Book Title: Samyak Charitra Chintaman
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 171
________________ सभ्यश्चारित्र-चिन्तामणिः त्याग करना ब्रह्मचर्माण अत है । चेतन-अचेतन धनधान्यादि वस्तुओंका जो एकदेश त्याग है उसे परिग्रह परिमाणाणुव्रत जानना चाहिए। यह अत मनुष्योंके सौजन्यका कारण है। वास्तबमें बढ़ती हुई इच्छा हो मनुष्योंके दुखका कारण है ।। ६.१४ ॥ आगे तीन गुणवतोंका वर्णन करते हैं अणुव्रतानां साहाय्यकरणं स्यात् गुणवतम् । दिशात्रतादिभेदेन तच्चेह त्रिविधं मतम् ।। १५ ।। प्राच्यपात्यादिकाष्ठासु यातायातनियन्त्रणम्। यायजीवं भवेत्काष्ठा व्रतमाचं गुणवतम् ॥ १६ ॥ काष्ठावतस्य मर्यादा मध्ये ह्यधिरकालकम् । यो हि नाम भवेन्नाम तरच वेशवतं स्मृतम् ॥ १७ ॥ मनो वाक्काय चेष्टा या सा हि वण्रः समुच्यते। अर्यो न विद्यते यस्य दण्डः सोऽनर्थको मतः ।। १८॥ त्यागश्चानर्थदण्डस्यानर्थदण्डवतं मतम् । कृष्यादिपापकायांणामुपदेशो निरर्थकः ।। १९।। दीयते यः स पापोपदेशो ह्यनर्थदण्डकः । तस्य त्यागो विधातव्यः पापात्रवनि रोधिभिः ॥ २० ॥ घनुर्वाणादि हिसोपकरणानां निरर्थकम् । हिसादानं प्रवानं स्यात्तत्यागस्तु व्रतं स्मृतम् ।। २१॥ रागद्वेषाविद्धिः स्याद् यासां श्रवणतो नृणाम् । ता हि :श्रतयो शेयास्तत्यागस्तु वतं मतम् ॥ २२ ॥ अन्येषां वधसन्धादि चिन्तनं रागरोषतः। अपध्यानं भवेत् त्यागस्तस्य च स्यान्महद् व्रतम् ॥ २३ ॥ शैलाराम समुद्रादौ यद् भ्रमणं निरर्थकम् । मताप्रमादचयों सा तत्यागो व्रतमुच्यते ।। २४ ॥ अर्थ-जो अणुक्तोंकी सहायता करता है वह गुणत्रत है। दिग्व्रत आदिके भेदसे वह गूणव्रत तोन प्रकारका माना गया है। पूर्व-पश्चिम आदि दिशाओंमें जीवन पर्यन्त के लिये यातायातको नियन्त्रित करना दिग्वत नामका पहला गुणवत है। दिग्वतको मर्यादाके बोचमें कुछ समयके लिए जो नियम लिया जाता है वह देशवत माना गया है। मन, वचन, कायकी जो चेष्टा है वह दण्ड कहलाती है। जिसका कोई प्रयोजन नहीं है वह अनर्थ कहलाता है, अनर्थदण्डका त्याग करना अनर्थ

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