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हमारे इस 'कुछ अंश' का तात्पर्य यह है कि इन सभी ग्रन्थों में व्यवस्थितरूप से भगवान् की छद्मस्थावस्था की ही चर्चा है । केवलि-जीवन के ३० वर्ष का लंबा समय भगवान् ने कहाँ व्यतीत किया, कौन-सा वर्षाचातुर्मास्य किस स्थान में किया और वहाँ क्या क्या धर्मकार्य हुए कौनकौन प्रतिबोध पाये इत्यादि बातों का कहीं भी निरूपण नहीं मिलता । पिछले चरित्रों में भगवान् के केवलि-जीवन के कतिपय प्रसंगों का वर्णन अवश्य दिया है, परन्तु उनमें भी काल-क्रम न होने से चरित्र की दृष्टि से वे महत्त्वहीन हो गये हैं । यह सब होते हुए भी हमने इन चरित्रों का उपयोग किया है। आगे हम इनका क्रमशः 'क' 'ख' ओर 'ग' चरित्र के नाम से उल्लेख करेंगे ।
___हमारी शिकायत केवल चरित्रों के संबंध में ही नहीं बल्कि मौलिक सामग्री की अव्यवस्था के संबन्ध में भी है । आचाराङ्गसूत्रकार भगवान् के तप के संबन्ध में लिखते हैं ।
"छटेणं एगया भुंजे अहवा अट्ठमेणं दसमेणं दुवालसमेणं एगया भुंजे ।"
अर्थात्-'वे कभी दो उपवास के बाद भोजन करते हैं, कभी तीन, कभी चार और कभी पाँच उपवास के अन्त में भोजन करते हैं।'
अब आवश्यकनियुक्ति, भाष्य और चूर्णिकार का मत देखिये । इन ग्रन्थों में महावीर के सम्पूर्ण तप और पारणा के दिन गिनाये गये हैं, जिनमें चार और पाँच उपवास के तप का उल्लेख नहीं है।
इसी प्रकार आवश्यक में महावीर की छद्मस्थावस्था का समय बराबर १२ वर्ष ६ मास और १५ दिन का माना है और इसी हिसाब से उनके तप और पारणों की दिन-संख्या मिलाई है; परन्तु महावीर ने मार्गशीर्ष कृष्णा १० मी को दीक्षा ली और तेरहवें वर्ष वैशाख शुक्ला १०मी को केवलज्ञान पाया । यह छद्मस्थकाल सौर वर्ष की गणना से १२ वर्ष और साढ़े पाँच मास, प्रकर्म संवतसर की गणना से १२ वर्ष साढ़े सात मास और चान्द्र संवत्सर की गणना से १२ वर्ष साढ़े नौ मास होता है । आवश्यकार की कही हुई १२ वर्ष साढ़े छः मास की
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