Book Title: Shatrunjay Kalpa Vrutti Part 02
Author(s): Shubhshil Gani, Mahabhadrasagar, Kapurchand R Varaiya
Publisher: Shraman Sthaviralay Aradhana Trust

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Page 458
________________ ૧૩ लहई य उववासफलं, सित्तुंजे पुप्फमाल दस दिंतो; वीसाए छट्ठफलं, तीसाए अट्ठमं लहइ. ॥९६॥ चत्तालीसे दसमफलं, पन्नासाए उ खवण बारसगं; पक्खोववासं लहइ, दाणं दाऊण सेत्तुंजे. ॥९७।। पासक्खमणं तु लब्भइ, कप्पूरागर तुरूक्क धूवेण; कत्तिय मासक्खमणं, साहूपडिलाहेण लहइ. ॥९८॥ वैसाहे मासखमणं, पुंडरीए जो करेइ जिणभवणे; सो होइ चक्कवट्टी, चउसट्ठी सहस्सजुवइपई. ॥९९।। पडिमा ठवणे पुण्णं, सहस्स दाणेण लहइ सित्तुंजे; जिणभवणे जं पुण्णं, लक्ख पयाणेण सो लहइ. ॥१००॥ सय दाइ सहस्स दाइ, लक्ख-पयाणेण सत्तीणुसारे; कीवोइ देइ कागिणी, तिन्नि समा हुंति नायव्वा. ॥१०१।। उत्तम दाणं दितो, उत्तम पुरुसो य होइ अन्न भवे; मज्ञण होई मज्झो, हीणयरे होइ दारिद्दो. ॥१०२।। दाणेण होइ भोगी, वच्चइ सग्गे तवेण उज्जुत्तो; नाणागमं करित्ता, भावविसुद्धो लहइ मुक्खं. ।।१०३॥ जीवियदाणं लद्धं, जीवाण मुक्ख निच्छयं नाउ; सुहकारणं तु पंथो, मयस्स किं दव्वभोगेहिं. ॥१०४।। _ जीवन्तो परिभुंजइ, आहारं पुप्फवत्थ गंधाईं; तंबोल इत्थीसुहं, सयणासण खज पाणाई. ॥१०५॥ जीवियदाणं दितो, देइ सया जीवभोग परिभोगो; भोगेत्थिणा निरूत्तं, दायव्वं जीविये जीयं. ॥१०६॥ सग्गं अवस्स वच्चइ, तव संजम समिय गुत्ति संजुत्तो; दसविह धम्मंमि विऊ, वच्चइ सग्गं निरुवसग्गं. ॥१०७।। सग्गत्थिणा निरुत्तं, सुव्वइ धम्मो जिणेहिं निदिट्ठो; सग्गं वा तं न लभे, जिणवयणं जं न सद्दहइ. ॥१०८॥ जीवे जिणपन्नत्ते, असद्दहंतो य जो तवं चरइ; सो अन्नाणी मूढो, कायकिलेसो होइ तवो. ॥१०९॥

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