Book Title: Shripalras aur Hindi Vivechan
Author(s): Nyayavijay
Publisher: Rajendra Jain Bhuvan Palitana

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Page 370
________________ सच्ची महानता हृदय की पवित्रता में है। कोई आप के बारे में कुछ भी सोचे. इससे कया ? ३५६ S HARE*** श्रीपाल राम भाव के अनुमारः–रे मानव ! तु श्रीसिद्धचक्र यंत्र के पांचवे पद में विराजमान परम कृपालु + सतरह प्रकार का संयम आराधक, भ्रमर के समान बिना किसी को कष्ट दिये निर्दोष प्रत्येक घर से अति अल्प आहार ले सदा अपने स्वाध्याय, ध्यान-जप-तपमें संलग्न छः काय जीवों संरक्षण की भावना वाले, अठारह हजार भेद के शीयल रथ को खींचने में हृष्टपुष्ट बैल के समान मनोबली नव-विधि ब्रह्मचर्य व्रत धारक संत-मुनिराज को बंदना कर अपना जन्म सफल कर । महान् पुण्योदय से ही तो अनेक जन्मों के बाद संत मुनिराज के दर्शन होते हैं । मुनि जीवन भी एक समस्या है । इसमें भूख-प्यास, शीत-ताप, झुठे कलंक, मिथ्या-भ्रम, लोकनिंदा, अपमानादि ऐसे अनेक विचित्र प्रसंगादि खड़े हो जाते हैं कि उस समय मुनियों की कठोर परीक्षा हुए बिना नहीं रहती । किन्तु ऐसे समय में आत्मार्थी त्यागीतपस्वी, शांत-दांत, साधु साध्वी अपने पवित्र आचार-विचार सहनशीलता से स्वर्ण-से चमक उठते हैं । फिर आध्यात्मिक विचार से उनके जीवन की सुनहली कांति दिन दूनी रात रात चौगुनी निखर कर उन्हें सदा के लिये प्रातः स्मरणीय बना देती है। सच है, जैसे घीसने, काटने, ठोकने-पीटने और तपाने से सोने की परीक्षा होती है, वैसे ही परिपहादि अग्नि-परीक्षा से मुनियों की । परम उत्कृष्ट, त्यागी-तपस्वी वीतराग साधु-साध्वियों का सत्संग और उनके पुण्य दर्शन का लाभ तीसरे-चौथे आरे में या महाविदेह क्षेत्र आदि पुण्य भूमि में ही संभव है किन्तु अभी इस कलियुग में द्रव्य क्षेत्र-कालभाव के अनुसार जो साधु-साध्धियाँ उत्तम चारित्र + सतरह प्रकार:- के संयम का वर्णन पृष्ठ ३०२ के नाट में देखें । अठार-सहस शीलः—मन, वचन और काया इन तीन योगों को करण करावण और अनुमोदन इन तीन से गुणा किया तो ३ x ३ = ५ हुए। फिर नौ को आहार, भय, मैथन और परिग्रह इन चार से गुणा किया ९x४ = ३६ हुए। फिर ३६ को पांच इन्द्रियों से गुणा किया तो ३६ ४५ = १८० हुए। फिर इसको पृथ्वी कायादि पांच, विकलेन्द्रिय तीन, संजी असंजी दो. कुल दस से गुणा किया तो १८०x१० = १८०० हुए। फिर इस को दस प्रकार के यति धर्म से गुणा किया तो इसको १८००४ १० = १८००० भेद हुए। * नव-विध ब्रह्मचर्यः-(१) पशु-शाला में न ठहरें। (२) स्त्रिमों के साथ एकान्त में बात न करें। (३) जहाँ स्त्री पहले बैठी हा उस स्थान गर ब्रह्मचारी पुरुष को और जहां पहले पुरुष बैठा हो वहाँ स्त्री दो घड़ी (४८ मि.) तक न बैठ । (४) स्त्री-पुरुष को और पुरुष स्त्री की सुन्दरता को घर-घर कर न देखे। (५) ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण करके पूर्व के अनुभूत भोगादि की कभी चर्चा न करें। (६) गृहस्थों के शयनादि स्थान के निकट ब्रह्मचारी शयन न करें। (७) ब्रह्मचारी विषय जाग उठे ऐसी औषधियाँ और पौष्टिक पदार्थों को न लें। (८) ब्रह्मचारी अपने शरीर को टाप-टीप न करे। (९) ब्रह्मचारी अधिक भोजन न करें।

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