Book Title: Samyak Charitra Chintaman
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 212
________________ परिशिष्ट १६७ यह अगिताय निर्जरा हो कल्माणको नगिनोंदी विशुद्धतासे कदाचित् अचलावलीके वाद ही बद्धकर्म खिर जाते हैं, इसकी उदीरणा संज्ञा है । पृष्ठ ११७ पर प्रभावात्तपसां केचिदाबाधापूर्वमेव हि । निजीयत्र जायन्ते सा मता ह्मविपाकजा ॥ ८७ ॥ श्लोकमें आबाधापूर्वमेवहिके स्थानपर 'उदयात्पूर्वमेव हि पाठ उचित लगता है। अनुबादमें भी 'आबाधाके पूर्व हो' के स्थानपर 'उदयकालके पूर्व' ऐसा पाठ उचित है। शुद्धिपत्र में यह संशोधन देनेसे रह गया है । आयुकमको छोड़कर शेष सात कर्मोको आवाधाका नियम उदयको अपेक्षा यह है कि एक कोड़ा-कोड़ी सागरको स्थितिपर सौ वर्षको आबाधा पड़तो है । अर्थात् १०७ वर्ष तक वे कर्मप्रदेश सत्तामें रहते हैं, फल नहीं देते। १०० वर्षके बाद निषेक-रचनाके अनुसार फल देते हुए स्वयं खिरने लगते हैं। आयुकर्मको आबाधा एक कोटि वर्षके विभागसे लेकर असंक्षेपाडा आवलो प्रमाण है। उदोरणाको अपेक्षा कोको आबाधा एक अचलावली प्रमाण है। सल्लेखना श्रावक हो, चाहे मुनि, सल्लेखना दोनोंके लिये आवश्यक है । उमास्वामी महाराजने लिखा है-'मारणान्तिको सल्लेखनां जोषिता'-व्रतो मनुष्य मरणान्तकाल में होने वाली सल्ले खनाको प्रीतिपूर्वक धारण करता है। मलाराधना तथा आराधनासाय आदि ग्रन्थ सल्लेखनाके स्वतन्त्र रूपसे वर्णन करनेवाले ग्रन्थ हैं। इनके सिवाय प्रायः प्रत्येक श्रावकाचारमें इसका वर्णन आता है। प्रतीकाररहित उपसर्ग, दुभिक्ष अथवा रोग आदिके होने पर गृहोतसंयमकी रक्षाको भावनासे कषाय और कायको कुश करते हुए समताभावसे शरीर छोड़ना सल्लेखना है। इसीको संन्यास अथवा समाधिमरण कहते हैं। दुक्खक्खयो का खयो समाहिमरणं च बोहिलाहो य । मम होऊ जगदबांधव तव जिणवरचरणसरणेण ॥ अर्थात् दुःखका क्षय तब तक नहीं होता जब तक कि कर्मोका क्षय नहीं होता, कर्मोका क्षय तब तक नहीं होता जब तक समाधिभरण नहीं होता और समाधिमरण तब तक नहीं होता जब तक वोधिरत्नत्रयको प्राप्ति नहीं होती। इन चार दुर्लभ वस्तुओंकी प्राप्ति जिनदेवके चरणोंको शरणसे प्राप्त होती है। कुन्द कुन्द स्वामोने सल्लेखनाको गरिमा प्रकट करते हुए इसे

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