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आनन्द दूसरों को कष्ट देने से नहीं बल्कि स्वयं स्वेच्छा से कष्ट सहने से आता है। ३०४ - 5
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श्रीपाल राम त्याग भावना जागृत होती है, तब मनुष्य कम से कम साधन-सामग्री से भी संतुष्ट और आनंद से रहता है । इन्द्रियों के दास विषय-वासना के कीट मानव भौतिक विपुल साधन सामग्री पाकर भी संतोष का अनुभव नहीं कर सकते हैं।
__आदर्श त्याग को अपनाने से मानव के पास अनावश्यक वस्तुओं का संग्रह नहीं होता, इस से जनता किसी पदार्थ से वैचित नहीं रहती है और विश्व सहज ही अशांति के वातावरण से बच जाता है । वे मानव धन्य हैं, जो आदर्श त्याग की ओर प्रगतिशील हैं ।
५ अकिंचन धर्म:- संसार के किसी भी पदार्थ पर ममता न रखो । एक फर्टी गुदड़ी की लोलुपता-मूर्छा एक भारी परिग्रह है, न कि ममत्व के अभाव में अपार धन, धान्य और गगनचुंबी सुन्दर भवनादि । भौतिक पदार्थों पर आसक्ति रखने से विवेक नष्ट हो जाता है। इसी कारण आत्मा अपने स्वरूप से विमुख हो राह भटक जाता है। ममत्व समस्त दुःखों का मूल है। जब पर पदार्थ को अपना माना जाता है तो उसके बिनाश या वियोग के समय अधिकांश दुःख होना निश्चित है।
यदि आप आज ही यह दृढ़ संकल्प कर लें कि "मैं किसी भी पदार्थ को अपना नहीं मानता" तो फिर जीवन पर्यंत आपके जीवन में दुःख नाम की कोई भी वस्तु शेष न रहेगी। सच है, दुःख का मूल ममता और सुख का मूल समता ( अकिंचन धर्म) हैं। अध्यात्मिक प्रगति, एक अनूठा अति आनंद-मय जीवन बनाने का यह एक ही अचूक रामबाण उपाय है।
१. ब्रह्मचर्य धर्म:- संसार में अनेक धर्म और धर्माचार्य, मुल्ला काजी मौलवी हैं, संभव है प्रत्येक के सिद्धान्त और साधना में मतभेद हो सकता है किन्तु ब्रह्मचर्य व्रत के लिये (२) विनयः-ज्ञान-आगम प्रथों का अध्ययन करना, दशन समकित से भ्रष्ट न होना, प्रतिदिन सामायिक करना ज्ञानी गुरु गीतार्थी, विद्वानों का आदर सत्कार करना विनय तप है। (३) वैयावत्यः-आचाय, उपाध्याय, तपस्वी, शंक्ष-विधाओं, म्लान-रोगी, गण-अनेक आचार्यों के साथ. साची एक साथ पढ़ने वाले. कल एक ही गच्छ के साथ पढनेवाले, संघ-साधू साध्वी, श्रावक श्राविका, साधु दीक्षित मुनि, समनोज्ञ-जानादि गुणों में समान हो उनकी तन-मन-धन से सेवा करना, वयावृत्य तप है । प्रश्न-विनय और वैयावत्य में क्या अतर है ? उत्तर-विनय तो मानसिक धर्म है, और वैयावृत्य शारीरिक धर्म है। (४) स्वाध्याय: वाचना शब्द या अर्थ का पहला पाठ लेना प्रच्छना-सदेह को दूर करना, अनुप्रक्षा-सूत्र या अर्थ का अपनी बुद्धि मन से चिंतन करना । आम्नायअध्ययन किये हुए सूत्र और अर्थों का शुद्ध उच्चारण कर बार बार उसकी आवती (पाठ) करना । धर्मोपदेश-व्याख्यान देना स्वाध्याय तप है। व्युत्सर्ग: धन, घान्य, मकान बादि और कषायादि मानसिक विकारों का त्याग करना व्युत्सर्ग तप हैं। (६) ध्यान:-मन की चंचलता का त्याग करना ध्यान तप हैं। अनेक क्लिष्ट अशुभ कर्मों को क्षय कर सम्यग्दर्शन की विशुद्धि करने का बाह्य अभ्यतर तप एक रामबाण उपाय है।