Book Title: Shripalras aur Hindi Vivechan
Author(s): Nyayavijay
Publisher: Rajendra Jain Bhuvan Palitana

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Page 381
________________ बंध मोक्ष छे कल्पना, भाखे वाणी माहि । वर्ते मोहावेश मां, शुष्क ज्ञानी से आंहि ॥ हिन्दी अनुवाद सहित REMOCRARREARRIALS२३६७ चलता मानव भी चारित्र की शरण ले लेता हो तो अनेक राजा-महाराजा-चक्रवती-इन्द्रमहाराज उसकी चरणरज अपने सिर चढ़ा कर अपने आपको धन्य मानते हैं । जय हो! जय हो !! शिव सुख-दायक सर्वविरती विशुद्ध चारित्र की । अशरण को शरण दायक परम तारक को हमारा बार बार त्रिकाल वंदन हो । कर्म और भव का जिससे अन्त हो उसे शास्त्र चारित्र कहते हैं । रे मानव ! चारित्र-पदालंकृत श्री सिद्धचक्र को तू त्रिकाल वंदन कर | जाणता त्रिहुँ ज्ञाने संयुत, ते भव मुक्ति जिणंद । जेह आदरे कर्म खपेवा, ते तप शिवतरु कदरे । भ० ॥ ११ ॥ करम निकाचित पण क्षय जाइ, क्षमा सहित जे करता । ते तप नमिये जेह दीपावे, जिन शासन उज्मता रे ॥ भ० ॥ ४२ ।। आमोसही पमुहा बहुलद्धि, होवे जास प्रभावे । अष्ट महा सिद्धि नव निधि प्रकटे, नमिये ते तप प्रभावे रे ॥भ०॥४३॥ फल शिव सुख महोटु सुर नरवर, संपत्ति जेहन फूल । तप सुर तरु सरीखो बंदु, शम मकरंद अमूल रे ॥ भ० ॥ ४४ ॥ सर्व मंगल मांहि पहेलु मंगल, वरणविये जे ग्रथे। तप पद बिहुँ काल नमि जे, वर सहाय शिव पंथे रे ।। भ० ॥१५॥ एम नवपद थुणतो निहां लीनो, हुओ तनमय श्रीपाल । "सुजस” विलासे चौथे खण्डे, एह अग्यारमी ढाल रे ।। भ०॥४६॥ कहीं भी ठिकाना नहींः-भव-भ्रमण और अनेक संकटों से छुटकारा पाने का तपाराधन एक प्रमुख साधन है । तपाराधन के बल से ही तो मोक्षगामी अनेक तीर्थकर, गणधर, मुनिराज ने परम पद पाया है । तपाराधन तो अनेक व्यक्ति करते हैं किन्तु इस साधु दिव्य तेज को पचाना बड़ी टेढ़ी खीर है । प्रायः पचानवे प्रतिशत मानव तपोबल के अजीर्ण से चिड़चिड़े महा क्रोधी बन अपने किये-कराये पर पानी फेर देते हैं। कोध एक भयंकर आग है । संभव है, आगसे जला मानव फिर भी पनप सकता है किन्तु कोष से जले का कहीं भी ठिकाना नहीं । क्रोध मानव के क्रोड पूर्व के उत्कृष्ट संयम को क्षण में

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