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ये तीनों ग्रन्थराज परवर्ती दिगम्बर जैन साहित्य के मूलाधार रहे हैं। उक्त तीनों को नाटकत्रयी, प्राभृतत्रयी और कुन्दकुन्दत्रयी भी कहा जाता है।
उक्त तीनों ग्रन्थराजों पर कुन्दकुन्द के लगभग एक हजार वर्ष बाद एवं आज से एक हजार वर्ष पहले आचार्य अमृतचन्द्रदेव ने संस्कृत भाषा में गम्भीर टीकायें लिखी हैं। समयसार, प्रवचनसार एवं पंचास्तिकाय पर आचार्य अमृतचन्द्र द्वारा लिखी गई टीकाओं के सार्थक नाम क्रमश: 'आत्मख्याति', 'तत्त्वप्रदीपिका' एवं समयव्याख्या' हैं। ___आचार्य अमृतचन्द्र से लगभग तीन सौ वर्ष बाद हुए आचार्य जयसेन द्वारा इन तीनों ग्रन्थों पर लिखी गई 'तात्पर्यवृत्ति' नामक सरल-सुबोध संस्कृत टीकायें भी उपलब्ध हैं।
नियमसार पर परमवैरागी मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव ने विक्रम की बारहवीं सदी में संस्कृत भाषा में 'तात्पर्यवृत्ति' नामक टीका लिखी, जो वैराग्यभाव एवं शान्तरस से सराबोर है, भिन्न प्रकार की अदभुत टीका है। ____ अष्टपाहुड़ के आरंभिक छह पाहुड़ों पर विक्रम की सोलहवीं सदी में लिखी गई भट्टारक श्रुतसागर सूरि की संस्कृत टीका प्राप्त होती है, जो षट्पाहुड़ नाम से प्रकाशित हुई । षट्पाहुड़ कोई स्वतंत्र कृति नहीं है, अपितु अष्टपाहुड़ के आरंभिक छह पाहुड़ ही षट्पाहुड़ नाम से जाने जाते हैं।
यहाँ इन सब पर विस्तृत चर्चा करना न तो संभव है और न आवश्यक ही। यहाँ तो अब प्रस्तुत कृति अष्टपाहुड के प्रतिपाद्य पर दृष्टिपात करना प्रसंग प्राप्त है। समयसार
यदि आचार्य कुन्दकुन्द दिगम्बरजिन-आचार्य परम्परा में शिरोमणि हैं, तो शुद्धात्मा का प्रतिपादक उनका यह ग्रन्थाधिराज समयसार सम्पूर्ण जिन-वाङ्मय का शिरमौर है। आचार्य अमृतचन्द्र ने इसे 'इदमेकं जगच्चक्षुरक्षयम्१२ - यह जगत का अद्वितीय अक्षय चक्षु है' कहा है तथा इसकी महिमा 'न खलु समयसारादुत्तरं किंचिदस्ति३ – समयसार से महान इस जगत में कुछ भी नहीं है' कहकर गाई है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वयं इसकी अन्तिम गाथा में इसके अध्ययन का फल बताते हुए कहते हैं -
"जो समयपाहुडमिणं पढिदूणं अत्थतच्चदो णाएं।
अत्थे ठाही चेदा सो होही उत्तमं सोक्खं ।।४१५।। जो आत्मा इस समयप्राभृत को पढ़कर, अर्थ और तत्त्व से जानकर इसके विषयभूत अर्थ में स्वयं को स्थापित करेगा; वह उत्तमसुख (अतीन्द्रिय आनन्द) को प्राप्त करेगा।"
आचार्य जयसेन के अनुसार आचार्य कन्दकन्द ने संक्षेपरुचिवाले शिष्यों के लिए पंचास्तिकाय, मध्यमरुचिवाले शिष्यों के लिए प्रवचनसार और विस्ताररुचिवाले शिष्यों के लिए इस ग्रन्थाधिराज समयसार की रचना की है। इस बात का उल्लेख उक्त ग्रन्थों पर उनके द्वारा लिखी गई तात्पर्यवृत्ति नामक टीकाओं के आरंभ में कर दिया गया है।
इस ग्रन्थाधिराज पर आद्योपान्त १९ बार सभा में व्याख्यान कर इस युग में इसे जन-जन की वस्तु बना देनेवाले आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी कहा करते थे कि - १२. आत्मख्याति टीका, कलश २४५
१३. वही, कलश २४४ (१२)