Book Title: Shripalras aur Hindi Vivechan
Author(s): Nyayavijay
Publisher: Rajendra Jain Bhuvan Palitana

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Page 387
________________ मुख थी ज्ञान कथे अने, अंतर छूटयो न मोह । ते पासर प्राणी करे मात्र ज्ञानी नो द्रोह || हिन्दी अनुवाद सहित - ३७३ मानव से भगवान :- मानव का मन और हृदय एक अपार शक्ति का भंडार है । आज का मानव इस दिव्य महाशक्ति को भूल विषय-वासनाओं का दास, लोभ लालच का पुतला और मानसिक अशांति का घर बन, वह एक कस्तुरी मृग के समान राह भटक गया है। भौतिक सुखों के पीछे भागते भागते अनादि काल बीता, फिर भी परतों पर ही रहा । सच है, परद्रव्य की पराधीनता में त्रिकाल में न किसी को कुछ सुख मिला है और न मिलना ही संभव है । यदि मानव जपने शक्तिशाली मन और संकल्प का सदुपयोग कर जीवन का मोड़ बदल दे तो वह सहज ही पल में मानव से भगवान बन जाय । अनन्त सुख-समृद्धि उसके पैरो में लौटने लगे । चाहिये अपनी अन्तर आत्मा की अद्भुत शक्ति को परखने की कला । वास्तव में द्रव्य, गुण और पर्याय से आत्माभिमुख पुरुषार्थी मानव में जरा भी अन्तर नहीं | जैसे कि ( १ ) संग्रह नय की अपेक्षा अभेद दृष्टि से संपूर्ण विश्व अरिहन्त है । (२) रूचक प्रदेशों की अपेक्षा सभी अरूपी अगुरु अलघु सिद्ध है । ( ३ ) महामंत्र श्री नवकार और पंच पीठ सह सूरि मन्त्रारावक शासन प्रभावक आचार्यश्री के विशद गुणों का मनन-चिंतन कर उन्हें पाने का सतत अभ्यासी मानव भाव आचार्य है । (४) विश्वबन्धु अति लोकप्रिय परम कृपालु अंग- उपांगादि आगम शास्त्रों के पठनपाठन में संलग्न, जप, तप, परोपकारादि परायण उपाध्यायश्री के पावन गुणों का मनन चिंतन कर उन्हें पाने की कामनाचाला मानव भाव उपाध्यान है । ( ५ ) सदा सविनय विनम्र भाव से सद्गुरु की सेवा सुश्रूषा में जागरूक, अहंकार, आलस, ममता, द्वेष से दूर हर्ष, क्रोध, भ्रम और घबराहट आदि दुर्गुणों से मुक्त, आँख, कान, आदि इन्द्रियों के विजेता, भव संतप्त मानव को अमृत सम सम्मार्गदर्शक, सुख, दुःख में समभावी, सदा संतोषी, आदर्श निर्ग्रन्थ महामुनि के सद्गुणों का सतत मनन-चिंतन कर मुनिपद पाने का अभिलाषी सतत त्याग वैराग्य रंग की और अभिमुख मानव भाव साधु है । बस इसी अपेक्षा से मानव और भगवान में अभेद है । फिर तो सम- न किसी से चैर न किसी से स्नेह, संवेग मोक्षाभिलाषा, निर्वेद अनासक्त आचरण, अनुकंपा प्राणी मात्र की शुभकामना, निस्पृह सेवा, आस्था- अनन्य विशुद्ध श्रद्धा से वीतराग मार्ग, आध्यात्मिक विकास की और सतत आगे बढ़ने की अभिरुचि से ही तो सम्यग्दर्शन की विशुद्धि होती है। न कि धर्म की ठेकेदारी अर्थात् लोक-प्रदर्शन और केवल बातों के जमा-खर्च से । वास्तव में सम्यग्दर्शन ही आत्मा का चमकता चांद है ।

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