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सम्पचा नवसामणिः योग्य हैं। इन सब परिग्रहोंका मन, वचन, काय-त्रियोगसे त्याग करना अपरिग्रह महावत है। अन्तरङ्ग, बहिरङ्ग-दोनों प्रकारके परिग्रहका त्याग करने वाला मनुष्य' शीघ्र ही केवलज्ञानको प्राप्त होता है। परिग्रहसे दुःखी जीव भवभवमें-अनेक भवोंमें भ्रमण करता है। जिस प्रकार मनुष्य शिरपर स्थित भारको उतार कर सुखी हो जाता है उसी प्रकार मुनि परिग्रहका भार उतारकर सुखी हो जाता है । पोठपर बहुत भारी भारको बांधने वाला मनुष्य जिस प्रकार समुद्र में डूबता है उसी प्रकार परिग्रहको ग्रहण करने वाला मनुष्य संसार सागरमें नियमसे डूबता है ।। ८४-६२॥ आगे अपरिग्रह महाव्रतमें दोष लगानेवाले मुनियोंका वर्णन करते हैं
पूर्व परिग्रहं त्यक्त्वा नग्रंण्यं प्रतिपद्यते । पश्चात् परिग्रहं व्याजात स्वीकरोति तु यो नरः॥१३॥ स निपानाद विनिर्गत्य तत्रैव पतनोग्रतः। संघ सञ्चालयिष्यामि निर्मास्यामि ध मन्दिरम् ॥ १४ ॥ इति व्याजो न कर्तव्यो धृत्वा निर्ग्रन्थमुद्रिकाम् । ये हि निग्रंन्यता प्राप्य स्वीकुर्वन्ति परिप्रहम् ॥ १५ ॥ नरकेषु निगोवेषु तेषां पातः सुनिश्चितः। पदि कर्तृत्ववाञ्छा ते न गताः गृहतिनी ।। ९६ ॥ केनोरुस्तवं मुनिभूर्या गृहत्यागं विधेहि च । यथा हि निर्मले चन्द्र कलङ्को दृश्यते द्रुतम् ॥ ९७ ।। तथाहि निर्मले साधी दोषः क्षोऽपि दृश्यते । मुनिना नव तस्कार्य दोषास्पदमिह क्वचित् ॥ ९८ ।। घेन निम्रन्थमुनाया अपवावो भवेदिह । कठिना साधुचर्यास्ति खङ्गाधारागतिर्यथा ॥ ९९ ॥ निग्रन्थतां तु सन्धर्तु सामर्थ नास्ति चेत्तव ।
श्रद्धामात्रेण सन्तुष्टो भव हे भव्यशिरोमणे ।। १०० ॥ अर्थ-जो मनुष्य पहले परिग्रहका त्यागकर निग्रंथ दोक्षाको प्राप्त होता है और पोछे किसो कार्यके व्याज-बहानेसे परिग्रहको स्वोकृत करता है वह कूपसे निकल कर पुनः उसी क्रूपमें गिरनेके लिये उद्यत है। मैं संगृहीत परिग्रहके माध्यमसे संघका संचालन करूँगा और मन्दिर बनवाऊँगा इस प्रकारका व्याज निर्ग्रन्थ मुद्रा धारण कर नहीं करना चाहिये । जो निग्रन्थता-दिगम्बर मुद्राको प्राप्त कर परिग्रहको