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बष्ठ प्रकाश
प्रमादतो ये बहवोऽवराधा हिंसाभिमुख्या विहिता मयेते । ते त्वत्प्रसादाद्विफला मयन्तु भवन्तु, दुःखस्य यतो विनाशाः ।। ९४ ।। पापाभिलिप्तेन हियोजितेन वयान्यतोसेन महाशठेन ।
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होनेन युद्धचा विहितानि यानि कृत्यानि हा हन्त मया प्रमादात् ।। ९५ ।। संवेगवातज्वलितेन तापानलेन ताम्या निहन्तुमीहे निन्दामि निश्यं मनसा विरुद्धमात्मस्वभावं बहुशो विभो ! हे ।। ९६ ॥ सुदुर्लभं मत्र्यभवं पवित्रं गोत्रं व घमं च महापवित्रम् । लब्ध्यापि हा मूढतमेन मान्य जोधा बराका निहता मयते ।। ९७ ।। मूत्वेन्द्रिया लम्पटमान सेनाशेनैव नूनं निहता समन्तात् । एकेन्द्रियाचा भवतः प्रसादात् सान्तोभवेवद्य स मेऽपराधः ।। ९८ ।। आलोचनायां कुटिलाश्च दोषाः कृता मया ये विपुलाश्च भीमाः । भवन्तु ते नाम मवस्कृपाभिर्मृषा वृषाराधित
पादपद्म ।। ९९ ।।
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अर्थ - हे भगवन् ! प्रमादसे मेरे द्वारा जो ये अपराध हुए हैं वे आपके प्रसादसे निष्फल हों जिससे मेरे दुःखोंका नाश हो सके। पाप लिप्त, निर्लज्ज, निर्दय, अत्यन्त शठ और बुद्धिहीन होकर प्रमादसे मेरे द्वारा जो कार्य किये गये हैं आज संवेगरूपी वायुसे प्रज्वलित पश्चात्ताप रूपी अग्निसे उन्हें नष्ट करना चाहता हूँ । हे विभो ! मैंने अनेक बार जो आत्म-स्वभावकी विराधनाको है उसको मैं नित्य हो मनसे निन्दा करता हूँ । अत्यन्त दुर्लभ मनुष्य पर्याय, पवित्र गोत्र और महापवित्र धर्मको पाकर भी मुझ महामुखने इन बेचारे जोवोंको मारा है । इन्द्रियासक्त मनसे युक्त हो मैंने अज्ञानोके समान सब ओरसे जो एकेन्द्रिय आदि जीवोंका घात किया है वह मेरा अपराध आपके प्रसादसे मिथ्या निष्फल हो । हे इन्द्र के द्वारा पूजित चरण कमलों वाले जिनेन्द्र ! मैंने आलोचनामें जो कुटिल, बहुत और भयंकर दोष किये हैं, आपको कृपासे वे मिथ्या हों ॥। ६४-६६ ॥
एवमाधुनिक दोषा भविष्यत्काल संभवाः ।
प्रत्याख्यानाञ्च संशोध्याः मुनिभिहितवाञ्छ्या ॥ १०० ॥ अर्थ - आत्महित के इच्छुक मुनियोंको भूतकाल सम्वन्धी दोषोंके समान वर्तमान और भविष्यत् काल सम्बन्धी दोष भी प्रत्याख्यान नामक आवश्यकसे दूर करने योग्य हैं ॥ १० ॥ आगे कायोत्सर्ग आवश्यकका वर्णन करते हैं
कायोत्सर्गमथो वच्मि कर्मक्षपणकारणम् । मोक्षमार्गोपदेष्टारं घातिकर्मविनाशकम् ।। १०१ ।।