Book Title: Shripalras aur Hindi Vivechan
Author(s): Nyayavijay
Publisher: Rajendra Jain Bhuvan Palitana

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Page 316
________________ संयम और त्याग के रास्ते ही शान्ति आनन्द तक पहुंचा जा सकता है । हिन्दी अनुवाद सहित 25% % %A5% 8२ ३०३ पूर्ति की मृगतृष्णा में बड़ा दुःखी हो रहा है | निरंकुश कामनाओं के फल-स्वरूप ही संसार अनेक प्रकार के संघर्षों का अखाड़ा बन रहा है । कोई नहीं जानता कि मनुष्य की कामना किस केन्द्र पर जा कर रुकेगी और कब मनुष्य की उलझनों और संघर्षों की इतिश्री होगी? यह जानना संभव भी नहीं हैं। क्यों कि: “इच्छा हु आगास ससा कर्णतिया " जैसे आकाश अनंत है, उसी प्रकार इच्छाएं भी अनंत हैं। एक इच्छा की पूर्ति होने से पहले ही अनेक नवीन इच्छाएं उत्पन्न हो जाती हैं, अतः जैसे आध्यात्मिक उन्नति के लिये संयम की आवश्यकता है, उसी प्रकार लौकिक समस्याओं को सुलझाने के लिये भी वह अनिवार्य है। *७ तपो धर्मः- जीवन को सफल बनाने और क्लिष्टकर्म क्ष्य करने का तप एक महत्त्वपूर्ण उपाय है । तपस्या से समस्त कार्य सिद्ध होते हैं । तप असाधारण मंगल है । कई लोग धूनी तापना, काटों पर लेटना, गर्मी के दिनो में धूपमें खड़ा हो जाना, शीतकाल में वस्त्ररहित बैठना आदि को ही तप मान बैठते हैं, किन्तु यह ता नहीं केवल काय क्लेश मात्र है। वास्तविक तप वही है जिससे कि आत्मा के गुणों का पोषण हो । तप के दो विभाग हैं, बाह्य और अभ्यंतर, उपवास करना, कम खाना, अमुक वस्तु का त्याग कर देना आदि बाह्य तप है, और अपनी भूलों एवं अपने अपराधों के लिये प्रायश्चित करना, गुरुजनों की विनय करना, सेवा करना, स्वाध्याय करना और त्याग अभिग्रह करना अभ्यंतर तप है। सत्याग धर्म:- अप्राप्त भौतिक पदार्थों की इच्छा का त्याग और सन्मुख ___ उपस्थित वस्तुओं से विमुख होना ही तो आदर्श त्याग है। जीवन में जब वास्तविक * तप के बारह भेद है छः बाह्यः-(१) बनशन:-मर्यादित समय तक या जीवन के अन्त तक प्रत्येक आहार-पानी का त्याग करना-अनशन तप है। (२) उनोदरी:-अपनी भूख हो उससे अल्प भोजन करना उनोदरी तप है। (३) वृत्ति संक्षेप:-प्रत्येक वस्तु के लालच को कम करना वृत्ति संक्षेप है । (४) रस त्याग:-दही, दूध, घृत, शक्कर, तेल और गुड़ विकारवर्धक पदार्थों का सर्वपा या प्रतिदिन यथाशक्ति एक, दो, तीन वस्तु को त्याग करना रस परित्याग तप है । (५) पाय्यासन संलीनता:-किसी एकान्त निविघ्न स्थान पर रह कर भजन करना शय्या-सलीनता तप हैं। (६) काय म्लेशः-ठंड, गरमी, केश लवन या अनेक प्रकार के आसनों से अपने शरीर को कष्ट देना काय क्लेश तप है । छः अभ्यन्तरः-(१) प्रायश्चित्त-ग्रहण किये हुए व्रतों में प्रमादव लगने वाले दोषों को आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सग, सप, छंद, परिहार और उपास्थापना आदि से शुवि हो वह प्रायश्चित्त तप है।

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