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क्योंकि उसके मत से राजगृह के पास वाला आधुनिक 'कुण्डलपुर' स्थान ही 'ब्राह्मणकुण्ड' था । परन्तु वास्तव में ब्राह्मणकुण्डपुर वैशाली के पास था जो राजगृह के बाद आता था । इस दशा में ब्राह्मणकुण्ड जाने का तात्पर्य हम यही समझते हैं कि राजगृह में वर्षावास पूरा होने के बाद वे विदेहभूमि में गये थे और ब्राह्मणकुण्ड क्षत्रियकुण्ड आदि में ऋषभदत्त जमालि आदि को दीक्षायें दी थीं।
(३) 'ख' के लेखानुसार भगवान् ब्राह्मणकुण्ड से क्षत्रियकुण्ड हो कर कौशाम्बी गये थे और वहाँ से फिर वाणिज्यग्राम जाकर आनन्द गाथापति को श्रमणोपासक बनाया था । विदेह से वत्सदेश और वत्स से फिर विदेह में आने के बाद उनका वर्षावास वैशालीवाणिज्यग्राम में होना ही अवसर प्राप्त था । इसी आधार पर तीसरा वर्षावास हमने वाणिज्यग्राम में बताया है।
(४) 'ख' और 'ग' दोनों के मत से भगवान् वाणिज्यग्राम से चम्पा की तरफ विचरे थे और कामदेव गाथापति को श्रमणोपासक बनाया था, परन्तु हमारे विचार के अनुसार वे सीधे चम्पा न जाकर पहले राजगृह गये थे और वर्षावास वहीं व्यतीत करने के बाद चम्पा गये थे
भगवतीसूत्र में भगवान के चम्पा से वीतभय जाकर उदायन राजा को दीक्षा देने का लेख है । उदायन अभयकुमार के पहले दीक्षित हो चुके थे । यही नहीं बल्कि वे ग्यारह अंग-पाठी मुनि थे । इन बातों पर से यही मानना पड़ता है कि उदायन की दीक्षा बहुत पहले की घटना है । अतः भगवान् इसी विहार-क्रम में चम्पा से वीतभय गये होंगे, यह भी सिद्ध है । यदि वाणिज्यग्राम से चम्पा और चम्पा से वीतभय जाने की बात मानी जाय तो विहार बहुत लंबा हो जाता है । यों ही चम्पा से वीतभय एक हजार मील से भी अधिक दूर है, वाणिज्यग्राम से चम्पा हो कर वीतभय जाने में यह दूरी एक सौ पच्चीस मील के लगभग और भी बढ़ जाती है, इसलिये राजगृह से चम्पागमन मानना ही उचित प्रतीत होता है।
(५) वीतभय से भगवान् ने उसी वर्ष में अपने केन्द्रों की तरफ विहार किया था और गर्मी के कारण स्थलभूमि में उनके श्रमण
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