Book Title: Shatkhandagama Pustak 14
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 12
________________ देशों औरप्रदेशोंके साथ और आकाशस्तिकायका अपने देशों और प्रदेशोंके साथ अनादिकालीन जो बंध है वह अनादि विस्रसाबंध कहलाता है तथा जो स्निग्ध और रूक्षगुणयुक्त पुद्गलोंका जो बन्ध होता है वह सादि विस्रसाबन्ध कहलाता है। सादिविस्रसाबन्धके लिए मूल ग्रन्थका विशेषरूपसे अवलोकन करना आवश्यक है। नाना प्रकारके स्कन्ध इसी सादि विस्रसाबन्धके कारण बनते हैं। प्रयोगबन्ध दो प्रकारका है- कर्मबन्ध और नोकर्मबन्ध । नोकर्मबन्धके पाँच भेद हैंआलापनबन्ध, अल्लीवणबन्ध, संश्लेषबन्ध, शरीरबन्ध और शरीरिबन्ध । काष्ठ आदि पृथग्भूत द्रव्योंको रस्सी आदिसे बाँधना आलापनबन्ध है। लेपविशेषके कारण विविध द्रव्योंके परस्पर बंधनेको अल्लीवणबन्ध कहते हैं लाख आदिके कारण दो पदार्थों का परस्पर बंधना संश्लेषबन्ध कहलाता है। पांच शरीरोंका यथायोग्य सम्बन्धको प्राप्त होना शरीरबन्ध कहलाता है। इस कारण पांच शरीरोंके द्विसंयोगी और त्रिसंयोगी पन्द्रह भेद हो जाते हैं। नामोंका निर्देश मूल में किया ही है। शरीरबन्धके दो भेद हैं- सादि शरीरबंध और अनादिशरीरबन्ध । जीवका औदारिक आदि शरीरोंके साथ होनेवाले बन्धको सादिशरीरबन्ध कहते हैं। यद्यपि तैजस और कार्मणशरीरका जीवके साथ अनादिबन्ध है पर यहां अनादि सन्तानबन्धकी विवक्षा न होनेसे वह सादिशरीरबन्धमें ही गभित कर लिया गया है। कर्मबन्धका विशेष विचार कर्मप्रकृति अनुयोगद्वारमें पहले ही कर आये हैं । २ बन्धक बन्धकका विशेष विचार खुद्दाबन्धमे ग्यारह अनुयोगद्वारोंका आलम्बन लेकर पहले कर आये हैं, इसलिए यहाँ इस विषयकी सूचनामात्र दी गई है। ३ बन्धनीय जीवसे पृथग्भूत जो कर्म और नोकर्म स्कन्ध हैं उनकी बन्धनीय संज्ञा है । वे पुद्गल द्रव्य, क्षेत्र काल और भावके अनुसार वेदनयोग्य होते हैं । ऐसा होते हुए भी वे स्कन्ध पर्यायसे परिणत होकर ही वेदनयोग्य होते हैं ऐसा नियम है । उसमें भी सभी पुद्गलस्कन्ध वेदनयोग्य नहीं होते किन्तु तेईस प्रकारको वर्गणाओंमें जो ग्रहणप्रायोग्य वर्गणायें हैं उनके कर्म और नोकर्मरूप परिणत होनेपर ही वे वेदनयोग्य होते हैं अत: यहाँ वर्गणाओंका अनुगम करते हुए उनका इन आठ अनुयोगद्वारोंका अवलम्बन लेकर विचार किया गया है। वे आठ अनुयोगद्वार ये हैं- वर्गणा, वर्गणाद्रव्यसमुदाहार, अनन्तरोपनिधा, परम्परोपनिधा, अवहार, यवमध्य पदमीमांसा और अल्पबहुत्व । वर्गणा- वर्गणाके दो भेद है- आभ्यन्तर वर्गणा और बाह्य वर्गणा । आभ्यन्तरवर्गणा दो प्रकारको है- एकश्रेणिवर्गणा और नानाश्रेणिवर्गणा । उनमें से एकश्रेणिवर्गणाका सर्व प्रथम सोलह अनुयोगद्वारोंका आलम्बन लेकर विचार किया गया है । वे सोलह अनुयोगद्वार ये हैंवर्गणानिक्षेप वर्गणानयविभाषणता, वर्गणाप्ररूपणा, वर्गणानिरूपणा, वर्गणाध्रुवाध्रुवानुगम, वर्गणासान्तरनिरन्तरानुगम, वर्गणाओजयुग्मानुगम, वर्गणाक्षेत्रानुगम, वर्गणास्पर्शनानुगम, वर्गणाकालानुगम, वर्गणाअन्तरानुगम, वर्गणाभावानुगम, वर्गणाउपनयनानुगम, वर्गणापरिमाणानुगम वर्गणाभागाभागानुगम और वर्गणाअल्पबहुत्वानुगम । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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