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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः तं वर्धमानं भुवि वर्धमान श्रेयःनिया ध्वस्तसमस्तमामम् । भक्त्याभृतः सम्मुक्तिश्च नित्यं नमाम्यहं तीर्थङ्करं समय॑म् ॥५८ ॥
(युग्मम् ) अर्थ-जन्म कल्याणक सम्बन्धी महोत्सवोंमें देवोंने स्वर्गसे आकर मेरु पर्वतकी शिखरपर क्षीर सागरके जलसे जिनका बहत भारी भक्तिभावसे अभिषेक किया था, जो पृथिवोमें कल्याणकारी लक्ष्मोसे बढ़ रहे थे और जिन्होंने सबके अभिमानको नष्ट कर दिया था उन पूज्य वर्धमान तीर्थङ्करको में भक्तिसे परिपूर्ण तथा हर्षसे युक्त होता हुआ नमस्कार करता हूं ॥ ५७-५८ ।। इति हि विहितां भक्त्या तीर्थकृतां सुखदायिनी
अमरपतिभिः प्राथ्या स्तोत्रज पतोह यः । मुक्तिमनसा नित्यं धीमान् स भव्यशिखामणिः
व्रजति सहसा स्वात्मानन्द ह्यमन्बतर सुधीः ।। ५९ ॥ अर्थ-इस प्रकार भक्तिसे निर्मित, सुखदायक और इन्द्रोंके द्वारा प्रार्थनीय तीर्थङ्करोंको स्तोत्र मालाको जो बुद्धिमान् प्रसन्न चित्तसे निरन्तर पढ़ता है यह उत्तम बुद्धिका धारक, श्रेष्ठ भव्य शीघ्न हो बहुत भारी स्वात्म सुखको प्राप्त होता है ॥ ५६ ।। आगे जिन स्तुतिकी महिमा बतलाते हैं---
रागद्वेषव्यतीतेषु सिद्धाहत्परमेष्टिषु । सूर्युपाध्याय सङ्घषु श्रमणेषु महत्सु च ।। ६० ।। क्षमाप्रमृतिधर्मषु द्वादशाङ्गभूतेषु च। यः सम्यम्शो रागः स प्रशस्तः समुच्यते ॥ ६१॥ तेषामभिमुखत्वेन सिद्धधन्यत्र मनोरथा।। एष रामः सरागाणां सुदृशां शिवसाधकः ॥ ६२ ।। अभावान्मोक्षकाअक्षाया लिदानं नव मन्यते ।
काङ्क्षणं भाविभागानां निवानं मुनिभिर्मसम् ।। ६३ ।। अर्थ-राग-द्वेषसे रहित सिद्ध तथा अरहन्त परमेष्ठियोंमें, आचार्य उपाध्यायके सङ्घोंमें, महामुनियोंमें, क्षमा आदि धर्मोमें तथा द्वादशाङ्ग श्रुतोंमें सम्यग्दृष्टि जोबका जो राग है वह प्रशस्त राग है। इन सबको अभिमुखता-भक्ति से इस जगत्में मनोरथ सिद्ध होते हैं । सराग सम्यग्. दृष्टियोंका यह राग परम्परासे मोक्षका साधक है। भोगाकांक्षाका