Book Title: Shat Pahuda Grantha
Author(s): Jain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
Publisher: Jain Siddhant Pracharak Mandali Devvand

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Page 11
________________ अर्थ-जो पुरुष पञ्चम काल की दुष्टता से बच कर सम्यक्त, शान, दर्शन, बल, बीर्य में बढ़ते हैं वह थोड़े ही समय में केवल ज्ञानी होते हैं। सम्मत्त सलिलपवाहो णिचं हियए पवाए जस्स । कम्मं वालुयवरणं बंधुब्बिय णासए तस्स ॥ ७ ॥ सम्यक्त्व सलिलप्रवाहः नित्यं हृदये प्रवर्तते यस्य । कर्म वालुकावरणं बद्धमपि नश्यति तस्य । अर्थ-जिस पुरुष के हृदय में सम्यक्त रूपी जल का प्रवाह निरन्तर बहता है उसको कर्म रूपी बालू (धूल ) का आवरण नहीं लगता है और पहला धन्धा हुवा कर्म भी नाश होजाता है। जे दंसणेसु भट्टा णाणे भट्टा चरित्त भट्टाय । एदे भट्टविभट्टा सेसपि जणं विणासंति ॥ ८॥ ये दर्शनेषु भ्रष्टाः ज्ञान भ्रष्टा चरित्र भ्रष्टाश्च । एते भ्रष्टविभ्रष्टाः शेषमपि जनं विनाशयन्ति ।। अर्थ-जो पुरुष दर्शन में भ्रष्ट हैं, ज्ञान में भ्रष्ट हैं और चारित्र में भ्रष्ट हैं वह भ्रष्टा में भी अधिक भ्रष्ट हैं और अन्य पुरुषों को भी नाश करते हैं अर्थात् भ्रष्ट करते हैं। जो कोवि धम्मसीलो संजमतव णियम जोयगुणधारी । तस्सं य दोस कहन्ता भग्गभग्गांत्तणं दन्ति ।।१॥ यः कोपि धर्मशीलः संयमतपो नियम योगगुणाधारी । तस्य च दोषान् कथयन्तः भग्नाभग्नत्वं ददाति ॥ अर्थ-जो धर्म में अभ्यास करने वाले और संयम, तप, नियम योग, और गुणों के धारी हैं ऐसे पुरुषों को जो कोई दोष लगाता है वह आप भ्रष्ट है और दूसरों को भी भ्रष्टता देता है। जह मूल म्मिविणहे दुमस्स परिवार पत्थिपरिवट्टी । तह निणदंसणभट्टा मूलविणहा ण सिझंति ॥१०॥

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