Book Title: Shat Pahuda Grantha
Author(s): Jain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
Publisher: Jain Siddhant Pracharak Mandali Devvand

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Page 10
________________ ( २ ) दर्शन भ्रष्टाभ्रष्टाः दर्शनभ्रष्टस्यनास्तिनिर्वाणम् । सिद्धन्तिचरित्रभ्रष्टा दर्शनभ्रष्टा न सिद्धन्ति ॥ अर्थ- जो कोई जीव दर्शन अर्थात् श्रद्धान में भ्रष्ट है वह भ्रष्ट ही है, जो दर्शन में भ्रष्ट है उसको मुक्ति नहीं होती है। जो चारित्र में भ्रष्ट हैं वह तो सिद्धि को प्राप्त हो जाते हैं परन्तु जो दर्शन में भ्रष्ट हैं वह सिद्धि को प्राप्त नहीं होते हैं। सम्पतरयणभट्टा जाणतावहुविहाइ सत्थाई | आराहणाविरहिया भमन्ति तत्थेव तत्थेव ॥ ४ ॥ सम्यक्तरत्नभ्रष्टा जानन्तो बहुविधानि शास्त्रानि । आराधनाविरहिता भ्रमन्ति तत्रैव तत्रैव ॥ अर्थ - बहुत प्रकार के शास्त्र जाननेवाल भी जो सम्यक्त रूपी रत्न से भ्रष्ट हैं वह आराधना अर्थात श्रीजिनेन्द्र के वचनों की मान्यता में अथवा दर्शन ज्ञान चारित्र और तप इन चार प्रकार की आराधना से रहित होकर संसार ही में भ्रमते हैं संसार ही भ्रमते हैं 1 सम्पत्त विरहियाणं सुच्छ वि उग्गं तव चरंताणं । ण लहंति वोहिलाई अवि वास सहसकोडीहिं ॥ ५ ॥ सम्यक्त्व विरहितानाम सुष्ठु अपि उयंतपः चरताम् । न लभन्ते बोधिलाभम् अपिवर्ष सहस्रकोटीभिः || अर्थ – जो पुरुष सम्यक्त रहित है वह यदि हज़ार करोड़ वर्ष तक भी अत्यंत भारी तपकरे तौ भी बोधिलाभ अर्थात् सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र रूप अपने असली स्वरूप के लाभ को नहीं प्राप्त कर सक्तं हैं। सम्पत्तणाण दंसण बळ वीरिय वहमाण जे सच्चे । कलिकलुसया विरहिया वर णाणी होंति अइरेण || ६ || सम्यक्त्वज्ञान दर्शन बल वीर्य वर्धमाना ये सर्वे । कलिकलुषता विरहिता वर ज्ञानिनो भवन्ति अचिरेण ।

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