्षर लेखन हेतु यही परंपरा मिलती है । कालान्तर में नागरी लिपि में संयुक्ताक्षर लेखन परंपरा में परिवर्तन हुआ, जिसके परिणामस्वरूप संयुक्ताक्षरों को एक ही शिरोरेखा के नीचे प्रथम अक्षर For Private and Personal Use Only

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