________________
गुरुनिश्रा में इन्होंने कुछ वर्षों में ही जो परिपक्वता प्राप्त कर ली थी उसे देखकर प.पू. साहित्योपासक आचार्यप्रवर श्री सागरचन्द्रसूरिजी (उस समय आचार्य नहीं बने थे)ने पू. गुरुणीजी को ओर पू. दयाश्रीजी को कहा कि आप मारवाड़ का क्षेत्र संभालो तो अच्छा होगा। पू.श्री सागरचन्द्रजी महाराज के वचन को आदेश तुल्य मानकर गुरुणीजी ने दयाश्रीजी आदि ठाने को मारवाड़ की ओर जाने की आज्ञा दी। पूज्य श्री प्रमाणश्रीजी एवं दयाश्रीजी उत्साहपूर्वक मारवाड़ पधारे। उस समय विहार में बहुत मुश्किलें थीं। विविध परीषहों को सहते हुए क्रमशः पहली बार १९७८ में बीकानेर पहुंचे। मारवाड़ प्रदेश के साथ कोई ऐसा ऋणानुबंध होगा कि आगे इनकी विहारयात्रा बहुतायत से उसी प्रदेश में चलती रही।
___ बीकानेर संघ के तत्कालीन भक्तिवान श्रावक अग्रणी श्रीमान् बादरमलजी, हीरालालजी, उदयचंदजी, जेवतमलजी, चांदमलजी, किशनचंदजी, विशनचंदजी, आनंदमलजी आदि के आग्रह से वि. सं. १९७८ का चातुर्मास बीकानेर में किया और यहीं से वे मरुधर की धर्मधरा से जुड़ गए। श्रावक-श्राविकाओं को इनके संयमी जीवन का और प्रेरणादायिनी वाणी का रंग लग गया।
चातुर्मास के बाद क्रमशः रूण पधारे। यहां के संघ की लगनभरी भावना का स्वीकार कर दूसरा चातुर्मास सं. १९७९ का रण में किया। अथक परिश्रम से श्रावक-श्राविकाओं में धर्मानुराग एवं धर्मभावना का सिंचन किया। रूणवासियों पर पूज्यश्री के उपदेश का गहरा असर पड़ा, गच्छ एवं धर्म की आस्था दृढ होने लगी। धर्मावलंबन के प्रभाव से रण की स्थिति ही बदल गई। प्रतिदिन साधनसंपन्नता और समृद्धि में वृद्धि होती गई। आज भी रूण वास्तव्य जनता मुक्त कण्ठ से कहते हैं कि पूज्यश्री ने हमारे पर जो उपकार किया है उससे हम कभी ऊऋण नहीं हो सकेंगे।
- पूज्यश्री ने मारवाड़ को अपनी कर्मभूमि बनाई। उग्रविहार और भारी कष्ट उठाते हुए वहां विचरे। इनके प्रतिबोध से ही समस्त रूण संघ मंदिरमार्गी बना-पार्थचंद्रगच्छ का अनुरागी बना। मंदिर, दादावाड़ी आदि का जीर्णोद्धार करवाया। नूतन उपाश्रय का निर्माण हुआ। स्कूल-दवाखाने नहीं थे, वे भी पूज्यश्री दयाश्रीजी महाराज के प्रयत्नों से हुए।
बीकानेर में भी पूज्यश्री ने बड़ा उपकार किया। यहाँ के श्रावक पार्थचन्द्रगच्छ की क्रिया करते, पर श्राविकाएँ तपागच्छ की क्रिया करती थीं। पू. दयाश्रीजी महाराज ने सभी को संपूर्ण क्रियाविधि का शिक्षण दिया। मारवाड़ में पार्थचन्द्रगच्छ की नींव को मजबूत करने में पू. प्रमाणश्रीजी म. एवं दयाश्रीजी म. का विशेष योगदान है।
बीकानेर, रूण, नागोर, भूपालगढ़, बडलू, कडलू, मेड़ता, कुचेरा, खजवाणा आदि क्षेत्रों में पूज्यश्री के विचरण से उन दिनों अच्छी धार्मिक जागृति आई। कुछ वर्षों तक गुजरात-कच्छ-मारवाड़ के बीच उनका विहार होता रहा, सं. २००३ के बाद मारवाड़ में ही विचरते रहे।
इनकी शिष्या व्यवहार विचक्षण पू. श्री पुण्योदयश्रीजी और प्रशिष्याएँ सलात्मा सा.अनुभवश्रीजी, सा.श्री पद्मप्रभाश्रीजी, सा.श्री सुव्रताश्रीजी, सा.श्री मुरुत्प्रभाश्रीजी - सभी राजस्थान से ही प्राप्त हुए।
आपकी प्रेरणा से बीकानेर के मंदिर, दादावाड़ी एवं उपाश्रय का जीर्णोद्धार हुआ। हिन्दीभाषी श्रावकों के लिए पंच प्रतिक्रमण सूत्र, जीवविचार आदि पुस्तक प्रकाशित करवाये। नागोर की સંઘસૌરભ
= ७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org