Book Title: Samyak Charitra Chintaman
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 193
________________ १६८ सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः ____ अर्थ-देशतके प्रभावसे मनुष्य सोलह स्वगं तक उत्पन्न होते हैं और वहांसे च्युत होकर उत्तम पुरुष होते हैं। बती तियञ्च भो सोलहवें स्वर्ग तक जाते हैं और वहाँसे च्युत हो मनुष्य भव लेकर पृथिवो पर आते हैं ।। ३८-३६ ॥ आगे देशव्रती तिर्यञ्चों और मनुष्योंका निवास बतलाते हैं वेशनतन संयुक्तास्तिर्यञ्चो मानवास्तया। सार्धद्वयेषु द्वीपेषु निवसन्ति यथास्थिति ॥ ४० ॥ केचिन् नियंदा जीना देशमा निषिताः । स्वयंभरमणे द्वीपे निवसन्ति प्रमोवतः ॥४१॥ एते पूर्व भवायात सुसंस्कार प्रमावतः। उपदेशाइते सन्ति देशवतं विभूषिताः॥ ४२ ।। नियमेन स्वर्ग यान्ति भोरवो जीवघाततः । विरक्ता भवभोगेभ्यः प्रकृत्या शान्तचेतसः ॥ ४३ ।। अर्थ--देशव्रतसे सहित तिर्यञ्च तथा मनुष्य अपनी-अपनी स्थितिके अनुसार अढ़ाई द्वीपोंमें निवास करते हैं। देशवतसे विभूषित कोई तिर्यञ्च स्वयंभुरमण द्वोपमें हर्षपूर्वक निवास करते हैं । ये तिर्यञ्च, पूर्वभवसे आये हुए सुसंस्कारोंके प्रभाबसे उपदेशके बिना हो देशवतसे विभूषित होते हैं, जोवघातसे डरते रहते हैं, सांसारिक भोगोंसे विरक्त रहते हैं और प्रकृतिसे शान्तचित्त होते हैं एवं नियमसे स्वर्ग जाते हैं ।। ४०-४३ ।। भावार्थ-मानुषोत्तर पर्वतसे आगे और स्वयंभरमण द्वोपके मध्य में स्थित स्वयंप्रभ पर्वतसे इस ओर असंख्यात द्वीप समुद्रोंमें जघन्य भोगभूमिको रचना है, वहां पञ्चेन्द्रिय तिर्यच और देवोंका निवास है, परन्तु स्वयंप्रभ पर्वतसे लेकर अर्धस्वयंभरमण द्वीप, स्वयंभूरमण समुद्र और उसके बाद कोनोंमें कर्मभूमिको रचना है। यहाँके कोई-कोई तिर्यञ्च पूर्वभवागत संस्कारसे उपदेशके बिना हो देशव्रत धारण कर लेते हैं तथा उसके प्रभावसे स्वर्ग जाते हैं। मनुष्योंका अस्तित्व अढ़ाई द्वीपसे बाहर नहीं है। आगे इस प्रकरणका समारोप करते हुए इन्द्रिय विजयका उपदेश देते अये प्रमादिनो नराः समाहिताः स्त सत्त्वरम् । इये नमन्ति तस्करा हृषीकवेषधारिणः ॥ ४४ ॥

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