Book Title: Samyak Charitra Chintaman
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 182
________________ এষা মাথ १५७ विगतानुमतिः किन सन्तुष्टः स्वात्मसम्पदि । उहिष्टान्न परित्यागो तत्रस्थाः श्रावका मताः ॥ १२ ॥ क्रमशोवर्धमानेन संयमेन सुशोभिता। एषां क्रमेण वक्ष्यामि लक्षणानि यथागमम् ।। ९३ ॥ अर्थ-अप्रत्याख्यानावरण नामक चारित्रमोहके क्षयोपशम और प्रत्याख्यानावरण कषायके उदयको तरतमता-हीनाधिकतासे यह श्रावक अपनो शक्तिके अनुसार प्रतिमाओंमें प्रवृत्त होता है उन्हें धारण करता है। बे प्रतिमायें यहां ग्यारह है- १. दर्शनिक, २. व्रतो, ३. सामयिको, ४. प्रोषधवतधारी, ५. सचित्त त्यागी. ६. रात्रिभक्ति त्यागी, ७. ब्रह्मचयंसे सुशोभित, ८. आरम्भ त्यागी, ६. परिग्रहत्यागसे सुशोभित, १० अपनो आत्म-संपदामें संतुष्ट रहने वाला अनुमति त्यागी और ११. उच्छिष्टान्न परित्यागो, ये ग्यारह प्रतिमाएं हैं। इनमें स्थित रहने वाले व्रतो, थावक कहलाते हैं। ये श्रावक क्रम से बढ़ते हुए चारित्र से सुशोभित रहते हैं। अब यहां क्रम से आगम के अनुसार इनके लक्षण कहूंगा ।। ८८.६३॥ ___दर्शनिक श्रावक ( प्रथम प्रतिमाधारी ) का लक्षण सम्यग्दर्शनसंपन्न: सप्तव्यसनदूरगः। अष्टमूलगुणयुक्तो दर्शनिकः समुच्यते ।। ९४ ।। देवशास्त्रगुरूणां यो मोक्षमार्गोपयोगिनाम् । श्रद्धया परया युक्तः सम्यग्दृष्टिः स उच्यते ।। ९५ ॥ चूतं मांसं च मधं च वेश्याखेटको सथा। चौर्य परपुरन्ध्रीणां सेवनं व्यसनं मतम् ॥ १६ ॥ एषां यस्य परित्यागो दर्शनिकः स उच्यते । मद्यमांसंच क्षौनं च यो नाश्ताति कदाचन ॥१७॥ नोदुम्बराविक भक्त न भुसे निशि जात्वपि । कुरुते जोव कारुण्यं करोति जिनदर्शनम् ॥ ९८ ॥ मादत्तगालितं नीरं स स्थान्मूल गुणाश्रयी। परमेष्ठिपदाम्भोजं शरणं पतवान् सुधीः ॥ ९९ ॥ एष दर्शनिको नूनं घिरको भवनोगतः । प्रथमः श्रापकः प्रोक्तो जैनागम विशारदः।। १०० ॥ १. मद्य पल मधु निशासन पञ्चफली विरति पञ्चका प्तनुति। जीवदया जलंगालन मिति च क्वचिदष्ट मूलगुणाः ।। सागार धर्मामृत

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