Book Title: Shripalras aur Hindi Vivechan
Author(s): Nyayavijay
Publisher: Rajendra Jain Bhuvan Palitana

View full book text
Previous | Next

Page 289
________________ हमारी आन है विनय, प्राणी मात्र के प्रति आदर । २७६ N A RRAH श्रीपाल रास तुज मुद्रा सुन्दर सुगुण पुरंदर विश्वनो तारूजी । सूचे अति अनुपम उपशम लोला विश्वनी वारू जी ॥ जे दहन गहन होय अन्तर चारी विश्वनों तारूजी । तो किम नव पल्लव तरुवर दीसे सोहतो वारूजी . १२॥ वैरागी त्यागी तुं सौभागी विश्वनो तारूजी । तुझ शुभ मति जागी भाव भागी मूलथी बारूंजी ।। जगपूज्य तुं मारो पूज्य छे प्यारो विश्वनो तारूजी । पहेलो पण नमियो हवे उपशमियो आदर्यो वारुंजी ।।१३।। एम चौथे खंडे राग अखंडे संथुण्यो विश्वनो तारूजी । जे मुनि श्रीपाले पंचमी ढाले ते कह्यां वारूंजी ॥ जे नवपद महिमामहिमाये मुनि गावशे विश्वनो तारूजी। ते बिनय सुजस गुण कमला विमला पावशे वारूजी ।।१४।। नयविज्ञान:-नयविज्ञान एक कला हैं। इस कला से अनजान मानव किसी भी पदार्थ का स्पष्ट और सही ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता है। जैसे कि एक अंगुली के अग्रभाग को हम अंगुली नहीं कह सकते हैं। वैसे ही हम यह भी तो नहीं कह सकते हैं कि अंगुली नहीं है। अतः किसी भी विषय के सापेक्ष विचार निरूपण करे उसे नयविज्ञान कहते हैं । पर उसे शांत भाव से सहन करना रोग परिषह है । १७ कांटे कंकर पथरीली भूमि को हंसते हंसते पार करना या उस पर आनंद से संयारा कर के लेटना तृणस्पर्श परिषह है। १८ पसोने से देह व वस्त्रादि मैले होने पर उससे घृणा न कर उपयोग पूर्वक साफ कर लेना मल परिषह है। १९ मानपमान के समय न फूलना और न दुःखी होना सरकार परिषह है । २० प्रखर का न तो गर्व करना और न मंद बुद्धि से हताश होना प्रज्ञा परिषह है । २१ संद्धान्तिक अध्ययन का अभिमान न कर उसके अभाव में दुर्ध्यान का त्याग करना अज्ञान परिषह है। नरक निगोद जीव-अजीव आदि पदार्य चर्मचक्षु से अदृश्य हैं, इस में संकल्प-विकल्प उठने पर भी पूर्ण श्रद्धा रखना समकित परिषह है ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397